प्रेमाश्रम की रचना उस समय हुई जब भारत पर औपनिवेशिक शासन तंत्र का शिकंजा कसा हुआ था। अंग्रेजों ने भारत में नई भू-व्यवस्था लागू कर दी थी। जिसके चलते सदियों से स्वयं की भूमि का मालिक समझने वाले कृषक दासों की स्थिति में आ गए और जमींदार भूमि के मालिक बन गए। इन जमींदारों और वाल्लुकदारों की पीठ पर औपनिवेशिक शासनकर्ताओं का हाथ था, जिससे ये लोग उत्साहित होकर कृषकों का शोषण करते थे। उनसे क्रूर से क्रूर अमानवीय व्यवहार करते थे। इन्हें अपनी लगान वसूली, नजराना व बेगार से सरोकार होता था, कृषि भूमि की उत्पादकता आदि से कोई मतलब नहीं होता था।
इन सबके चलते उत्पादकता में द्वारा होने लगा था. अकाल, महामारी, बाद आदि प्राकृतिक आपदाओं का भाजन भी गरीब कृषक ही बनते थे। ऐसे में भी जमींदार वर्ग द्वारा उन्हें कोई राहत न मिलती थी, सहयोग की आस तो बहुत दूर की बात थी। कृषकों का संतोष अब समाप्त होता जा रहा था, धैर्य छूटता जा रहा था। वे प्राकृतिक आपदाओं से तो मुकाबला नहीं कर सकते थे लेकिन इस दानव-रूपी जमदार-वर्ग से उन्होंने लोहा लेने की ठान ली थी। परिणामतः जगह-जगह कृषक विद्रोह होने शुरू हो गए थे। चंपारन अवध खेड़ा आदि के विद्रोह ऐसे ही आंदोलन है। ‘प्रेमाश्रम’ में भी ऐसे ही विद्रोही कृषकों की गाथा है जोकि जमींदार वर्ग से संघर्षरत है। उपन्यास में इन विद्रोही कृषकों का नेतृत्व मनोहर, बलराज काविर एवं बिलासी आदि पात्रों ने किया है जबकि जमींदारों के दो वर्ग चित्रित किए गए हैं। पहले वर्ग में वे जमींदार है जोकि शिक्षित, उदारवादी एवं नियम-कानूनों को मानने वाले हैं, जिसके चलते वे कृषकों को साथ लेकर चलने के पक्ष में हैं।
इस वर्ग का प्रतिनिधि त्व मुख्य रूप से प्रेमशंकर एवं मायाशंकर करते हैं। जमीदार वर्ग में दूसरा वर्ग, कृषकों पर अत्याचार करने वाला वर्ग है, जिसका एकमात्र उद्देश्य सुखोपभोग करना है इस वर्ग का मुख्य प्रतिनिधित्व ज्ञानशंकर ने किया है। उपन्यास के आधे से ज्यादा पृष्ठ ज्ञानशंकर द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को ही , समर्पित हैं। ‘प्रेमाश्रम’ की कथा का आरंभ ही ज्ञानशंकर द्वारा कृषकों पर की जा रही जबरदस्ती द्वारा होता है। ज्ञानशंकर के पिता जटाशंकर की बरसी का अवसर होता है, ज्ञानशंकर कृषकों में घी के लिए रुपये बाँटने का आदेश देता है और साथ ही वह चाहता है कि रुपये में सेर भर जून के खाने का कुछ नहीं पता, पल्ले एक कौड़ी नहीं, वे रुपये में सेर घी कहाँ से देंगे।
