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हिंदी कहानी के विकास पर एक निबंध लिखिए।

 हिन्दी कहानी ने बहुत कम समय में एक श्रेष्ठ साहित्यिक विधा का रूप प्राप्त कर लिया। इसका प्रमुख कारण यह है कि आरंभ में ही कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपनी प्रतिभा से उसे (हिन्दी कहानी) प्रारंभिक दौर की लड़खड़ाहट और अनपढ़पन से मुक्त कर दिया। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की उसने कहा था कहानी की गणना हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में होती है। यह कहानी सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी। 

(1) आरंभिक हिन्दी कहानी-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘इन्दुमती’ (किशोरीलाल गोस्वामी), ‘गुलबहार (किशोरीलाल गोस्वामी), ‘प्लेग की चुडैल’ (मास्टर भगवानदास), ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (रामचन्द्र शुक्ल), ‘पंडित और पंडितानी’ (गिरजिादत्त वाजपेयी) और ‘दुलाई वाली’ (बंग महिला) को सामने रखकर हिन्दी की पहली मौलिक कहानी का निर्णय किया है। ये कहानियाँ क्रमशः 1900 ई., 1902 ई., 1903 ई., और 1907 ई. में लिखी गई। इन पर विचार करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है ‘इनमें यदि मार्मिकता की दृष्टि से भावप्रधान कहानियों को चुनें तो तीन मितली हैं-‘इन्दुमती’, ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाई वाली’। ‘इन्दुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है।

इसके उपरान्त ‘ग्यारह वर्ष का समय’, फिर ‘दुलाई वाली’ का नम्बर आता है। आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी की पहली मौलिक कहानी को ढूँढने के क्रम में काफी अनुसंधान हुआ। ‘इन्दुमती’ को शेक्सपीयर के ‘टेम्पेस्ट’ की छाया कहकर विद्वानों ने उसे मौलिक कहानी के दायरे से बाहर कर दिया। देवीप्रसाद वर्मा ने सन् 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में छपी माधव सप्रेस कहानी ‘एक टोकरी पर भट्टिी’ को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी सिद्ध किया।

हिन्दी कहानी की विकास-यात्रा ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही शुरू हुई और वह उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर चलती गई। इसी पत्रिका के माध्यम से किशोरीलाल गोस्वामी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बंग महिला, वृन्दावन लाल वर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, विश्वम्भरनाथ शर्मा-कौशिक, प्रेमचन्द प्रभृति महत्वपूर्ण कहानीकार प्रकाश में आये। गुलेरी जी की अमर कहानी ‘उसने कहा ) था’ सन् 1915 में और मुंशी प्रेमचन्द की ‘पंच परमेश्वर’ कहानी सन् 1916 में इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 

‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित कुछ कहानियों और उसके पूर्व लिखी गई कहानियों को ‘आरंभिक हिन्दी कहानी’, ‘प्राचीन हिन्दी कहानी’ या ‘प्रेमचन्द पूर्व हिन्दी कहानी’ की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसी कहानियों में भारतेन्दु के पूर्व लिखी गई ‘प्रेमसागर’ (लल्लू लाल), ‘नासिकेतोपाख्यान’ (सदल मिश्र), ‘रानी केतकी की कहानी’ (सैयद इंशा अल्ला खाँ) तथा ‘सरस्वती’ पत्रिका के आरंभिक दो वर्षों में प्रकाशित कहानियों को परिगणित किया जा सकता है।

(2) प्रेमचन्दयुगीन हिन्दी कहानी-प्रेमचन्द-युग का साहित्य प्रथम विश्व युद्ध के बाद का साहित्य यह युग भारतीय स्वाधीनता-संघर्ष का भी स्वर्ण-काल है। इसी समय स्वाधीनता-संघर्ष का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आया, जिनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विचारों और कार्यकलापों का गहरा प्रभाव उस समय लेखकों पर पड़ा। आरंभ में प्रेमचन्द ने गांधी के प्रभावस्वरूप आदर्शवादी और सुधारवादी कहानियाँ लिखीं जिनमें देश-भक्ति के साथ-साथ आदर्श, नैतिकता, मर्यादा, मर्यादा, कर्तव्यपरायणता आदि का स्वर काफी ऊँचा है।

‘स्रोत’, ‘पंचपरमेश्वर’, ‘विचित्र होली’, ‘आहुति’, ‘जुलूस’, ‘सत्याग्रह’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, नमक का दारोगा’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘अलग्योझा’, आदि कहानियाँ प्रेमचन्द की उपर्यक्त कथा-प्रवृत्ति को समझने में सहायक हैं प्रेमचन्द की तरह सामाजिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर कहानी लिखने वालों में सुद विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, भगवती प्रसाद वाजपेयी, ज्वालादत्त शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कौशिक की ‘ताई’, ‘रक्षाबंधन’, ‘विधवा’, ‘इक्केवाला’, सुदर्शन की ‘हार की जीत’, ‘सूरदास’, ‘हेरफेर’, भगवती प्रसाद वाजपेयी की ‘निंदिया लागी’, मिठाई वाला’ आदि कहानियाँ उल्लेखनीय है

किन्तु इन कहानीकारों ने सामाजिक यथार्थ के चित्रण में न तो प्रेमचन्द जैसी सिद्धता हासिल कर सके और न ही उनकी जैसी व्यापक मानवीय संवेदना उभारने में सफलता प्राप्त की है, फिर भी इनकी कलात्मक उपलब्धि उल्लेखनीय है।  सुदर्शन की ‘हार की जीत’, कौशिक की ताई’, भगवती प्रसाद वाजपूयी की ‘निंदिया लागी’ जैसी कहानियों ने अपने मार्मिक संवेदना, मानव-हृदय की सच्ची अभिव्यक्ति और मनोवैज्ञानिक चित्रण के कारण पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ी हैं।

‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के लगभग 9 वर्ष बाद जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा से एक दूसरी पत्रिका प्रकाशित हुई–’इन्दु’। ‘प्रसाद’ जी की पहली कहानी ‘ग्राम’ इसी पत्रिका में छपी। इस पत्रिका के माध्यम से भी अनेक श्रेष्ठ कहानीकार प्रकाश में आये, जिनमें जी.पी. श्रीवास्तव और । राधिकारमण प्रसाद सिंह के नाम उल्लेखनीय है। ‘सरस्वती’ और ‘इन्दु’ पत्रिकाओं ने हिन्दी कहा .. के विकास में पर्याप्त योग दिया बल्कि कहना चाहिए कि यदि इनका सहयोग न मिला होता तो आज शायद हिन्दी कहानी की स्थिति कुछ और ही होती।  जिस तरह प्रेमचन्द की समाजपरक यथार्थवादी धारा में अनेक कहानीकारों ने रचनात्मक योगदान किया, उसी तरह प्रसाद की भाववादी धारा को भी चंडीप्रसाद ‘हृदयेश’, रामकृष्ण दास, वाचस्पति पाठक, मोहनलाल महतो, विनोदशंकर व्यास, चतुरसेन शास्त्री ने अपनी कहानियों से गति प्रदान की।

इन कहानीकारों ने ‘प्रसाद’ जैसी भावप्रधान कहानियों की रचना की, आदर्श और रोमांस की आवेगमयी अभिव्यक्ति की, किन्तु ये प्रसाद की काव्यात्मक ऊँचाई, दार्शनिक गूढ़ता और भाषा की प्रांजलता का पूरा-पूरा निर्वाह न कर सके। प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कहानी-यशपाल प्रेमचन्द के सामाजिक यथार्थ को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाल उल्लेखनीय कहानीकार हैं। उन्होंने सामाजिक शोषण, दरिद्रता, नग्नता, अत्याचार, उत्पीड़न आदि को अपी कहानियों का विषय बनाया और हमारे सामाजिक, राजनीतिक,नैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के संघर्षों, मूल्यों, मर्यादाओं एवं नैतिकता के खोखलेपन को उद्घाटित किया।

उन्होंने ‘कर्मफल’, ‘फूल की चोरी’, ‘चार आने’, ‘पुनियाँ की होली’, ‘आदमी का बच्चा’, ‘परदा’, ‘फूलों का कुर्ता’, ‘धर्मरक्षा’, ‘करवा का व्रत’, ‘पतिव्रता’ आदि कहानियों में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता के दोषों, तज्जनित परिणामों और कुरीतियों की मार्मिक अभिव्यक्ति की। यशपाल ने मर्यादा, धर्म और नैतिकता के थोथेपन पर तीव्र आघात किया और उसके विरुद्ध अपने पात्रों में संघर्ष-चेतना जाग्रत की।  उनकी कहानियों में व्यंग्य का स्वर मुखरित हुआ, कहानी-कला में स्थूल समाज-चित्रण के स्थान पर उसेक मार्मिक एवं सांकेतिक उद्घाटन की कला का विकास हुआ, कहानी का स्थलूता समाप्त हुई और उसे सूक्ष्म संगठित व्यक्तिवाद प्राप्त हुआ।

यशपाल की इस मार्क्सवादी यथार्थवादी कलादृष्टि को प्रश्रय देने वाले कहानीकारों में रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्त, नागार्जुन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने शोषण, अन्याय और पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष-भाव को प्रेरित करने वाली कहानियाँ लिखीं। रांगेय राघव ने राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष, बंगाल का अकाल, देश-विभाजन, साम्प्रदायिक विद्वेष, मजदूरों की देशव्यापी हड़तालों, गोलीकांड, बेरोजगारी और भुखमरी आदि को विषय बनाकर जो कहानियाँ लिखीं, वे उनकी सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता का पता देती हैं। उनकी उल्लेखनीय कहानियों में ‘गदल’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘मृगतृष्णा’, कुत्ते की दुम शैतान’ का नाम लिया जा सकता हैं। 

जैनेन्द्र भी मनोवैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित करने वाले कहानीकार हैं किन्तु उनकी दृष्टि सिद्धांतबद्ध और संकुचित नहीं हैं। उन्होंने व्यावहारिक मनोविज्ञान का सहारा लिया है, मनोवैज्ञानिक युक्तियों का नहीं। ‘पत्नी’, पाजेब’, ‘जाह्नवी’, ‘ग्रामोफोन का रिकार्ड’, ‘एक गौ’ जैसे कहानियों में केवल मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ नहीं हैं बल्कि उनमें गहरी मानवीय संवेदना और वास्तविकता भी है। जैनेन्द्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण स्वस्थ एवं स्वच्छ है, उसमें विश्वसनीयता और आत्मीयता है वे हिन्दी के पहले ऐसे कहानीकार हैं जिसने हिन्दी कहानी को घटना-वर्णन के घेरे से निकालकर पूरी तरह चरित्र-प्रधान बनाया। जैनेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं का चित्रण करते हुए समाज की कुरीतियों और कुसंस्कारों से लड़ने के लिए विद्रोह-भाव भी पैदा किया।

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