विरासतें राष्ट्रीय आंदोलन आजाद भारत के लिए महत्त्वपूर्ण विरासत थी, परंतु वह अक्षय और स्थायी क्षमता को कायम रखने वाली नहीं थी. इसे सावधानी से पाला और स्थायी बनाया जाना था। यह एक प्रकार से पुश्तैनी संपदा के छः महत्त्वपूर्ण घटक हैं, जिनका विवरण निम्नलिखित है -
भारतीय राष्ट्र का निर्माण :
भारतीय राष्ट्रवाद का उदय 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ जो एक वैश्विक परिघटना के रूप में था। यह भूभागीय, नागरिक, बहुलतावादी और गैर दमनकारी था। इसने राष्ट्रीय एकता विकसित करने का प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण के दो स्तम्भ साम्राज्यवाद विरोध और राष्ट्रीय एकता थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एक मुख्य विरासत स्वयं भारतीय राष्ट्र था। +9यह पहले से निर्मित नहीं था। अनेक ब्रिटिश विद्वान, वैज्ञानिक आदि भारत के लिए राष्ट्रवाद की संभावना को स्वीकार नहीं करते थे। वे यह भी मानने को तैयार नहीं थे कि भारतीय लोग साझा राष्ट्रीयता को जन्म देने में सक्षम हैं। 19वीं शताब्दी के राष्ट्रवाद का दावा था कि भारतीय जनगण निर्माणाधीन राष्ट्र है। यह धारणा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने दी थी।
भारत की आजादी (1947) के पश्चात् भारतीय राष्ट्रवाद का एक स्तंभ साम्राज्यवाद विरोध प्रासंगिक स्नेही रह गया है। राष्ट्रीय एकता की धारणा का अर्थ महत्त्वपूर्ण है। नेहरू का कहना था कि भारतीय राष्ट्र को आर्थिक विकास और जनता के भावनात्मक एकीकरण पर आधारित करना होगा। भारतीय जनता के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक है। राष्ट्रवाद इसके विकास में अवश्य सहायक होगा। यह सही है कि 1950 के दशक में भारतीय समाज में आमतौर पर आर्थिक विकास के लिए आवश्यक राजनीतिक सर्वसम्मति और सामाजिक समरसता थी, परंतु बाद में इसमें अस्त- व्यस्तता दिखाई दी और समरसता में कमी आई। 1990 के दशक के बाद से भारतीय अर्थतंत्र के वैश्वीकरण और तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के कारण भारतीय राष्ट्रवाद के लिए चुनौतियाँ आईं। फिर भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया जारी है। कुछ प्रवृत्ति इस प्रक्रिया में तेजी ला रही हैं और अन्य इनमें बाधक बन रही हैं।
राजनीति में जन भागीदारी :
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की दूसरी महत्त्वपूर्ण विरासत राजनीति में जन भागीदारी है। लोकतंत्रीकरण ने आंदोलन के दौरान संघर्षों में लोकप्रिय भागीदारी का रूप लिया। भारतीय लोकतंत्र राष्ट्रीय आंदोलन के संघर्षों का ही परिणाम है। विभिन्न आंदोलनों के प्रत्येक चरण में विभिन्न वर्गों किसान, मजदूर, विद्यार्थी आदि ने भाग लिया। लोगों ने आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न रचनात्मक तरीके निकाले। इन संघर्षों का मुख्य नेतृत्व कांग्रेस ने किया। उसके द्वारा लिए गए प्रत्येक फैसले पर्याप्त सोच-विचार के बाद लिए गए। कांग्रेस के भीतर निर्णय लेते समय कभी-कभी गंभीर मतभेद हो जाते थे, परंतु इन सबका आपसी समझौतों के जरिए सुलझा लिया गया। यह सब कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन की लोकतांत्रिक कार्यपद्धति के कारण हुआ।
आजादी के पश्चात् भारतीय संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय लोकतंत्र का मॉडल अपनाया। जनता में नेताओं के विश्वास की जड़ें स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय आंदोलन के उनके अनुभव और राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विकसित कार्यपद्धति में थीं। इस प्रकार राजनीतिक संरचना का लोकतंत्रीकरण स्वाधीन भारत की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी, जिसका मुख्य कारण बहुत सीमा तक राष्ट्रीय आदोलन के विकासक्रम के दौरान विकसित कार्य व्यवहार है। भारतीय लोकतंत्र ने उपेक्षित जनता महिला, आदिवासी, दलित, मुसलमान को पर्याप्त आत्माविश्वास दिया कि वे अपने विशेष संघर्ष बिना किसी बाहरी मध्यस्थता की खोज के लोकतंत्र का उपयोग करते हुए इसे स्वयं संचालित करें।
