द्वितीय विश्व युद्ध से ही विभिन्न देशों के दृष्टिकोण में निम्न प्रकार का परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहा है -
1. आर्थिक बाजारोन्मुखी दृष्टिकोण अपनाया जाना।
2. आर्थिक गतिविधियों का बढा अन्तर्राष्ट्रीयकरण।
उपरोक्त प्रवृत्ति अस्सी के दशक के आरम्भ में महत्त्वपूर्ण रूप से उस समय बढ़ गई जब अमेरिका और इंग्लैण्ड आदि उद्योगीकृत देशों ने आर्थिक क्रियाकलापों के अधिक बाजार समन्वयन की ओर रूख कर लिया। समाजवादी देशों ने अपना अवस्थान्तर गमन अवस्थान्तर गमन पूँजीवाद की ओर करते हुए इस प्रवृत्ति को नब्बे के दशक के आरम्भ में अपनाया। इस अवधि में सम्पूर्ण विश्व में विकास के एक अनुकूल मार्ग के रूप में निर्यातोन्मुखी विकास रणनीति और व्यापार उदारीकरण का विश्वव्यापी अंगीकरण देखा गया।
यह निम्न प्रकार हुआ :-
1. स्वेच्छा से,
2. विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा बाध्य किए जाने से (पायकज एवं फोरे 2002)। इससे भूमंडलीकरण की गति में तीव्रता आई।
परिणामतः गत कुछ दशकों में विश्व उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई है। विश्व व्यापार विश्व उत्पादन की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ा है तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएं अधिक उदार और अधिक गहन रूप से समेकित हो गई हैं।अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी प्रवाह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ा है। निम्नलिखित का आदान-प्रदान अपेक्षाकृत अधिक तेजी से हो रहा है
1. विचारों का 2. प्रौद्योगिकियों का 3. सांस्कृतिक सहज गुणों का।
सामयिक भूमंडलीकरण ने माल व सेवाओं के आदान-प्रदान में पूर्व की अपेक्षा अधिक मात्रा में वृद्धि की है। इसने पहले से अधिक प्रकार की चीजों के विनिमय की ओर प्रवृत्त किया है। पहले अनेक वस्तुएं एवं सेवाएं व्यापार के क्षेत्र में नहीं आती थीं। अब वे विश्व व्यापार में नियमित प्रवेश पाती हैं। उदाहरण के लिये
1. एक जापानी वास्तुकार फ्रांस में भवन निर्माण की अभिकल्पना कर सकता है।
2. सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों की उन्नति ने भौगोलिक दूरी में कमी कर दी है।
इंटरनेट और मोबाइल फोन जैसी प्रौद्योगिकियों ने लोगों के लिये तत्काल विश्व के किसी भी कोने में वार्ता करना सम्भव कर दिया है। इसने ज्ञान समाज की समृद्धि और विकास की गति में तीव्रता ला दी है।
विश्वव्यापी रूप से लोगों के कारण काम की तलाश में प्रवसन या देशान्तरण की घटनाओं में वृद्धि हुई है। भूमंडलीकरण विश्व संगठनों की आपेक्षिक शक्ति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन निम्न प्रकार आया है-
1. एक ओर अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान अधिक शक्तिशाली हो गए हैं, जैसे
(i) अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष, (ii) विश्व बैंक, (iii) विश्व व्यापार संगठन (WTO)
2. दूसरी ओर, विश्व सस्थाएं जिन्होंने अधिक मानव केन्द्रित हितों पर ध्यान केन्द्रित किया है, पृष्ठभूमि में चली गई हैं और कमजोर । हो गई हैं, जैसे
1. संयुक्त राष्ट्र संघ (UN) 2. अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO)
उपरोक्त परिवर्तन विश्व स्तरीय परिवर्तन के कारण हुआ। शक्तिशाली संस्थाओं ने अर्थव्यवस्था में बाजारों के बढ़े प्रयोग व कम सरकारी | हस्तक्षेप की ओर अग्रसर किया है, जैसे
(1). IME (2). WTO, (3) World Bank
उद्देश्य यह है कि वृद्धि के शब्द राष्ट्रीय सरकारों का निरीक्षण कम किया जाये ताकि व्यापार एवं पूँजी निवेश का मुक्त प्रवाह हो। विश्व संस्थाओं की शक्ति में यह परिवर्तन मानव जीवन के हर पक्ष में प्रकट होता है।
