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वाणिज्यवाद

 यूरोप के विस्तार और वाणिज्यवाद के बीच एक सम्बंध था। यदि हम आर्थिक विचार के इतिहास को देखें तो किसी समय के आर्थिक विचारों और नीतियों के बीच समानताओं को रेखांकित करना सम्भव है। जिस तरह विभिन्न राज्यों में नीतियों के बीच कुछ अन्तर थे, लेकिन कुछ समानताएँ भी थी जो हमें उन नीतियों को वाणिज्यवादी के रूप में चिह्नित करने और एक निश्चित विचार से जोड़कर देखने की अनुमति देती है। इसलिए नीतियों के जोर और वकालत में अन्तर के बावजूद भी अध्ययन के तहत् अवधि के आर्थिक विचारों में कुछ समानताएँ हैं, जो हमें उन विचारों को वाणिज्यवाद के रूप में चिह्नित करने की अनुमति देती हैं।

अठारहवीं शताब्दी के मध्य से इन विचारों और नीतियों की आलोचना और सैद्धान्तिक सम आलोचना उभरी जिसे अहस्तक्षेप का विचार और नीति के रूप में जाना जाने लगा। दोनों के बीच नीतियों में विषमता को मौटे रूप से एकाधिकार और व्यापार के नियन्त्रण और मुक्त व्यापार के रूप में देखा जा सकता है।  दोनों पूंजी संचय के व्यापक हितों के अन्तर्गत अलग-अलग दृष्टिकोण से, उभरते और विकसित पूंजीवाद के अलग-अलग चरणों के प्रतिबिंब हैं। पूंजीवाद को आवश्यकता थी कि यह जो उत्पादन करता था उसे वस्तुओं में बदल दिया जाए अर्थात् ऐसे उत्पाद और यहाँ तक कि श्रम को भी, जिन्हें बाजार में बेचा जा सकता था, ताकि उत्पाद को इसके उत्पादन की लागत से अधिक कीमत पर बेचा जा सके। 

इसके लिए उत्पादन की प्रणाली और उत्पादन प्रक्रिया के संगठन में बदलाव की आवश्यकता थी। यह अचानक नहीं हुआ था, यह एक क्रमिक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जैसा कि अब हम देख सकते हैं, हालांकि इतिहास में उस समय परिवर्तन की गति पहले की तुलना में तेज थी। इस प्रक्रिया में शामिल सभी बदलाव अर्थव्यवस्था के मौजूदा चरण में नहीं उभर सकते थे, हालांकि उनमें से काफी संख्या ने ऐसा किया था। लेकिन उस अवस्था में अधिक प्रभाव बाहरी प्रेरणा का था यानि व्यापार और वाणिज्य का, जो उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बन गया। इस इकाई में हम इस चरण पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं जिसे वाणिज्यवाद कहा जा सकता है।

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