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दलित साहित्य में आकोश एवं विद्रोह का स्वर क्यों है?

असहमति विवाद को जन्म देती है तथा विवाद संवाद की अनिवार्यता को बल प्रदान करता है। असहमति विकास का प्रमुख माध्यम है। दलित लेखक अंबेडकर तथा ज्योतिबा फुले के विचारों से प्रभावित हुए। दलित चेतना का सम्बन्ध अंबेडकर एवं ज्योतिबा फुले के दर्शन से है। डॉ. सी. बी. भारती के अनुसार, “दलित साहित्य का सौन्दर्य विधान प्रतिबद्धता है, शोषण से मुक्ति ही दलित साहित्य का स्वर है तथा जातिविहीन, वर्गविहीन समाज की परिकल्पना ही दलित साहित्य का मूल प्रतिपाद्य है । 

परंपरावादी साहित्य में सभी मानक दलित जीवन की वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं करते। ओमप्रकाश बाल्मीकि यह मानते हैं कि हिन्दी साहित्यकार अपनी रचनाओं में प्रगतिशील, माक्र्सवादी तथा जनवादी तो हैं, परन्तु वे वर्ण-व्यवस्था, जातिभेद का उतना कडा विरोध नहीं कर पाते। इनमें से कोई भी धर्म के विरुद्ध कड़ा रुख नहीं अपनाता। ये साहित्यकार एक तरफ तो दलितों के प्रति सहानुभूति का भाव रखते हैं, तो दूसरी तरफ उन संस्थाओं तथा शास्त्रों का समर्थन करते हैं, जो दलितों के प्रति निर्मम हैं। इसलिए ऐसे साहित्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

दलित चिन्तन की असहमतियाँ पूर्व स्थापित मानकों के प्रति विवेकसम्पन्न हैं। साहित्य मानकों में कमियाँ भले ही न हों, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि इनका इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति अपनी वर्गीय चेतना तथा जातिवादी आग्रह से पूर्णतः मुक्त हो । प्रतिरोध का स्वर प्रतिरोध असहमति से उत्पन्न होता है। प्रतिरोध का साहस विरोध का सृजन करता है। सृजन सकारात्मक होता है। दलित साहित्य की सृजन प्रक्रिया तर्कपूर्ण है।

ओम प्रकाश बाल्मीकि मानते हैं कि दलित साहित्य नकार का साहित्य है, जो संघर्ष से उत्पन्न हुआ है तथा इसमें जातिवाद का विरोध भी है। साहित्य का विरोध असमानताओं से है। वर्ण-व्यवस्था को अस्वीकार करना तथा समतामूलक समाज की अवधारणा दलित साहित्य की पूँजी है। बाबुराम बागूल के अनुसार, ‘मनुष्य को मुक्ति देने वाला उसे महान बनाने वाला, वंश- जाति का प्रबल विरोध करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। सामाजिक नियमों तथा शोषण करने के सांमती अधिकारों के प्रति दलित चेतना का स्वर कठोर है।’ दलित चेतना शोषण की व्यवस्था को पूर्णतः नष्ट करने में विश्वास करती है।

दलित चेतना के प्रतिरोधी स्वर को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में समझ सकते हैं

1. वर्ण-व्यवस्था, जातिगत भेदभाव तथा साम्प्रदायिकता का विरोध।

2. स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का पक्ष-पोषण।

3. पूँजीवाद, सामंतवाद तथा ब्राह्मणवाद का विरोध

4. अधिनायकवाद तथा अलगाववाद का विरोध तथा बंधुत्व का समर्थन ।

5. पाखण्डों का विरोध करना तथा बुद्ध के अनीश्वरवाद, अनात्मवाद तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समर्थन

6. मुक्ति एवं स्वतंत्रता के सन्दर्भ में अंबेडकर के चिन्तन का समर्थन ।

7. सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्धता ।

8. पारंपरिक सौन्दर्यशास्त्र का विरोध |

9. भाषावाद तथा लिंगवाद का विरोध।

10. मानवता का समर्थन।

11. दलित चेतना में मौजूद असहमति का स्वर दलित आलोचना में भी दिखाई पड़ता है।

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