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कन्‍नड की भक्ति साहित्य परंपरा का परिचय दीजिए।

 कन्नड़ भाषा में साहित्य का उदय 12वीं शताब्दी के आस-पास हुआ। कन्नड़ भक्ति साहित्य को एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक आन्दोलन का स्वरूप देने वाले कवियों (वचनकारों) में प्रमुख हैं- बसवेश्वर अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चन्न बसवण्णा इत्यादि कन्नड़ भक्ति साहित्य में जिन वचनकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, वे हैं-दासकूट, राघवांक, सर्वज्ञ, व्यासराय, श्रीपादराज कनकदास पुरंदरदास, विजयदास, प्रसन्नवेंकट दास गोपालदास हरिदास, जगन्नाथदास, प्रणेशदास. हेल्वनकट्टे गिरियम्म, हरपन हल्ली भीमन्न, लक्ष्मीदेवम्म सर्वज्ञ, इत्यादि वीरशैव पुराण परंपरा के प्रमुख कवि थ-भीमकवि, लक्कण्ण दण्डेश, सक्कणाचार्य विरुपाक्ष पण्डित विरत महालंग देव (गुरु बोधामृत) चामरस (प्रभुलिंग लीला), निजगुण शिवयोगी (केवल्य पददति), सर्वभूषण शिवयोनी कैवल्य कलय वल्लरी), बाललीला महत शिवयोगी (कैवल्य दर्पण), मडिवालव्य, शिशुनाल शरीक तथा शंकर दास इत्यादि इन सन्तों द्वारा कन्नड़ साहित्य में भक्ति साहित्य का विकास किया गया।

वीरशैव धर्म की स्थापना बसवण्णा ने की थी। ‘अनुभव मण्डप’ नामक संस्था में प्रतिदिन जीवन एवं साहित्य की चर्चा की जाती थी। वचन साहित्य की एक सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि अनुभव मण्डप नामक संस्था में समाज के निम्न स्तर के लोगों को भी अपने अनुभवों की चर्चा करने का अधिकार था। यहाँ तक कि वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं को भी अनुभव मण्डप में अपने विचारों को प्रस्तुत करने का अधिकार था।

हरिदास साहित्य के प्रवर्तक दासकूट थे। ये भक्त एवं भगवान के सम्बन्ध को दास सम्बन्ध के रूप में ही मानते थे। जिस प्रकार वचन साहित्य की रचना की गयी, उसी प्रकार दास साहित्यकारों ने भी भक्ति साधना एवं साहित्य की रचना की। हरिदास ने गीतों के द्वारा अपनी रचनाओं को प्रस्तुत किया। अपनी विद्वत्ता के कारण व्यासराय को कर्नाटक संगीत का पितामह कहा जाता है।

दास साहित्यकार भगवान कृष्ण को अपना आराध्य देव मानते थे। संत साहित्य में दास परंपरा के सबसे महत्त्वपूर्ण कवि हैं- पुरन्दरदास तथा कनक दास पुरन्दरदास द्वारा रचित कविताओं में संगीत का भी पुट हैं। कर्नाटक में आज भी पुरन्दरदास के गीत बहुत लोकप्रिय हैं। सन्त कनकदास की कविता में भक्ति का उल्लेख है। इसके साथ-साथ कनकदास की कविता में सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह की भावना भी देखने को मिलती है। सर्वज्ञ एक ऐसे सन्त थे, जिन्हें किसी भी वाद से नहीं जोड़ा जाता। सर्वज्ञ घुमक्कड़ प्रवृति के थे।

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