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स्वदेशी आन्दोलन पर एक टिप्पणी लिखिए।

 स्वदेशी आंदोलन स्वदेशी आंदोलन ने बंगालियों में फूट डालने के बजाय इन्हें एक कर दिया। वस्तुतः यहाँ एक बंगाल अस्मिता उत्पन्न हो रही थी, जिसकी ओर औपनिवेशिक शासन का ध्यान नहीं गया। इसमें बंगाल की खराब आर्थिक दशा का भी हाथ था। यहां रोजगार का अभाव था और प्रतिकूल मौसम के कारण कृषि की दशा भी अच्छी नहीं थी। बंग-भंग के विरुद्ध 1903 में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे थे और 1905 में विभाजन के बाद भी जारी रहे, क्योंकि लोग विभाजन को रद्द करना चाहते थे। धीरे-धीरे यही आंदोलन बड़े रूप में स्वदेशी आन्दोलन बन गया।

सुमित सरकार के विच में बंगाल में अल्पाधिक चार प्रवृत्तियां विद्यमान थीं उदारवादी प्रवृत्ति, रचनात्मक स्वदेशी, राजनीतिक गरमपंथी और क्रांतिकारी राष्ट्रवाद। बंगाल विभाजन की घोषणा के साथ उदारवारियों ने बंग-भंग योजना का विरोध करना शुरू किया। वस्तुतः उनकी मांगों की ओर औपनिवेशिक शासन ने ध्यान नहीं दिया। सर्वप्रथम सुरेन्द्र बनर्जी ने स्वदेशी आंदोलन की भूमिका तैयार की और ब्रिटिश वस्तुओं और विदेशी संस्थाओं के बहिष्कार पर बल दिया। उदारवादी शिक्षित बंगाली अन्य वर्गों को भी स्वदेशी आंदोलन से जोड़ रहे थे। इसी समय स्वदेशी आन्दोलन के नेताओं ने लोगों से आत्मनिर्भर होने, ग्रामीण संगठन बनाने और रचनात्मक कार्यों पर बल दिया। लोगों को शिक्षा देने के लिए राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना की।

उग्रवादी बंगालियों ने रोजमर्रा की वस्तुओं के निर्माण, राष्ट्रीय शिक्षा, पंचायती न्यायालय और ग्रामीण संगठन का कार्यक्रम बनाया। राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का नेतृत्व सतीशचन्द्र मुखर्जी ने किया। ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने सारस्वत आयतन तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन आश्रम की स्थापना की। स्वदेशी आंदोलन के नेताओं ने विचार किया कि हिन्दुवाद का प्रचार लोगों को एक मंच पर ला सकता है। सन् 1906 में बंगाल नेशनल कालेज की स्थापना से राष्ट्रीय शिक्षा की गति तेज हो गयी। गरमपंथियों में यह धारणा विकसित हुई कि राष्ट्रीय जीवन के विकास के लिए आजादी जरूरी है, इसलिए वे पूर्ण स्वतंत्रता और स्वराज्य प्राप्त करने की कोशिश में जुट गए।

उन्होंने इसके लिए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध हिंसक आंदोलन करने का भी विचार किया। अरविंदो घोष ने जनता को एक मंच पर लाने के लिए धर्म को एक माध्यम के रूप में प्रयोग किया, परन्तु उससे मुसलमानों के स्वदेशी आंदोलन से अलग होने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला। फिर विभिन्न समितियों ने जनसमूह को लामबंद करने की कोशिश की, परन्तु यह भी अधिक सफल नहीं हुआ। इस असफलता का कारण निम्न किसानों का आंदोलन से अलग होना था, क्योंकि इसमें बड़े पैमाने पर जमींदार शामिल थे। राष्ट्रीय विद्यालयों की संख्या कम होने से शिक्षा को भी पर्याप्त बढ़ावा नहीं मिल सका। स्वदेशी आंदोलन में पूर्वी भारत और उत्तरी भारत के श्रमिक भी शामिल नहीं थे। इन सबके कारण गरमपंथी आंदोलन 1908 तक कमजोर पड़ गया। सूरत में गमरपंथियों के विभाजन से यह अधिक कमजोर हो गया।

लाला लाजपत राय ने इसे रोकने का प्रयास किया और दोनों दलों में सुलह की कोशिश की, परन्तु बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से कांग्रेस की राजनीति नई दिशा में मुड़ गई। काफी विवाद के पश्चात 1907 में कांग्रेस का अधिवेशन सूरत में हुआ। यहाँ अध्यक्ष पद को लेकर विवाद छिड़ गया। विभिन्न नेताओं के बीच तनाव उत्पन्न हो गया। तिलक की मृत्यु और अरविंदो घोष द्वारा संन्यास लेने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के दोनों दल अलग हो गये और आगे चलकर गाँधी जी ने इन्हें फिर एक किया। स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव स्वदेशी आंदोलन भारत का अपना आन्दोलन था, जिससे भारतवासियों को पर्याप्त सीख मिली। स्वदेशी आंदोलन में शिक्षकों, छात्रों, किसानों और अन्ना वर्गों ने भाग लिया।

फलस्वरूप इससे राष्ट्रवाद का प्रसार हुआ तथा कला और साहित्य का विकास हुआ, क्योंकि पुलिस के दमन को गीतों, कविताओं, व्यंग्यचित्र के रूप में दर्शाया गया। धीरे-धीरे राष्ट्रवाद एक राजनीतिक आन्दोलन बन गया। विदेशों में बसे लाखों भारतीय भी इस आन्दोलन जुड गये। आन्दोलन की प्राथमिक राजनीतिज्ञों की पीढ़ी बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र आईं। उदारवादी नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने अध्यापक की नौकरी छोड़ देशहित में पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ बन गये और उन्होंने सामाजिक सुधारों का समर्थन किया। उन्होंने ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया’ की भी स्थापना की, जिसने अनेक गरीबों को सेवा की। बाल गंगाधर तिलक ने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ नामक समाचार पत्रों के द्वारा देश के लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध जागत किया। अनेक अंग्रेजी शिक्षित युवा शहर छोड़कर गाँवों में गए और स्वदेशी के संदेश का प्रचार किया।

पूर्वी बंगाल में मुस्लिम नेताओं ने अन्य सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों के साथ मिलकर 1906 में ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की, जिसने कांग्रेस के विरुद्ध कर्जन के बंग-भंग का समर्थन किया। स्वदेशी आंदोलन ने अधिकांश भारतीय नेताओं को प्रभावित किया। यद्यपि कलकत्ता राष्ट्रीय विचारों का केन्द्र रहा, परन्तु पूना, मुम्बई, दिल्ली, लाहौर, लखनऊ आदि स्थानों का राजनीति में प्रवेश हुआ। गाँधी जी ने 1909 में अपने लिखी ‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तक में औपनिवेशिक भारत में राष्ट्रवाद के एक नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। अफ्रीका से आने के पश्चात् महत्त्वपूर्ण आंदोलनों को चलाया, इन सबके बावजद हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को मिटाया नहीं जा सका।

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