समाजीकरण क्या हैं?-उपर्युक्त कार्यों को पूरा करने के लिए शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाना चाहिए कि उसमें मौलिक सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व हो और शिक्षण विधि इस प्रकार की हो कि बालक सामाजिक परिस्थितियों के प्रति समंजन करने में सक्षम हो सके। दूसरे शब्दों में, बालक का समाजीकरण करना है। शिक्षा का यह एक प्रमुख उद्देश्य है कि बालक में साथीपन की भावना का विकास हो। बालक जब जन्म लेता है तब यह पाशविक आवश्यकताओं की पूर्ति में ही लगा रहता है। ज्यों-ज्यों वह बढ़ता है, उसमें समाज की आकांक्षाओं, मान्यताओं एवं आदर्शों के अनुसार परिवर्तन आने लगते हैं। प्रौढ़ व्यक्ति समाज के आदर्शों से ही प्रेरित होते हैं। हम भाषा का व्यवहार करते हैं। समाज में भाषा का बड़ा महत्त्व है।
व्यक्तियों एवं वस्तुओं के प्रति हमारी कुछ अभिवृत्तियाँ होती हैं। बालक को इन सब सामाजिक प्रक्रियाओं को सीखना है तभी वह अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर सकेगा। ड्रेवर महोदय के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक वातावरण के प्रति अपना अनुकूलन करता है और इस सामाजिक वातावरण का वह मान्य, सहयोगी एवं कुशल सदस्य बन जाता है।” मारगरेट मीड और लिण्टन जैसे मानवविज्ञानियों के अनुसार किसी समूह की संस्कृति को ग्रहण करने की प्रक्रिया को समाजीकरण । कहा जाता है। संस्कृति के अंतर्गत किसी समूह की परम्पराएँ, अभिवृत्तियाँ, ज्ञानराशि, कला एवं लोककथाएँ आदि आती हैं।
रॉस का कथन है कि समाजीकरण में व्यक्तियों में साथीपन की भावना तथा क्षमता का विकास और सामूहिक रूप से कार्य करने की इच्छा निहित है। कुक के अनुसार समाजीकरण की प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि बालक सामाजिक दायित्व को स्वयमेव ग्रहण करता है और समाज के विकास में योगदान देता है। मनोविश्लेषण के अनुसार व्यक्तित्व के निर्माण में इदम्, अहम और परम अहम् कार्य करते हैं। उनके अनुसार परम अहम् का विकास समाज के आदर्शों की अनुभूति से होता है। समाजीकरण में यह परम अहम् बड़ा सहायक होता है। समाजीकरण किस प्रकार होता है?-समाजीकरण सामाजिक अंत:क्रिया से होता है। इसमें बालक एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। यह सामाजिक अंत:क्रिया दो स्तरों पर होती है। प्रारम्भिक अंत:क्रिया व्यक्तियों के मध्य होती है और गौण अंत:क्रिया व्यक्ति के मध्य होती है।
सामाजिक अंत:क्रिया कई रूपों में प्रकट होती है। प्रथमतः प्रतिद्वन्द्विता का रूप है जिसमें अविभाज्य लक्ष्य को दो या दो से अधिक व्यक्ति प्राप्त करना चाहते हैं और उसके लिए संघर्ष करते हैं। दूसरा रूप सहयोग का है। इसमें सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सामूहिक प्रयत्न होता है। व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए प्रतिद्वन्द्विता एवं सामूहिक उपलब्धि के लिए सहयोग अत्यावश्यक सामाजिक अंत:क्रिया का तीसरा रूप संघर्ष है। संघर्ष में पारस्परिक विरोध होता है। समंजन चौथा रूप है। समंजन में पारस्परिक अनुकूलन निहित है। सामाजिक अंत:क्रिया का परिणाम हम दूसरों की रुचियों के साथ तादात्म्य के रूप में देखते हैं। संकेत एवं अनुकरण भी प्रभावशाली अंत:क्रियाएँ हैं। इन अंत:क्रियाओं से बालक का समाजीकरण होता है।
समाजीकरण करने वाले तत्त्व-बालक का समाजीकरण विद्यालय, परिवार, समुदाय सभी जगह होता रहता है। इस प्रकार समाजीकरण की प्रक्रिया में कई तत्त्व कार्य करते हैं। यहाँ पर हम कुछ प्रमुख तत्त्वों पर संक्षेप मे विचार करेंगे परिवार-परिवार समाज की आधारभूत इकाई है। बालक परिवार में जन्म लेता है और यहीं पर उसका विकास प्रारम्भ होता है। वह माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, दादा-दादी आदि के सम्पर्क में आता है। ये सभी संबंधी बालक को परिवार के आदर्शों को प्रदान कर देते हैं। इस प्रकार बालक पारिवारिक प्रथाओं को जान लेता है। समाजीकरण का यह प्रारम्भिक प्रयास होता है। बालक परिवार में रहकर सहयोग, त्याग आदि सामजिक गुणों को सीखने का प्रयास करता है।