मनोहर रुपये लेने से इंकार कर देता है और संघर्ष के लिए उतारू हो जाता है। जमींदार का कारिदा उसे धमकाते हुए कहता है कि “जब जमींदार की जमीन जोतते हो तो उसके हुकुम से बाहर नहीं जा सकते।” मनोहर भी एक कदम बढ़कर जवाब देता है- “जमीन कोई खैरात जोतते हैं? उसका लगान देते हैं। एक किस्त भी बाकी पड़ जाये तो नालिस होती है। मनोहर का पुत्र बलराज भी आगे बढ़कर बोलता है- “कोई हमसे क्यों घी माँगे? किसी का दिया खाते हैं कि किसी के घर माँगने जाते हैं? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते तो हम क्यों धौंस सहँ ?” यही से जमींदार और किसान के संघर्ष का श्रीगणेश हो जाता है। ज्ञानशंकर अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए मनोहर के लगान में वृद्धि कर देता है। यहाँ हमें तयुगीन कृषक आंदोलन की भी छाप देखने को मिलती है क्योंकि आंदोलनों के भी मुख्य मुद्दे बेगार, बेदखली, गैरकानूनी कर आदि पर प्रतिबंध लगवाने के थे।
सुखोपभोग के आकांक्षी ज्ञानशंकर जैसे दुष्ट अभिमानी जमीदारों की तृष्णा यही शांत नहीं होती। उसकी यही तृष्णा उसे अपनी ससुराल लखनऊ की ओर ले जाती है। चूँकि उसकी ससुराल की जमींदारी का कोई पारिस नहीं है अतः वह वहाँ की जमींदारी हड़ना चाहता है जिसके लिए तरह-तरह के आडम्बर रचता है। इसके साथ ही साथ ज्ञानशंकर की निगाह अपनी साली गायत्री की जमींदारी पर भी है जोकि गोरखपुर में है। इस आकांक्षा से वह गोरखपुर में विधवा साली के प्रति प्रेमासक्त भी हो जाता है और अनेक प्रपंच के पश्चात उसकी जमींदारी का मैनेजर बनने में सफलता पाता है। उसके साथ ही गोरखपुर में भी उसके अत्याचारों का ताण्डव शुरू हो जाता है। इसकी अनुपस्थिति में लखनपुर में स्थिति कुछ शांत रहती है किन्तु लखनपुर में फौजदारी के सिलसिले में लौट आता है।
प्लेग की बीमारी के चलते गाँव वालों ने अपनी झोंपड़ियाँ जमींदार के बाग में बसा ली थी। वह आकर बीमारी की मार से पहले की से मरे हुए कृषकों के झोंपड़ों में आग लगवा देता है। इस पर भी सब नहीं आता तो तालाए के पाढ़ी पर प्रतिबंध लगाकर पराई भूमि पर से ही उनके अधिकारों को खत्म करना चाहता है। गाँव वाले अब उसके अत्याचारों को और नहीं सह पाते और गाँव वाले विद्रोही मनोहर एवं बलराज के साथ एका कर लेते हैं। सभी मिलकर उसके खिलाफ एक मोर्चा बना लेते हैं। सुक्खू चौधरी उन लोगों में से थे जो किसी भी हालत में जमींदार के खिलाफ नहीं जाते थे. लेकिन अन्त में उन्हें भी मनोहर और बलराज की बोली बोलनी पड़ती है। जब डॉक्टर प्रियनाथ, गौस खाँ की हत्या के कारण की झूठी रिपोर्ट बनाकर गाँव वालों को हत्या के आरोप में फँसवा देते हैं, तब फैसले की सुनवाई वाले दिन गाँव वाले विद्रोह कर देते हैं, डॉक्टर के धमकाने पर ये कहते हैं |
