छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उ. केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया।
एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। उत्तर अमरकान्त की कहानी ‘दोपहर का भोजन’ में निम्न मध्यवर्गीय परिवार की आर्थिक तंगी, भुखमरी, बेकारी का मार्मिक चित्रण किया है। परिवार की स्थिति इतनी अधिक गरीब है कि सबके खाने के लिए पूरा भोजन भी नहीं है किन्तु सिद्धेश्वरी किसी प्रकार से सब को भोजन करा ही देती है और स्वयं आधी रोटी खाकर गुजारा करती है।
कहानी मुंशी चन्द्रिका प्रसाद के परिवार की है। उनकी उम पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किन्तु पचास-पचपन पा लगते थे। शरीर के चमड़े झूल रहे थे और गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। डेढ़ महीने पूर्व मुंशी जी की मकान-किराया नियन्त्रण विभाग से क्लर्की से छंटनी हो गयी है। उनके परिवार में उनकी पत्नी सिद्धेश्वरी तथा तीन लड़के रामचन्द्र, मोहन और प्रमोद क्रमश: इक्कीस, अठारह और छ: वर्ष के थे। रामचन्द्र समाचार-पत्र के कार्यालय में प्रूफ रीडिंग सीख रहा है तथा मोहन ने दसवीं की प्राइवेट परीक्षा देनी है। सिद्धेश्वरी दोपहर का खाना बनाकर सब की प्रतीक्षा कर रही है।
घर के दरवाजे पर खड़ी देखती है कि गर्मी में कोई कोई आता जाता दिखाई दे रहा है। वह भीतर की ओर आती है, तो तभी उसका बड़ा बेटा रामचन्द घर में आता है। वह भय और आतंक से चुप एक तरफ बैठ जाती है। लिपे पुते आंगन में पड़े पीढ़े पर आकर रामचन्द बैठ जाता है। वह उसे दो रोटियाँ दाल और चने की तरकारी खाने के लिए देती है। माँ के कहने पर भी और रोटी नहीं लेता क्योंकि वह जानता है कि अभी औरों ने भी खाना है।
मोहन को भी वह दो रोटी, दाल और तरकारी देती है और रोटी लेने से वह भी मना कर देता है पर दाल मांग कर पी लेता है। आखिर में मुंशी जी आते हैं। उन्हें भी वह दो रोटी, दाल, चने की तरकारी देती है। जब और रोटी के लिए पूछती है तो वे घर की दशा से परिचित होने के कारण रोटी लेने से मना कर देते हैं किन्तु गुड़ का ठड़ा रस पीने के लिए मांगते हैं। इस प्रकार सब को भोजन कराने के बाद वह स्वयं खाने बैठती है तो शेष एक मोटी, भद्दी और जली हुई रोटी बची होती है जिसमें से आधी प्रमोद के लिए बचा कर, आधा कटोरा दाल और बची हुई चने की तरकारी से अपना पेट भरने का प्रयास करती है। घर में गरीबी इतनी है कि सब को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हो रहा। रामचन्द्र इण्टर पास है फिर भी उसे कहीं काम नहीं मिलता।
रामचन्द्र को खाना खिलाते सिद्धेश्वरी पूछती है, “वहाँ कुछ हुआ क्या?” रामचन्द्र भावहीन आँखो से माँ की ओर देखकर कहता है, “समय आने पर सब कुछ हो जाएगा। जब रामचन्द्र मोहन के बारे में माँ से ए.. है तो मोहन दिन भर इधर-उधर गलियों में घूमता रहता है पर वह रामचन्द्र के सामने यही कहती है कि अपन किसी मित्र के घर पढ़ने गया हुआ है। “मुंशी चन्द्रिका प्रसाद के पास पहनने के लिए तार-तार बानियाइन है। आँगन की अलगनी पर कई पैबन्द लगी गन्दी साड़ी टॅगी हुई हैं। दाल पनिऔला बनती है। प्रमोद अध-टूटे खटोले पर सोया है। वह हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है। मुंशी जी पैंतालीस के होते हुए भी पचास पचपन के लगते हैं।
सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की अंगुलियों या जमीन पर चलते चींटे-चींटियों को देखने लगी। अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास लगी है। वह मतवाले की तरह उठी और गगरे से लौटाभर पानी लेकर गटगट चढ़ा गयी। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह ‘हाय राम’ कहकर वहीं जमीन पर लेट गयी।
लगभग आधे घण्टे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ‘दोपहर का भोजन’ कहानी में अमरकान्त ने निम्न मध्यम वर्गीय जीवन की त्रासद स्थिति का जीवन्त निरूपण किया है। परिवार का मुखिया बेरोजगार है फिर भी उसकी पत्नी खींचतान कर के घर का खर्चा चला रही है परन्तु खाना खाने के बाद मुंशी जी औंधे मुंह घोड़े बेचकर ऐसे सो रहे थे जैसे उन्हें काम तलाश में कहीं जाना ही नहीं है। अभावों में जीने के कारण सिद्धेश्वरी चाहकर भी किसी से खुलकर नहीं बोल पाती। मुंशी जी भी चुपचाप दुबके हुए खाना खाते हैं। इन सब से इस परिवार की घोर विपन्नता का ज्ञान होता है जो इस परिवार की ही नहीं जैसे निम्न मध्यम वर्गीय जीने वाले सभी परिवारों की त्रासदी है।
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