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गुरू षोजौ गुरदेव गुरू षोजौ, बदंत गोरा ऐसा। मुक्ते हौइ तुम्हें बंधनि पड़िया, ये जोग है कैसा।। चांम ही चांम धसंता गुरदेव दिन दिन छीजै काया। होठ कंठ तालुका सोषी, काढ़ि मिजालू षाया।।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ नाथ पंथ के आधारस्तंभ गुरु गोरखनाथ की ‘गोरखबानी’ से उद्धृत हैं। नाथ पंथ में गुरु को सर्वोपरि माना गया है तथा ‘गोरखबानी’ के माध्यम से इन पंक्तियों में भी गुरु की महिमा का मंडन किया गया है |

व्याख्या : गोरखनाथ गुरु को शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि गुरु मेरा पोषण (कृपा) करें, गुरुदेव मुझपर कृपा दृष्टि बनाए रखें। गुरु की कृपा या उनका पोषण पाकर मेरा शरीर कार्तियुक्त होकर चमक गया है या गोरा हो गया है।

कवि कहता है कि है गुरुदेव आप ही मुझे सांसारिक बंधनों के जाल से मुक्ति दिला सकते हो। मैं इन बंधनों की बेड़ियों में जकड़कर मुक्ति/मोक्ष के मार्ग से भटक गया हूँ। सांसारिक बंधनों की बेड़ियों में जकड़कर मेरे शरीर का चर्म (मास) धंसता ही जा रहा है और इसमें धंसते-धंसते मेरी काया दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है।

गुरुदेव आपका नाम जपते जपते मेरे होंठ, कंठ तथा तालु सूखते जा रहे हैं। अब मेरा साया (आत्मा/परछाई) शरीर से निकलने के लिए उत्सुक हो गया है। अतः आप मुझे शीघ्र ही दर्शन देकर मेरी पीड़ा को हर लें तथा मेरी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करके मुझे सांसारिक बंधनों की बेड़ियों से स्वतंत्र कर दें।

विशेष :-

(1) भाषा अपभ्रंश मिश्रित संस्कृत का पुट लिए हुए है।

(2) रचनाकार द्वारा गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए अपनी सद्गति मुक्ति के लिए प्रार्थना की गई है। ।

(3) ‘गुरु, गुरुदेव, गुरु, गोरा’, ‘चांम की चाम’, ‘दिन-दिन’ में अनुप्रास की छटा दर्शनीय है।

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