आत्मकथन लेखक ने परंपरागत आत्मकथनों से अलग अपने-अपने पिंजरे में खुरदरे और बेलॉस यथार्थ को रोमानी शैली की जगह यथार्थवादी शैली में प्रस्तुत किया है। अपने जीवन को महान और दूसरे जीवन को क्षुद्र घोनित करेन का यहाँ उद्देश्य नहीं है। भूमिका में विस्तार से परंपरागत आत्मकथनों से अपने-अपने पिंजरे के अलगाव बिन्दुओं को रेखांकित किया गया है।
जहाँ परंपरागत आत्मकथनों प्रायः जीवन के अंतिम दौर में लिखी जाती हैं, वहीं दलित आत्मकथन लेखकों ने अपने जीवन की युवावस्था में आत्मकथन लिखे। महीप सिंह की टिप्पणी गौरतलब है, आत्मकथन युवा लेखकों द्वारा लिखे गये हैं, जिन्होंने वृत्तों के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया है कि हम आखिर कौन हैं
मोहनदास नैमिशराय की यह कृति इस अर्थ में आत्मकथन है। उन्होंने अपने जीवन की उन तल्ख और निर्मम सच्चाइयों को इसमें उकेरा है, कहना न होगा इनमें मानवीय पीड़ा अपनी पूरी सघनता से व्यक्त हुई है।
विमल थोरात (दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर) प्रायः दलित आत्मकथनों पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें दलित जीवन की पीड़ा के आख्यान की एकरसता है। इससे अलग ‘अपने-अपने पिंजरे में दलित जीवन के विभिन्न विरोधाभासों को भी रचना संयोजन में समाहित किया गया है।
दलितों के अंतर्विरोध, मसलन अस्पृश्यता, अवसरवाद, स्त्री-उत्पीड़न, सांप्रदायिक-कट्टरता इत्यादि प्रसंगों को समावि-ट करना आत्मकथन लेखक की विस्तृत दृन्टि का प्रमाण है। माना और शिल्प में सौन्दर्य मानक क्या होंगे इस सवाल पर अपने-अपने पिंजरे’ यथार्थवादी दृष्टि का पक्षधर है। यदि जीवन में कुरूपता है तो रचना कहती है कि कुरूप और भदेस के उद्घाटन में ईमानदारी से कोताही की कोई जरूरत नहीं, ताकि जनतांत्रिक समाज की दिशा में कोई पहल रूपाकार ग्रहण कर सके।
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