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संस्कार में अभिव्यक्त सामाजिक चेतना को रेखांकित कीजिए।

 संस्कार का सामाजिक परिवेश किसी भी कहानी अथवा उपन्यास का सामाजिक परिवेश उसकी स्वाभाविकता और सजीवता का निर्धारण करता है। यह सामाजिक परिवेश देश, काल और परिस्थिति से मिलकर बना होता है। चन्द्रकान्ता जैसी वायवी रचनाएं मनोरंजक तो हो सकती हैं, पर किसी भी सामाजिक सत्य का उद्घाटन कर सकने में समर्थ नहीं होतीं दूसरी तरफ शेखर एक जीवनी या गोदान जैसे उपन्यास चाहे व्यक्ति केन्द्रित हों या फिर समाजोन्मुख, वे किसी न किसी वृहद् सामाजिक सत्य का उद्घाटन करते हैं।

हिन्दी उपन्यास या यूं कहें कि हिन्दी साहित्य के विकास में चन्द्रकान्ता अथवा चन्द्रकान्ता संतति जैसे उपन्यासों के महत्व को नकारा तो नहीं जा सकता है, परन्तु मनोरंजन मात्र का उद्देश्य लेकर चलनेवाली रचना साहित्य की कोटि पर बहत खरी नहीं कही जा सकती। ऐसे उपन्यासों में घटनाएँ इतनी तेजी से घटित होती दिखाई जाती हैं कि पाठक कौतुक और आश्चर्य से ठगा रह जाता है और बुद्धि और विचार से उसका नाता ही टूट जाता है। इन उपन्यासों का स्वाभाविकता से कोई वास्ता नहीं होता। जहाँ तक सामाजिक उद्देश्य को लेकर लिखे जानेवाले साहित्य का संबंध है, अपने कथानक के आधार पर वह नाटकीय या चरित्र प्रधान में से कुछ भी हो सकता है।

सामाजिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखे जाने के बावजूद प्रेमचन्द कृत ‘गोदान’ या अमृतला नागर रचित नाच्यो बहुत गोपाल’ जैसे उपन्यासों को सामाजिक कहने की बजाय सामयिक कहना ज्यादा उचित प्रतीत होता है क्योंकि सामाजिक उद्देश्य से लिखी गई इन रचनाओं में काल एवं स्थान सापेक्ष समाज का ही चित्रण होता है। शास्त्रीय शब्दावली में नाटकीय उपन्यास कहे जानेवाली इन रचनाओं में कथानक किसी एक वर्ग विशेष अथवा जीवन शैली में ही केन्द्रित रहता है, जिससे कि घटनाओं में नाटकीयता आ जाती है। ऐसे उपन्यासों में कथानक तथा चरित्र के बीच की दूरी प्रायः समाप्त हो रहती है और इसके पात्र घटना प्रधान उपन्यासों की तरह न तो कथानक तंत्र के पुर्जे होते हैं और ना ही इन उपन्यासों का कथानक चरित्रों के चारों ओर का मुखौटा मात्र होता है, जैसा कि चरित्र प्रधान उपन्यासों में देखा जा सकता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो नाटकीय उपन्यासों में न तो कथानक ही पात्रों को चारों ओर से घेरे रहता है और न पात्र ही कथानक के अविभाज्य अंग होते हैं। पहले ही चर्चा की जा चुकी है कि समाज से कटकर या उससे विरत होकर तो चरित्र प्रधान उपन्यासों की रचना कर पाना भी संभव नहीं। सच तो यह है कि न तो कोई उपन्यास विशुद्ध तौर पर चरित्र प्रधान हो सकता है और ना ही विशुरू रूप से नाटकीय या सामयिक सुविधा की दृष्टि से किसी एक तत्व की गौणता या प्रधानता के अनुसार उन्हें चरित्र प्रधान या नाटकीय आदि वर्गों में बाँट दिया जाता है। इस प्रकार चरित्र प्रधान उपन्यासों में यदि पात्र अपरिवर्तनीय रहते हैं और दृश्य परिवर्तनशील तो नाटकीय उपन्यासों में दृश्ययोजना नहीं बदलती, जबकि पात्रों में मानवीय अनुभवों के विस्तृत परिसर के दर्शन होते हैं।

इस तरह किसी भी उपन्यास में संयोजित सामाजिक चेतना उसके परिवेश से कटकर नहीं हो सकती। जबकि यह सामाजिक परिवेश उपन्यास की कथावस्तु, उसमें दर्शाए गए स्थान एवं काल और उसके पात्रों के सम्मिलन से बनता है।  संस्कार में निरूपित सामाजिक चेतना को हम इन तत्वों के आधार पर देखने परखने की कोशिश करेंगे।

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