नागरिक अधिकारों का प्रोत्साहन :
राष्ट्रीय आंदोलन का एक अन्य घटक नागरिक अधिकारों का प्रोत्साहन है। प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने प्रेस, अभिव्यक्ति और संगठन की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकारों को लेकर आंदोलन किए। सर्वप्रथम गोपाल कृष्ण गोखले ने शिक्षा को बुनियादी मानव अधिकार स्वीकार किया। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही लोकमान्य तिलक ने वयस्क मताधिकार की माँग शुरू की। 1936 में नेहरू की पहल पर नागरिक अधिकारों को प्रोत्साहन देने के लिए गैर-दलीय तरीके से आई.सी.एल.यू. नामक संस्था की स्थापना की। 1922 में गाँधी जी ने भी भाषण की स्वतंत्रता और संगठन की स्वतंत्रता को प्राप्त करना अनिवार्य बताया। इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों ने स्वतंत्र भारत में अनुपालन हेतु मानवाधिकारों का मजबूत ढाँचा मुहैया करवाया।
आधुनिक विज्ञान और तकनीकी पर आधारित आर्थिक विकास :
राष्ट्रीय नेतृत्व ने राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ से ही यह मन बना लिया था कि भारत में आधुनिक औद्योगिक समाज और अर्थतंत्र का विकास किर 770 जाये। वस्तुतः भविष्य के भारत का उनका खाका किसी भी यूरोपीय देश के समान था, इसीलिए 1931 के कराची अधिवेशन में पारित बुनियादी अधिकार। , और आर्थिक विकास के भविष्य के बारे में विभिन्न अवसरों पर कम-से-कम दो प्रतियोगी परिप्रेक्ष्य थे, जो मुख्य धारा की दृष्टि से होड़ कर रहे थे। पहला सपना पूँजीवादी विकास के बरबस समाजवादी आर्थिक विकास का सपना था। इसके अनुसार भारत को आधुनिक औद्योगिक समाज के रूप में विकसित तो होना था,
लेकिन उसमें पूँजीपति वर्ग की प्रभावी भूमिका नहीं होनी थी। नेहरू ने देश के सामने पूँजीवाद और समाजवाद को दो विकल्पों की तरह प्रस्तुत किया और समाजवाद को महत्त्व दिया। इन दोनों प्रतिद्वन्द्वी परिप्रेक्ष्यों के बीच सर्वसम्मति बनी अर्थात् विज्ञान और तकनीकी पर आधारित आधुनिक औद्योगिक विकास तथा अर्थतंत्र के प्रमुख क्षेत्रों के प्रोत्साहन में राज्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिप्रेक्ष्य गाँधी एवं उनके समर्थकों का था, जो संसाधनों के विकेन्द्रीकरण, आधुनिक तकनीक का न्यूनतम प्रयोग, गाँवों को स्वायत्तता और ग्रामीण उद्योग सृजन पर आधारित था। आर्थिक विकास के बारे में मुख्य धारा का यह दृष्टिकोण आजाद भारत के आर्थिक विकास के लिए राष्ट्रवादी आन्दोलन की एक महत्त्वपूर्ण विरासत साबित हुआ।
धर्म निरपेक्षता :–
राष्ट्रीय आंदोलन का आधार धर्मनिरपेक्षता थी, जो अंत तक बनी रही। 1887 के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस ने निश्चित किया कि वह उन धार्मिक सवालों को कभी नहीं उठाएगी, जिसका विभिन्न समुदाय विरोध करते हैं। अपनी अभिव्यक्तियों, घोषणाओं और कार्यों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने राजनीति और राज्य से धर्म को अलग करने, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानने, सभी धर्मों और धार्मिक समुदायों के प्रति समान व्यवहार, धार्मिक भेदभाव न रखना और साम्प्रदायिकता के विरोध के विचारों को प्रोत्साहित किया। धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर कांग्रेस के दो लोकप्रिय नेताओं गाँधी और नेहरू के अलग-अलग विचार थे। गाँधी धर्म को नैतिकता का आधार मानते थे। प्रारंभ में उन्होंने माना धर्म और राजनीति एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और धर्म व्यक्ति का निजी मामला है।
नेहरू ने कहा कि सांप्रदायिकता धर्म से जुड़ी है, इसलिए समाज में धर्म के प्रभाव को न्यूनतम स्तर पर रखना होगा, ताकि हिन्दू-मुस्लिम समस्या समाधान हो सके। स्वतंत्र भारत में गाँधी और नेहरू के विचारों में धर्मनिरपेक्षता की जो धारणा विकसित हुई, वह न तो धर्म विरोधी थी और न ही सामाजिकता जीवन में धर्म को नकारने पर आधारित थी, इसकी जगह पर सांप्रदायिकता और धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव के विरोध पर आधारित थी।
