सूरदास का काव्य प्रारंभिक स्तर पर अधिकांशतः उपास्य की बाल सुलभ चेष्टाओं का मौलिक काव्यात्मक उदाहरण कहा जा सकता है। वात्सल्य के अंतर्गत दो काव्य रूप हमारे सामने हैं -
(1) संयोग वात्सल्य-संयोग वात्सल्य के अंतर्गत कृष्ण के जन्म से लेकर बाल्यकाल की संपूर्ण चेष्टाएँ अत्यंत काव्यात्मक एवं मौलिक रूप से सूरदास की कविता में समाविष्ट है। कृष्ण जन्म, गोकुल प्रवेश, जन्मोत्सव से होते हुए संपूर्ण बाल्यकाल, कृष्ण का बाल रूप में वर्णन, बाल-चेष्टाएँ, पारंपरिक बाल केलियाँ, माँ एवं शिशु का मनोवैज्ञानिक संबंध, शिशु की उत्तरोत्तर बढ़ती चेष्टाएँ, बाल-लीला, माखन चोरी एवं शिशुत्व का अद्भुत समागम, सूर के काव्य को स्वयं में एक प्रतिमान बना देते हैं।
सूरदास का वात्सल्य वर्णन इसलिए मूल्यवान है कि वहाँ रूपवर्णन ही नहीं बल्कि बाल मनोविज्ञान की गहरी परख भी मौजूद है। कान्हा की बाल चेष्टाओं का सहज वर्णन सूरदास की कविता में प्राणतत्व भर देता है। यशोदा कान्हा को पालने में झुला रही हैं और उनको हिला-हिला कर दुलराती हुई कुछ गुनगुनाती भी जा रही हैं जिससे कि कृष्ण सो जाएँ
जसोदा हरि पालने झुलावै हलरावै, दुलराई मल्हावै, जोई-सोई कछु गावै मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै तू काहँ नहिं बेगहीं आवै, तोको कान्ह बुलावें ।
माँ की लोरी सुनकर कृष्ण अपनी कभी पलक बंद कर लेते हैं, कभी होंठ फड़काते हैं। उन्हें सोता जान यशोदा भी गुनगुनाना बंद कर देती हैं और नंद जी को इशारे से बताती हैं कि कान्हा सो गए हैं। इस अंतराल में कृष्ण अकुला कर फिर जाग पड़ते हैं, तो यशोदा फिर लोरी गाने लगती है
कबहूँ पलक हरि मूंद लेत है, कबहूँ अधर फरकावै । सोक्त जानि मौन ह्वै रहि रहि, करि करि सैन बतावे। इहि अंतर अकुलाई उठे हरि, जसुमति मधुर गावें । इस पद में सूर ने अपने अबोध शिशु को सुलाती माता का बड़ा ही सहज. सुंदर और मार्मिक चित्रण किया है। माँ के मन की लालसा व सपनों को भी सूर ने बड़े जीवंत ढंग से अपने पदों में उतारा है। बड़े होते शिशु की दुनिया माँ के लिए अनमोल है। सूर ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से इसे देखा और कविता की भव्य दुनिया माँ के लिए अनमोल है। सूर ने अपनी सक्ष्म दलित -
जसुमति मन अभिलाष करै। कब मेरो लाल घुटुरुवनि रँगे, कब धरनी पग द्वेक धरै। कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोते मुख वचन झरें। कब नंदहि बागा कहि बोले, कब जननी कहिं मोहिं ररै। कान्हा चाहते हैं उनकी चोटी बलराम भैया जितनी लंबी और मोटी हो जाए। माँ यशोदा को उन्हें दूध पिलाने का अच्छा मौका मिल जाता है और वे कहती हैं |
यदि तुम दूध पी लोगे तो तुम्हारी चोटी बलराम जितनी लंबी और मोटी जो जाएगी । बालकृष्ण दो-तीन बार तो माँ की बातों में आ जाते हैं फिर माँ को उलाहने देतें हैं कि तू मुझे बहाने बना कर दूध पिलाती रही देख मेरी चोटी तो वैसी है
मैया का बदेगी चोटी। किती बेर मोहि दूध पियत भई यह अजहूँ छोटी। तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, है लांबी मोटी।। कादत-गुहत न्हवावत जैहैं नागिनी-सी भुई लोटी। काचो दूध पियावत पचि-पचि, देति ना माखन रोटी। सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी। सूरदास के वात्सल्य रस की खासियत यह है कि माँ का भी मनोविज्ञान उनसे अछूता नहीं रहा । वह माँ जो स्वयं लाख डाँट ले पर दूसरों द्वारा की गई अपने बालक की शिकायत या डाँट वह सह नहीं सकती।
यही हाल सूर की जसुमति मैया का है। जब कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाया जाता है, तो उनके अनिष्ट की आशंका से उनका मन कातर हो उठता है। माता को पश्चाताप है कि जब कृष्ण ब्रज छोड़ मथुरा जा रहे थे तब ही उनका हृदृय फट क्यों न गया
छाँडि सनेह चले मथुरा कत दौरि न चीर गह्यो। फटि गई न बज की धरती, कत यह सूल सह्यो। इस पर नंद का दुःख यशोदा को याद दिलाने में गुरेज नहीं करता कि तू बात-बात पर कान्हा की पिटाई कर देती थी सो रूठ कर दो
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