यह न समझें कि साधारणतः जो लोग आँख के इशारे से काँप उठते हैं, वे विद्रोह के समय गोलियों की परवाह नहीं करते।” प्रेमचन्द के इस कथन पर रामविलास शर्मा ने लिखा है “विद्रोह किसके प्रति विद्रोह ? स्पष्ट है अंग्रेजी राज के प्रति विद्रोह असहयोग आंदोलन से पहले यह विद्रोह-भावना जनता में विद्यमान थी विद्रोह के समय गोलियों की परवाह न करना, यह भावना गाँधीवाद की देन थी वह जनता की सहज देशभक्ति का विकास थी।” अर्थात् प्रेमचन्द ने ‘प्रेमाश्रम के माध्यम से यह दिखाया है कि किसान आंदोलन अपने पूरे जुनून से आगे बढ़ रहा था। डॉक्टर भी इस जुनून के आगे अपनी गवाही बदलने को विवश हो जाता है जिससे गाँव वालों की जीत हो जाती है। डॉक्टर का हृदय परिवर्तन होना प्रेमचन्द के आदर्शवाद के चलते हैं। यह तो थी कहानी अत्याचारी ज्ञानशंकर की। लेकिन इसके समानान्तर ही दूसरी कहानी उसके भाई प्रेमशंकर की चलती है, जो अमेरिका से शिक्षा प्राप्त करके लौटा है।
वह उदारवादी विचारों का धनी व्यक्ति है तथा किसानों की सहायता करने के लिए तत्पर भी दिखाई देता है और अन्त में कृषकों के हितार्थ प्रेमाश्रम की स्थापना करता है जोकि प्रेमचन्द के आदर्शवाद की चरम परिणति को भी द्योतित करता है। इसके अतिरिक्त राय साहब, जोकि लखनऊ, मसूरी, नैनीताल आदि से संबद्ध है, की कथा मी चलती है। गायत्री के माध्यम से गोरखपुर के जमींदार की कथा चलती है। वस्तुतः प्रेमचन्द ने प्रेमाश्रम’ में एक से अधिक कथाओं को एक सूत्र में पिरोकर संश्लिष्ट रूप से समस्याओं का उद्घाटन किया है। ‘प्रेमाश्रम’ में जमींदार कृषक संघर्ष की झाँकी प्रस्तुत करने के साथ-साथ प्रेमचन्द ने भारतीय समाज एवं संस्कृति की भी बानगी प्रस्तुत की है। यहाँ परम्परागत भारतीय संस्कृति का चित्रण, कहीं रूढ़िवादी परम्पराओं के रूप में दिखाया गया है, तो कहीं अंधविश्वासों के रूप में। जमींदार राय कमलानन्द योग सिद्धि के द्वारा चिरयौवन को पाना चाहते हैं।
वे कहते हैं “मैं अपने जीवन को चरम सीमा तक ले जाना चाहता था। इसके लिए मैंने कितना संथम किया, कितनी योग क्रियाएँ की, साधु-संतों की सेवा की जड़ी-बूटियों की खोज में कहाँ-कहाँ मारा-मारा फिरा. तिब्बत और कश्मीर की खाक छानता फिरा। मैंने कार्य-सिद्धि पर अर्पण कर दी थी। योग और तंत्र का अभ्यास इसी हेतु से किया था कि अक्षय यौवन तेज का आनन्द उठाता रहूँ।” अपनी सारी संपत्ति प्रभाशंकर के पुत्रों तेज और पदम को भी तंत्र मंत्र पर अंधश्विास है। वे अपने धन और सामर्थ्य को असीम बनाने के जरिए सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं।
लेकिन जब इन मंत्रों को जागृत कर प्रयोग में लाते हैं तो मृत्यु का ग्रास बनते है। प्रेमचन्द ने इस बहाने तेजशंकर के माध्यम से अंधविश्वासों एवं तंत्र-मंत्र के आडम्बरों के दुष्परिणामों को प्रकट करते हुए कहा है “जिस धूर्त पापी ने यह किताब लिखी है, उसकर इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लूँगा। ‘प्रेमाश्रम’ में तयुगीन समाज की संस्कृति की भी झलक देखने को मिलती है। कृषक जमींदार संघर्ष समानान्तर समाज का भी सहज और स्वाभाविक चित्र देखने को मिलता है।
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