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'सेवासदन' की मूल समस्या

किसी भी रचना का कुछ-न-कुछ उद्देश्य अवश्य होता है अर्थात् उसमें किसी ज्वलंत प्रश्न या  समस्या को उठाकर उसके समाधान का प्रयास किया जाता है। मुंशी प्रेमचन्द तो पूर्णतया सोद्देश्य साहित्यकार रहे हैं उन्होंने अपने सभी उपन्यासों और कहानियों में किसी समस्या को उभारकर उसका समाधान प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। इस संदर्भ में उनके ये उद्गार द्रष्टव्य है 

“वास्तव में कोई रचना रचयिता के मनोभावों का आईना होती है। जिसके हृदय में देश की लगन है उसके चरित्र, घटनावली और परिस्थितियाँ सभी उसी रंग में रंगी नजर आयेंगी। लहरी आनन्दी लेखकों के चरित्र में भी अधिकांश चरित्र ऐसे ही होंगे, जिन्हें जगत् गति नहीं व्यापती वे जासूसी तिलस्मी चीजें लिखा करते हैं। अगर लेखक आशावादी है तो उसकी रचना में आशावादिता छलकेगी। अगर वह शोकवादी है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी वह अपने चरित्रों को जिंवादिल न बना सकेगा।” मुंशी प्रेमचन्द के विषय में कहा जा सकता है कि वे आशावादी उपन्यासकारों में से है अतः उन्होंने जिन समस्याओं को प्रस्तुत किया है, उनके समाधान भी प्रस्तुत किए है-यह बात दूसरी है कि वे समाधान पूर्णतः संभव न हो। सेवासदन में प्रेमचन्द ने मूलतः निम्नांकित समस्याएँ प्रस्तुत की हैं:

(क) दहेज की समस्या

(ख) रिश्वतखोरी की समस्या।

(ग) धार्मिक ठगी की समस्या

(घ) साम्प्रदायिक विद्वेष की समस्या

(ड) वेश्यावृत्ति की समस्या

(क) दहेज की समस्या - दहेज की समस्या को प्रेमचन्द ने नाना अनर्थों की जड़ दिखाया है। इसके कारण सीधे-साधु चरित्र वाले पिताओं द्वारा दारोगा कृष्णचंद्र की भाँति रिश्वत लेने को विवश होना पड़ता है, जिससे वे स्व-पुत्रियों के विवाह में उचित दहेज दे सकें। इसके अभाव में सुयोग्य कन्याएँ भी अयोग्य वरों के गले मद दी जाती है, जिससे उनका वैवाहिक जीवन असफल सिद्ध होता है और वे सुमन की भाँति पथभ्रष्ट हो जाती हैं। दहेज की प्रथा मुख्यतः सुमन तथा गौणतः शांता के विवाह प्रसंग में उमरकर सामने आती है। दारोगा कृष्णचन्द्र अखबारों में दहेज प्रथा के विरोध में लेख पढ़ते आए हैं जिससे उन्हें विश्वास हो जाता है कि इस कुप्रथा का सीघ्र ही देश से नाम मिटने वाला है,

किन्तु जब वे अपनी पुत्री सुमन के लिए पर खोजने निकलते हैं तो लड़के वालों की दहेज की ऊँची-ऊँची माँगे सुनकर उनके होश उड़ जाते हैं। लोग किस प्रकार के तर्क देकर दहेज का औचित्य सिद्ध करते हैं इस समाना में दो महशयों के उदगार अवलोकनीय है। उनमें से पहले महाशय जो स्वयं को इस कुप्रथा के जानी दुश्मन बताते हैं, उनका तर्क देखिए “महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा जानी दुश्मन हूं, लेकिन क्या करें, अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार केवल दहेज में देने पड़े दो हजार खाने-पीने में खर्च किए, आप ही कहिए, यह कमी कैसे पूरी हो ? दूसरे सज्जन का तर्क है कि जब लड़के की पढ़ाई-लिखाई पर मैंने हजारों रुपये व्यय किए हैं, तो उस खर्च को मैं ही क्यों सहन करूँ, जबकि उसका लाभ आपकी लड़की भी उठायेगी ‘दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे।

दारोगाजी, मैंने लड़के को पाला है, सहस्त्रों रूपये उसकी पढ़ाई में खर्च किए हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा, जितना मेरे लड़के को तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार में अकेला सुमन के लिए वर खोजने निकले। उमानाथ को नो दहेज की ऐसी ही लम्बी चौड़ी माँगे सुनकर निराश होना पड़ता है कैसे उठा सकता हूँ। “अंत में उमानाथ ने निश्चय किया कि शहर में कोई वर ढूँढना चाहिए। सुमन के योग्य वर देहात में नही मिल सकता पर शहर वालों की लम्बी-चौड़ी बातें सुनी तो उनके होश उड़ गये। बड़े आदमियों का तो कहना ही क्या, दफ्तरों के मुसद्दी और क्लर्क भी हजारों का राग अलपाते थे।” यही दशा शांता के लिए वर खोजते समय होती है और वे उसका एक खाते-पीते घर में तभी रिश्ता तय कर पाते हैं, जब उन्हें गजार से एक हजार रुपये मिलने का वचन मिल जाता है।

