सन् 1950 के आस-पास ‘नयी कहानी’ नये मूल्यों, नये जीवन-बोध, नये शिल्प और नये अनुभव-संसार की प्रामाणिक अभिव्यक्ति करने का जो संकल्प लेकर चली, वह सन् 1960 तक आते-आते पुराना पड़ गया और यह कहानी भी अपनी रूढ़ियों में फँसकर एक प्रकार से निस्तेज हो गयी। इसका एक कारण यह भी था कि ‘नयी कहानी’ स्वतंत्रता-प्राप्ति के जिस नये वातावरण में नयी चुनौतियों के बीच पनपी थी, वे समाप्त हो गयी और देश तथा समाज अपनी असफलताओं, कमियों और असमर्थताओं का बुरी तरह शिकार हो गया।
स्वतंत्रता-प्राप्ति को लेकर उसके मन में जो सपने थे, वे सातवें दशक के आरंभिक वर्षों में ही चकनाचूर हो गये, पंचवर्षीय योजनाओं और पंचशील सिद्धातों का अपेक्षित फल नहीं मिला। एक ‘, से जनता को ऐतिहासिक मोहभंग की पीड़ा झेलनी पड़ी। राजनीतिक उठा-पटक, दलबन्दी, नये-नये दला का निर्माण, दलों का टूटना-बिखरना, राजनीतिक आदर्शो-मर्यादाओं का छिन्न-भिन्न होना आदि जो राजनीति परिदृश्य सामने आया, उसने साहित्य-जगत् को भी प्रभावित किया।
इस सबके चलते सातवें दशक में हिन्दी कहानी में दो-तीन वर्षों के अंतराल पर और कभी-कभी समानान्तर छोटे-मोटे कहानी-आंदोलन शुरू हुए। इतना अवश्य है कि इन आंदोलनों के बीच से हिन्दी को कुछ अच्छे कहानीकार भी प्राप्त हुए।
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