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आधुनिकता के स्थल में रूप में नगर

 आधुनिकता के प्रतीक 19वीं शताब्दी के मध्य तक शहर आधुनिकता के सामान्य रूप से जुड़ चुके थे और उनमें आधुनिकता के प्रतीक दिखाई देने लगे थे। आधुनिक शहरों में औद्योगिक पूँजीवाद, नौकरशाही तार्किकता या सहकारिता विकसित हो चुकी थी। ये उन शहरों के प्राथमिक कार्य स्थल थे जिन पर ध्यान दिया गया। आधुनिकता शब्द केवल भौतिक परिवर्तनों जैसें औद्योगिक या प्रिंट पूँजीवादी या मल-मल या सीवेज और स्वच्छता की व्यवस्था का ही सूचक नहीं है,  बल्कि यह नए संस्थात्मक क्षेत्रों जैसे कि संग्रहालयों, सार्वजनिक पुस्तकालयों तथा स्वैच्छिक संस्थाओं तथा साथ ही व्यक्तिवाद तथा प्रशासनिक तार्किकता की नई समझ से भी जुड़ा है। 

शहर इन आरंभिक सर्वाधिक रूप में प्रमुख रहे, जहाँ पर इन परिवर्तनों का प्रभाव सर्वाधिक दृष्टिगोचर होता है। इन शहरों में सघन रूप से फैक्ट्रियों, व्यापारिक फर्मों, पश्चिमी शिक्षा प्राप्त स्थानीय प्रबुद्ध वर्ग, नृजातीय रूप से विविधतापूर्ण प्रवासी समुदाय, विकसित छपाई एक सहयोगात्मक संस्कृति साथ ही साथ जन-उपभोग तथा मनोरंजन के नए स्वरूपों का विकास हुआ।

शहरी आधुनिकता के, जो अनुभव इन शहरों ने उत्पन्न किए तथा जिन तरीकों से भारतीय निवासियों ने इसके प्रतिक्रिया दी, वह न तो पश्चिमी प्रारूप की कांतिहीन नकल था और न ही अपरिवर्तनीय विभिन्नताओं का उग्र प्रत्यक्षीकरण पश्चिमी आधुनिकता तथा भारतीय परम्परा के विरोधाभास के संबंध में एक साथ समानता तथा विभिन्नता दोनों के संकेतों से युक्त था। आधुनिकता की तकनीकें बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही आधुनिकता एवं शहरों के मध्य नए प्रकार के संबंधों का उदय हुआ। पश्चिमी यूरोप शानदार पूँजीपति नगर लंदन, पेरिस, बर्लिन, वियना, स्टॉकहोम और संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयार्क शहरी आधुनिकता के प्रतीक के रूप में आगे थे।

इनमें से कई शहरों का पुनर्निर्माण एक भव्य स्थल के रूप में स्मारकीय परिदृश्यों के आरंभ के साथ ही शहर को एक उपभोक्ता स्थल के रूप में प्रस्तुत करना, एक विहार स्थल तथा निगरानी स्थल के रूप में किया गया था। भारत में इन्हीं के चिह्नों तथा प्रतीकों को साकार रूप दिया गया। शहरी आधुनिकता मात्र शहर के निर्मित प्रारूप अथवा शासन संचालन में ही प्रतिबिंबित नहीं होती, वरन् राज्य और समाज में भी दिखाई देती है।  राज्य और समाज के बीच मध्यस्थता करने वाले एक नए क्षेत्र, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र का उदय हुआ, इसके कारण नगर, शहरी अंतर्किया एवं सामाजिकता के नए प्रारूपों के क्षेत्र बने। इसके साथ ही लोगों की अभूतपूर्व भीड़, तकनीकों, उपयोगी वस्तुओं, संस्थाओं तथा नगरों में विद्यमान सूचनाओं से नए वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों प्रकार की आकस्मिकताओं एवं प्रयोगों का उदय हुआ, जो कि सुस्पष्ट रूप से आधुनिक थे।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के दौर में यूरोप संचालित शहरी आधुनिकता के ये प्रतिरूप आदर्श विश्व के अनेक भागों में अपनाए गए। सर्वत्र औपनिवेशिक विश्व में नगरों ने अपनी स्थानिक तकनीकी तथा सामाजिक संकेत साम्राज्यवादी पश्चिम से ग्रहण किए। विद्वानों के शोधों से पता चलता है कि वे उन तरीकों से भी विकसित हुए, जिनकी महानगरीय संदर्भ के अनुभव द्वारा पूर्व कल्पना भी नहीं की गई थी। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अंत से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध के अंत तक के काल में नगरीय आधुनिकता के प्रमुख स्थल के रूप में औपनिवेशिक भारत के चार प्रमुख शहरों बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली तथा मद्रास पर ध्यान केन्द्रित किया गया।

इनमें दो प्रमुख मुद्दों पर बल दिया गया। प्रथम, किस प्रकार आधुनिकता से जुड़ी तकनीकी एवं संस्थात्मक प्रारूपों ने इन नगरों में भौतिक जीवन के ताने-बाने को रूपान्तरित किया गया। द्वितीय नगरीय संदर्भो के अनुसार आधुनिकता की प्रक्रियाओं को आकार देना। 

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