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नौ लख गाय सुनी हम नन्द के तापर दूध दही न अधाने । माँगत भीख फिरौ बन ही बन झूठि ही बातन के पन पाने ।। …………. सयाने। जाहु भले जु चले घर जाहु चले बस जाउ वृंदावन जाने।।

 इसका आशय यह है कि भले ही हम ऊँचे-ऊँचे महलों में रहते हैं किंतु मौत हमें एक पल भी उसमें नहीं रहने देती। यह संसार घास की टट्टी के समान है जो जल जाने पर भस्म हो जाती है। शरीर का अंत होते ही भाई-बंधु उसे शीघ्रातिशीध बाहर निकालने में लगे होते हैं। यहाँ तक कि जो स्त्री उस देह से प्रेम करती थी वही उसे ‘भूत-भूत’ कहकर भागती है। भला ऐसे जगत और सांसारिक रिश्तों की सार्थकता क्या है रविदास ने एक बड़ा प्रश्न खड़ा किया है।

काल में इस सारे संसार को लूट लिया है। लेकिन रविदास इसलिए बच गए हैं क्योंकि उन्होंने परमात्मा के नाम का सहारा ले रखा है। रविदास ने जीव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं माना। उन्होंने उसे माटी का पुतला माना है। इस जीव की सार्थकता इसी में है कि वह राम-नाम की शरण में जाकर उसका आश्रय ले। उन्होंने संसार के शाश्वत सत्य को बहुत सरलता एवं सहजता से स्पष्ट किया है-जगत की इस अवस्था को देखकर रविदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भाई-बंधु, पति-पत्नी जीते जी जो इस शरीर से प्यार करते हैं वो ही सबसे पहले उसे घर से निकालने को उग्र होते हैं।

अतः इस संसार सागर से केवल राम नाम ही छूटकारा दिला सकता है। और कोई नहीं। उन्होंने अपनी साधना में सिद्धों-नार्थों तथा कबीर आदि निर्गुण संतों द्वारा अपनाई गई पारिभाषिक शब्दावली का उपयोग अपने काव्य में किया है। उनके यहाँ सुरति-निरति, सहज, सुन्न, गगन मंडल, गंगा-जमुना, सुषमना, सुरसरि धार, जोति, उल्टा कुआँ, अनाहत नाद आदि निर्गुणवादी शब्द बार-बार आए हैं, जो उनकी साधना पद्धति के विशेष अंग रहे हैं। उन्होंने इन शब्दों का प्रयोग कर आंतरिक अनुभवों से उन्हें नया अर्थ भी दिया है। उन्होंने अपनी वाणियों में बार-बार मन को स्थिर करते हुए उसे माया से दूर रहने की सलाह दी है।

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