स्वतंत्र विदेश नीति :
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही भारतीय नेताओं ने विदेशी नीति का अंतर्राष्ट्रीयवादी ढाँचा विकसित कर लिया था, जिसके आधार पर स्वतंत्र भारत में राज्य द्वारा आधारित विदेशी नीति का खाका बनाने में सहायता मिली। कांग्रेसी नेताओं ने विदेशी विजय और अधिग्रहण की ब्रिटिश नीति की आलोचना की। 20वीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने फारस और तुर्की के मामले में हस्तक्षेप किया, तो कांग्रेस ने इसका विरोध किया। गाँधी और नेहरू दोनों ने मिलकर वैश्विक आयाम ग्रहण किया। 1921 में कांग्रेस ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की घोषणा की। अंग्रेजों की विदेश नीति से अलग कांग्रेस ने शांति स्वतंत्रता और वैश्विक सहयोग को विदेश नीति आवश्यक संघटक बताया।
उन्होंने यूरोपीय साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में लगे हुए अन्य एशियाई देशों के स्वाधीनता आंदोलनों का समर्थन करना शुरू कर दिया। नेहरू 1927 में रूस गये तो उन्होंने देखा कि रूसी क्रांति का रूस पर प्रभूत प्रभाव पड़ा है. इससे वे प्रभावित हुए, क्योंकि उसकी विदेशी नीति भी ब्रिटिश विदेशी नीति पर आधारित थी। राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा अपनायी गई विदेशी नीति का आधार भारतीय राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रति संयुक्त निष्ठा थी। जापान द्वारा चीन पर आक्रमण से गाँधी दु:खी थे। उन्होंने सभी देशों से इसमें हस्तक्षेप की अपील की, जिससे युद्ध को रोका जा सके।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की विलक्षणता :
भारत के इतिहास में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का स्थान वही है जो यूरोप के इतिहास में फ्रांसीसी क्रांति (1989) और रूस के इतिहास में रूसी क्रांति का है। विशेष रूप से गाँधीवादी राष्ट्रीय आंदोलन में अधिक सर्वानुमति बनी, जो लम्बे समय तक कायम रही। इस सर्वानुमति के दो प्रमुख कारक थे साम्राज्यवाद विरोध और राष्ट्रीय एकता की धारणा।
जमीनी स्तर पर इसका तात्पर्य लायलिस्टों और संप्रदायवादियों से था। लायलिस्ट अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान थे और सम्प्रदायवादी राष्ट्रीय एकता में विश्वास नहीं करते थे। सर्वानुमति में अनेक प्रकार की राजनीतिक प्रवृत्तियाँ थीं, जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न थीं; जैसे कांग्रेस के भीतर वामपंथी और दक्षिण पंथी। इन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए अपनी मौलिक राजनीतिक दिशा को छोड़ने की जरूरत नहीं थी। यह विविधता महत्त्वपूर्ण विलक्षणता थी, जिसने आजादी का मार्ग प्रशस्त किया।
कमजोरियाँ और सीमाएं :
राष्ट्रीय आंदोलन की विरासतों में कुछ कमजोरियां और सीमाएं भी रहीं। कहा जाता है कि राष्ट्र को वैसी ही जनता मिलती है, जिसके योग्य वह होता है। चूंकि राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय समाज और जनता का सच्चा प्रतिनिधि था इसलिए इसके क्षेत्र में उनकी शक्ति और सीमा भी चली आई। यद्यपि आंदोलन ने आधुनिक दिशा में भारतीय समाज के रूपान्तरण की शुरुआत की, परंतु समाज ने उसका भी रूपान्तरण किया। इसका लाभ यह था कि आन्दोलन भारतीय जमीन पर मजबूती से बना रहा,
परन्तु आधुनिक दिशा में भारतीय संरचना के शीघ्र और बुनियादी रूपान्तरण लाने के आंदोलन की क्षमता में कमी आ गई, इसलिए समाज में कुछ नकारात्मक लक्षण भी उभर आये, जैसे ऊँच-नीच की भावना, जातीय पूर्वाग्रह। बहरहाल क्रांतिकारी सामाजिक रूपान्तरण की अक्षमता और केंद्रापसारी तथा विखण्डनकारी ताकतों से प्रभावी रूप से निपटने की असफलता राष्ट्रीय आंदोलन की दो बड़ी कमजोरियाँ थीं। ये स्वतंत्र भारत की राजनीति में बनी हुई हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्वतंत्र भारत में समाज और राजनीति राष्ट्रीय आंदोलन की छाया में ही चलती हुई मानी जा सकती हैं।
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