भूमंडलीकरण की वर्तमान प्रक्रिया का प्रभाव राष्ट्रीय नीतियों के वैश्वीकरण तथा राष्ट्रीय सरकारों की नीति निर्माण कार्ययोजनाओं में भी दृष्टिगोचर होता है। पहले निम्नलिखित क्षेत्रों की राष्ट्रीय नीतियां किसी देश राज्यों एवं लोगों के अधिकार क्षेत्र में ही होती थीं
1. आर्थिक क्षेत्र, 2. सामाजिक क्षेत्र, 3. सांस्कृति क्षेत्र, 4. प्रौद्योगिकीय क्षेत्र,
वे अब अन्तर्राष्ट्रीय अभिकरणों एवं बड़े निजी निगमों के प्रभाव में आती जा रही हैं। इन अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के बढ़ते दबाव के कारण राष्ट्रीय सरकारें निम्न प्रकार अपनी अर्थव्यवस्थाएं पुनर्गठित करने हेतु बाध्य हो गयी हैं
1. मुक्त व्यापार में अधिक भारी प्रयास।
2. सामाजिक क्षेत्र में कम व्यय की अपेक्षा।
3. करों में वृद्धि करना।
4. निम्न मदों पर व्यय घटाकर सरकारी व्यय को कम करना
(i) शिक्षा (ii) स्वास्थ्य (iii) सफाई व्यवस्था (iv) आवासीय परिदान (v) ईंधन (vi) सार्वजनिक वितरण प्रणालियां (vii) परिवहन (viii) सामाजिक क्षेत्र
5. राष्ट्रीय सरकारों को जन उपभोग की अनिवार्य वस्तुओं पर प्रयोज्य लागू मूल्य प्रणाली को समाप्त करना पड़ा।।
6. भूमंडलीकरण से जुड़ी बहिरंगताओं का भी पर्यावरण पर एक विश्वव्यापी प्रभाव पड़ा।
7. विश्व बुराइयों की एक नवीन श्रृंखला ने जन्म लिया है।
उदाहरण 1. भूतायन 2. ओजोन परत का अवक्षय आदि।
भारत में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को अतिरिक्त प्रेरणा उस समय मिली, जब उसने अपनी अर्थव्यवस्था को एक बड़े संकट के अन्तर्गत नब्बे के दशकारंभ में खोल दिया। यह संकट विदेशी मुद्रा सम्बन्धी निर्णायक घटना के कारण उत्पन्न हुआ था। इस संकट ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को देय ऋणों को न चुका पाने के कगार पर खड़ा कर दिया था।
भारत ने एक नवीन आर्थिक नीति अपनाई। इसमें भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण सम्बन्धी मूल सिद्धान्त सम्मिलित थे। भारत सरकार द्वारा अपनाई गई इन नवोदारवादी नीतियों के दो मुख्य घटक रहे हैं
1. भारत के निजी क्षेत्र का उदारीकरण,
2. सार्वजनिक क्षेत्र का सुझाव।
भूमंडलीकरण ने निम्नलिखित कारकों के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया
1. आयात शुल्क एवं निर्यात प्रतिबन्धों में कमी लाकर।
2. विदेशी निवेशों को बढ़ावा देकर।
3. विदेशी प्रौद्योगिकी एवं कौशलों के मुक्त प्रवाह की अनुमति देकर।
प्रमुख परिणाम निम्न प्रकार से निकले हैं
1. बाह्य व्यापार से प्रतिबन्धों को हटाने के परिणामस्वरूप वस्तुओं के संचलन पर कुछ आन्तरिक प्रतिबन्ध भी हट गए हैं।
2. वर्तमान सरकारी लाइसेसिंग प्रणाली में काफी ढील मिली है।
3. निजी प्रतिष्ठानों के साथ-साथ अनेक उत्पादों से प्रतिबन्ध हटा लिया गया है।
4. लाइसेंस परमिट राज अब अतीत की बात हो गई है।
5. विदेशी व्यापार महानिदेशक की भूमिका प्रायः समाप्त हो गयी है।
6. विदेशी माल व सेवाओं के मुक्त प्रवाह को अनुमति मिल गयी है।
7. उर्वरक एवं कृषि को दिए जाने वाले परिदान अत्यन्त कम अथवा समाप्त कर देने पड़े हैं।
8. गरीबी उन्मूलन योजनाओं एवं स्वास्थ्य व शिक्षा हेतु आवंटन में गिरावट देखी गई।
विश्वव्यापी रूप से उत्पादन के समेकन के साथ-साथ आन्तरिक रूप से देश के भीतर भी ऐसा हुआ है। सार्वजनिक रूप से स्वत्वप्राप्त कम्पनियों का, राज्य व समुदाय नियन्त्रित संसाधनों का, अब तक आरक्षित रहे क्षेत्रों, जैसे-बैकिंग, बीमा आदि का तेजी से निजीकरण हो रहा है।
9. श्रम संरक्षण का विनिमय हुआ है। इसने संविदा श्रमिकों की व्यापक संख्या में वृद्धि एवं उप-अनुबंधन की ओर प्रवृत्त किया है।
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