प्रेमचंद अपने आपको शुद्ध यर्थाथवादी लेखक नहीं मानते। उन्होंने आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद की । नई अवधारणा सामने रखी। 22 जनवरी 1930 को श्री हरिहरनाथ को उन्होंने पत्र लिखा। उसमें लिखामेरा सवाल है कि साहित्य का सबसे बड़ा उद्देश्य उन्नयन है ऊपर उठाना। हमारे यथार्थवाद को भी यह बात आँख से ओझल न करनी चाहिए। मैं चाहता हूँ कि आप मनुष्यों की सृष्टि करें, साहसी, ईमानदार, स्वतंत्रचेता मनुष्य जान पर खेलने वाले जोखिम उठाने वाले मनुष्य, ऊँचे आदर्शों वाले मनुष्य आज इसी की जरूरत है।
कहना न चाहिए कि ‘रंगभूमि का सूरदास इसी तरह का मनुष्य है। इसे कोई चाहे तो आदर्श पात्र कहे, चाहे यथार्थवादी इस रूप में प्रेमचंद अपने आपको आदर्शवादी लेखक ही मानते हैं। यह अलग बात है कि आदर्शवाद से उनका तात्पर्य अधिकतर लोगवाद रहा है। वे चाहते हैं कि साहित्य और समाज का एक ऊँचा लक्ष्य हो। वही साहित्य को गति और बल देते हैं। ऊँचे लक्ष्य के बिना बड़ा काम नहीं हो सकता। इस आदर्श आकांक्षा के साथ प्रेमचंद की इच्छा रही है कि साहित्य को जनता के वास्तविक जीवन से जुड़ा हुआ होना चाहिए।
वे मानते हैं कि साहित्य सच्चा इतिहास है क्योंकि उसमें अपने देश और काल का जैसा चित्र होता है वैसा कोई इतिहास में नहीं हो सकता” साहित्य में यह ऐतिहासिक सत्य तभी आ सकता है जब रचना की आधारभूमि यथार्थवादी होती है। प्रेमचंद ने एक स्थान पर लिखा है- यथार्थवाद यदि हमारे आँखें खोल देता है, तो आदर्शवाद हमें उठाकर किसी मनोरम स्थान में पहुंचा देता है। लेकिन जहाँ आदर्शवाद में यह गुण है, यहाँ इस बात की भी शंका है कि हम ऐसे चरित्रों को न चित्रित कर बैठे जो सिद्धांतों की मूर्ति मात्र हो- जिनमें जीवन न हो। किसी देवता की कामना मुश्किल नहीं है, लेकिन उसमें प्राण प्रतिष्ठा करना मुश्किल है।”
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