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य; प्रतीत्यसमुत्पाद: शून्यतां तां प्रचक्ष्महे। स प्रज्ञप्तिरूपमादाय प्रतिपत्सैव मध्यमा |।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ आर्य नागार्जुन द्वारा रचित संस्कृत भाषा के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘माध्यमिक कारिका’ ली गई हैं। 

इन पंक्तियों के माध्यम से कविता ने शून्यता के सिद्धांत को अनित्यता तथा प्रतीत्य समुत्पाद नामक सिद्धांत को तार्किक निष्कर्षों के आधार पर व्याख्यायित करके समझाने का प्रयत्न किया है।

प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत का शून्यता के साथ संबंध का उल्लेख बौद्ध त्रिपिटक में मिलता है, जिसमें बुद्ध के उपदेशों तथा वचनों का संग्रह है।

नागार्जुन प्रतीत्यसमुत्पाद को ‘शून्य’ के सिद्धांत के साथ उसको विस्तृत व्याख्या करके समझाते हुए कहते हैं

व्याख्या : प्रतीत्य समुत्पाद को हो हम शून्यता कहते हैं। संसार की सभी वस्तुओं का अस्तित्व अन्य वस्तुओं पर निर्भर करता अर्थात संसार की सभी वस्तुओं का अस्तित्व सापेक्ष है।

इनकी उत्पत्ति के कारण अन्य वस्तुओं पर अवलम्बित है। अतः संसार की सभी वस्तुएँ परतंत्र हैं, उनका स्वयं का कोई भी अस्तित्व नहीं है, इसलिए ये शून्य हैं।

कवि नागार्जुन शून्य तथा प्रतीत्यसमुत्पाद को एक समान मानते हुए कहते हैं कि इसके होने पर यह होता है, प्रत्येक वस्तु के उत्पन्न होने का कोई-न-कोई कारण होता है, एक वस्तु के नष्ट हो जाने पर ही दूसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है।

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