(ख) रिश्वतखोरी की समस्या – रिश्वतखोरी की समस्या को उपन्यासकार ने दारोगा कृष्णचन्द्र के माध्यम से उभारा है। पच्चीस वर्षतक थानेदारी करते हुए वे अपने कर्तव्य का निर्लोभ नाव से पालन करते आए हैं, जिसका परिणाम यह निकलता है कि उनके अफसर तथा उनके अधीनस्थ कर्मचारी सभी उनसे संतुष्ट रहते हैं अधीनस्थ कर्मचारी, जिनके साथ ये भाई-चारे का व्यवहार करते थे, उनका तर्क था

“यहाँ हमारे पेट नहीं भरता, हम इनकी भलमनसी को लेकर क्या करें चाटें? हमें घुड़की, डाँट-डपट सख्ती सब हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटियाँ चाँदी के बाल में परोसी जायें तो भी वे पूरियाँ न हो जायेंगी। इसके साथ ही उनके अफसरों की असंतुष्टि का कारण यह था स्वीकार है, केवल “दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दायतें उड़ाते। अहलमद को नजराना मिलता। अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालियाँ मिलती।

पर कृष्णचन्द्र के यहाँ यह आदर कहाँ? वह न दावतें करते थे, न डालियाँ ही लगाते थे जो किसी से लेता नहीं, वह किसी को देगा कहाँ से? दारोगा कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।” इसे सामाजिक विडम्बना ही कहा जाएगा कि रिश्वत लेने से बचने वाले कृष्णचन्द्र से न तो उनके अफसर और अधीनस्थ कर्मचारी ही प्रसन्न हैं और न दे पाप की कमाई के अभाव में स्त्री पुत्री के विवाह हेतु दहेज में मोटी रकम देने की स्थिति में ही होते हैं। दारोगा कृष्णचन्द्र को अपने सत्याचरण और ईमानदारी पर पश्चाताप करते दिखाकर उपन्यासकार ने इस ओर इंगित किया है कि हमारे राष्ट्रीय चरित्र की किस सीमा तक हत्या हो चुकी है

“कृष्णचन्द्र को अपनी ईमानदारी और सच्चाई पर पश्चाताप होने लगा। अपनी निःस्पृहता पर उन्हें जो ड था, वह टूट गया। वह सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता तो आज गुझे यूँ ठोकरें न खानी पड़ती। इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिंता में डूबे बैठे थे बड़ी देर के बाद कृष्णचंद्र बोले, देख लिया, संसार में सन्मार्ग पर चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगों को लूटकर अपना घर भर लिय होता तो लोग मुझसे सम्बन्ध करना अपना सौभाग्य समझते, नहीं तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता है। परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है?

अब तो दो ही उपाय है या तो सुमन को किसी कंगाल के पले बाँधू दूं या कोई सोने की चिड़िया फंसाऊँ पहली बात तो होने से रही, बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूँ। धर्म का मजा चख लिया, सुनीति का हाल भी देख चुका अब लोगों को खूब दबाऊँगा, खूब रिश्वतें लूँगा, यही अंतिम उपाय है। संसार यही चाहता है और कदाचित ईश्वर भी यही चाहता है। यही सही आज से मैं भी यही करूंगा जो संसार करता है।” रिश्वतखोरी की कुप्रथा के कारण कैसे अपराधी लोग अदंडित ही रह जाते हैं, उपन्यासकार ने इस तथ्य की ओर भी इंगित किया है। महंत रामदास निरपराध चेतू अहीर की हत्या करा देता है, किन्तु 3096 की। रिश्वत देकर मामले को दबवा देता है। इस प्रकार न जाने कितने लोग रिश्वत के बल पर अदंडित रह जाते हैं।

(ग) धार्मिक ठगी की समस्या - हंत रामदास के माध्यम से उपन्यासकार ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि ईश्वर के नाम पर महंत लोग दीन जनता का किस बुरी तरह शोषण करते हैं। कोई उनके विरूद्ध सिर भी नहीं उठा सकता, क्योंकि उनके आश्रय में पलने वाले मुस्थंडों के भय से सभी काँपते रहते हैं

“दारोगा जी के हल्के में एक महत रामदास थे वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहाँ सारा कारोबार श्री बांकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। श्री बांकेबिहारीजी लेन-देन करते थे और 32) सैकड़े से कम सूद लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, वही रेहननामे-बैनामे लिखाते थे। श्री बांकेबिहारी जी की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे कड़ाई कर सकता था। 

श्री बांकेबिहारीजी को रुष्ट करके उस इलाके में रहना कठिन था। महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दंड पेलते मैंस का ताजा दूध पीते संध्या को दूधिया भाँग छानते और गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरूद्ध कौन सिर उठाता?” ऐसे बलवान जत्थे के विरूद्ध कौन सिर उठा”

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