उत्सव-भारत में अनेक प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक उत्सव मनाये जाते हैं। होली के दिनों में लोग आपसी द्वेष भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाते हैं। दशहरे के समय लोग राम-रावण के युद्ध को देखने के लिए हजारों की संख्या में एक स्थान पर एकत्र होते हैं। दीवाली के समय गणेश-लक्ष्मी का पूजन करके अपने घर को लोग प्रकाशित करते हैं। 15 अगस्त एवं 26 जनवरी तथा 2 अक्टूबर को सभाओं का आयोजन, चर्खा तथा तकली प्रतियोगिता तथा भजन-कीर्तन का आयोजन करके लोग खुशी मानते हैं। बालक इन सब उत्सवों में भाग लेकर सहयोग, प्रतिद्वन्द्विता आदि गुण सीखता है। वह सामूहिक रूप से खुशी मनाना सीखता है। विद्यालय-समाजीकरण करने में विद्यालय बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। विद्यालय इस प्रक्रिया का औपचारिक अभिकरण है। अतः विद्यालय इस स्थिति में होता है कि वह बालकों को सामाजिक संस्कृति से परिचय कराये और सामाजिक प्रथाओं का मूल्यांकन करके नये समाज की रचना की प्रेरणा दे। विद्यालय भी एक प्रकार का समाज ही है।
यहाँ पर छात्रों के बीच में, छात्रों एवं अध्यापकों के बीच में, अध्यापकों के ही बीच में, छात्रों एवं प्रधानाचार्य के मध्य तथा शिक्षकों एवं प्रधानाचार्य के मध्य सामाजिक अंत:क्रिया होती रहती है। बालक का समाजीकरण करने में विद्यालय में निम्नलिखित बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जा सकता है विद्यालय में सामूहिक कार्यों की व्यवस्था करना; नाटक, वाद-विवाद, सामूहिक शिक्षक आदि का आयोजन करना। सामूहिक अंत:क्रिया के अन्य विभिन्न अवसर प्रदान करना; यथा-विद्यालय एवं समाज के सामाजिक कौशलों एवं सामाजिक अनुभवों की शिक्षा प्रदान करना। पत्र-लेखन, सहभोज, टेलीफोन का प्रयोग आदि ऐसे ही कौशल हैं। सामाजिक अनुशासन की भावना पैदा करना। नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों के द्वारा सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था करना। दण्ड एवं पुरस्कार के रूप में सामाजिक सम्मान एवं तिरस्कार की स्वस्थ भावना उत्पन्न करना।
छात्रों को उनकी योग्यताओं के अनुरूप महत्त्वाकांक्षी बनाना जिससे वे अच्छे पिता, अच्छे व्यवसायी या अधिकारी बनने का प्रयत्न करें। खेल-खेलकूद भी बालक का समाजीकरण करते हैं। खेल में सामाजिक अंत:क्रिया का स्वाभाविक प्रदर्शन होता है। स्वस्थ संघर्ष एवं स्वस्थ प्रतियोगिता का यही दर्शन होता है। हार-जीत के आधार पर मनोविकार न उत्पन्न हो, यह भावना खेल ही प्रदान करता है। सहयोग की भावना का भी स्वाभाविक विकास होता है। खेल में भाग लेने वालों में जाति एवं सम्प्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं होता। खिलाड़ियों में अन्य भेदभाव भी नहीं होते। स्काउटिंग तथा गर्लगाइडिंग-बालक का समाजीकरण करने में स्काउटिंग एवं बालिका का समाजीकरण करने में गर्लनाइडिंग का विशेष महत्त्व है।
स्काउटिंग जाति, सम्प्रदाय और यहाँ तक कि संकुचित राष्ट्रीयता को भी समाप्त करती है। स्काउटिंग बालकों को सामूहिक कार्य करने के अनेक अवसर प्रदान करती है। अपने साथी को खोजने एवं दुश्मन का पता लगाने के खेल खिलाकर स्काउटिंग अनेक प्रकार की सामाजिक अंत:क्रियाओं से बालकों को परिचित कराती है। बाल-गोष्ठियाँ-बालक अपने साथियों के साथ रहना एवं खेलना पसंद करते हैं। वे अपना एक समूह बना लेते हैं। यह समूह कभी-कभी गुप्त रूप से कार्य करता है।
इन बाल-समूहों के नियम अलिखित किन्तु दृढ़ होते हैं। जब कभी इनका कोई नया सदस्य बनता है तो अन्य पुराने सदस्य उस नये सदस्य को अपने साथियों की बातों से परिचित करा देते हैं। बालक इन समूहों के प्रति बड़े वफादार रहते हैं। कभी-कभी इनके अपने कोड-शब्द होते हैं, जिनका प्रयोग करके ये अन्य बालकों का उपहास करते हैं। इन गोष्ठियों में बालक सहयोग स्वामिभक्ति नियम-पालन आदि गुणों को सीखता है। इस प्रकार बाल-गोष्ठियाँ बालक का समाजीकरण करने में बड़ी सहायता करती हैं।
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