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किसान कुली बनकर कभी अपने भाग्य-विधाता को धन्यवाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी व्यापार का स्वतन्त्र …………………….के साथ रहकर संतोष के साथ कालक्षेप करेगा।

 ‘प्रेमाश्रम के रायकमलानंद औद्योगिकरण के सहसों ताम-झाम के बावजूद भी यह स्वीकार नहीं करते कि सहसों किसान कूली बनकर अपने भाग्य को सराहेंगे। उन्हें अच्छी तरह पता है कि किसान मजदूरी में ही मजदूरी के पेशे को अपनाते हैं, दिली खुशी से नहीं। किसानों की मरजाद छोड़ने में उनका गौरव कुचल जाता है। कमलानंद कहते हैं- “किसान कुली बनकर कभी अपने भाग्य-विधता को धन्यावाद नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे कोई आदमी व्यापार का स्वतंत्र सूख भोगने के बाद नौकरी की पराधीनता को पसंद नहीं कर सकता।

संभव है कि अपनी दीनता उसे कुली बने रहने पर मजबूर करे पर मुझे विश्वास है कि वह इस दासता में मुक्त होने का अवसर पाते ही तुरंत अपने घर की राह लेगा और फिर उसी टूटे-फूटे झोपड़ी में अपने बाल बच्चों के साथ रहकर संतोष के साथ कालक्षेप करेगा। "प्रेमचंद” भी नहीं चाहते थे कि शहर की रौनक गाँवों के गरीब और भोले किसानों के संपर्क में आए। वे जानते थे कि हमारे देश की आधी से अधिक जनता गाँवों में बसती हैं और खेती करके अपना पेट भरती है।

अगर वह भी मजदूरी करने लगे तो खाद्य-संकट तो उत्पन्न होगा ही, भारतीयय संस्कृति भी खतरे में पड़ जाएगी. स्त्रियों का जीवन नरक बन जाएगा, अनाचार फैलेगा, अनैतिकता का प्रसार होगा। किसानों की दूरवस्था और खेती में भर पेट रोटी न मिल सकने की मजदूरी में प्रेमचंद किसानों के लिए एक नया विकल्प ढूँड़कर देते हैं। प्रेमचंद औद्योगिकरण की प्रत्येक क्रिया प्रक्रिया से अच्छी तरह वाकिफ हैं। वे भली-भांति जानते हैं कि उद्योगपति अपने मजदूरों को सुख-सुविधा देते है, एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करते हैं। एजेंट कहता है- “हम कुलियों को जैसे वस्त्र, जैसा भोजन, जैसे घर देते ह वैसे गाँव में रहकर उन्हें कभी नसीब नहीं हो सकते। 

हम उनकी दवादारू का, उनकी संतानों की शिक्षा का उन्हें बूढ़ापे में सहारा देने का उचित प्रबंध करते हैं। यहाँ तक कि हम उनके मनोरंजन और व्यायाम की भी व्यवस्था कर देते हैं। यह चाहें तो टेनिस और फुटबॉल खेल सकते हैं, चाहें तो पार्क में सैर कर सकते हैं। सप्ताह में एक दिन गाने-बजाने के लिए समय से कुछ पहले ही छुट्टी दे दी जाती है जहाँ तक मैं समझता हूँ पार्कों में रहने के बाद कोई कुली फिर खेती करने की परहवा नहीं करेगा। किंतु प्रेमचंद का होरी इन सूखों का लालची नहीं है, उसे तो अपनी मरजाद प्यारी है। वह कहता है मजूर बन जाएँ, तो किसान हो जाता है।

पूँजीवाद के आगमन उसके आगमन के साथ हमारी नैतिकता में परिवर्तन और मूल्यों में गिरावट को प्रेमचंद बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे थे प्रेमचंद महाजनी सभ्यता के कट्टर विरोधी थे और इस सभ्यता से उत्पन्न समस्याओं के कारण चिंतित भी थे। उनका मुख्य विषय था समाज में व्याप्त आर्थिक शोषण का पर्दाफाश करना और गाँव में रहने वाले किसानों की स्थिति को आम जनता तक पहुँचाकर उसमें मूलभूत बदलाव करना।

इसी कारण प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में किसानों की स्थिति पर भारतीय गाँवों की स्थिति पर और कृषि व्यवस्था पर पूरी निष्ठा से चित्रण किया। भारतीय किसान अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं। इनके वगैर खुशहाल देश की उम्मीद करना बेईमानी होगी। जब तक किसान खुश नहीं होंगे वह तब भारतीय व्यवस्था पूरी तरह से मजबूत नहीं होगी। भारत की चतुर्मुखी विकास के लिए भारतीय किसानों का उद्धार होना जरूरी है।

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