मध्यकालीन नगरों के अध्ययन के दृष्टिकोणों को दो भागों यूरोपीय मध्यकालीन नगरौं संबंधी दृष्टिकोण तथा मध्यकालीन भारतीय नगरों संबंधी दृष्टिकोण में विभाजित किया जा सकता है।यूरोपीय दृष्टिकोण में सैक्स बैबर ने मध्यकालीन नगरों को उत्पादन केन्द्र के रूप में देखा। ये मध्यकालीन नगर पश्चिम में पूंजीवाद के विकास के लिए प्रक्षेप स्थल बन गए। हेनरी पिरेन मध्यकालीन नगरों की प्रधानता और लम्बी दूरी के व्यापार को सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार ग्यारहवीं सदी के बाद से पश्चिमी यूरोप में व्यापारिक उन्नति के साथ यूरोपीय नगरों का उदभव हआ। फर्नान्ड बॉडल के अनुसार नगरों के विकास के क्रम तीन बुनियादी प्रकार के नगर थे।
(i) मुक्तनगर, (ii) आरक्षित नगर,(iii) अधीनस्थ नगर।
मिशेल, फूको, हेनरी लेफेब्र और एडवर्ड सोजा का कहना है कि नगरीय इकाइयों के निर्माण में सम्मिलित स्थानिक प्रक्रियाओं का विश्लेषण और अध्ययन उनसे मानवीय निर्माताओं के उद्देश्य तथा उनकी पूर्ति की सीमा का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। मध्यकालीन भारतीय नगरों संबंधी दृष्टिकोण में मोहम्मद हबीब के अनुसार मोहम्मद गौरी की विजय के पश्चात उत्तर भारत में श्रम प्रक्रिया में अचानक वृद्धि के फलस्वरूप नगरीय क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ। बी.डी. चट्टोपाध्याय और आर. चम्पकलक्ष्मी ने मध्यकालीन भारतीय नगरों का उद्भव नौवीं सदी के बाद के काल को माना है।
मोरलैंड और नकवी का अध्ययन मुख्य रूप से उत्तर भारत के प्रमुख नगरों की मुख्य विशेषताओं तथा आर्थिक प्रगति के साथ उनके संबंधों की जाँच के इर्द-गिर्द घूमता है। शीरीन मूसवी ने उत्तर भारत के प्रमुख शिल्प उत्पादक नगरों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। इंदु बंगा का अध्ययन पत्तन के नगरीकरण की प्रक्रिया से संबंधित है। मध्यकालीन यूरोपीय नगर मैक्स वेबर ने प्राचीन ग्रीक तथा रोमन नगरों, जो मुख्यतः उपभोग के केन्द्र थे, के विपरीत यूरोपीय मध्यकालीन नगरों को उत्पादन केन्द्र के रूप में देखा। पूँजीवादी विकास की प्रक्रियाओं को विनिमय की प्रक्रियाओं से जोड़ दिया गया।
यहां उत्पादकों एवं व्यापारियों के हितों को राजनीतिक तथा सांस्कृतिक प्राथमिकता भी प्रदान की। मध्यकालीन पश्चिम के निवासियों की रचना उत्पादकों तथा व्यापारियों से मिलकर हुई थी। उन्होंने अपने चारों ओर फैले वैध सामंती प्राधिकारियों पर अपनी निर्भरता को समाप्त कर दिया और अपना अवैध प्रभुत्व जमाने के लिए सत्ता हड़प ली। उसके अनुसार, जिसे एक आदर्श पूर्व नगरीय समुदाय समझा जाता था, वह एक ऐसी बसावट थी, जिसमें व्यापार वाणिज्यिक संबंधों के सापेक्षिक पूर्व प्रभुत्व तथा इसकी किलेबंदी, बाजार इसके अपने न्यायालय तथा स्वायत्त कानून थे।
हेनरी पिरेन मध्यकालीन नगरों की स्थापना का श्रेय सामाजिक परिवर्तन को देते हैं, जो व्यापार बढ़ने के कारण हुई। मॉरिस डॉब ने बताया कि मध्यकालीन नगरों के उत्थान और बाजारों के विराम ने सामंतवाद की संरचना पर विघटनकारी प्रभाव डाला था और उन शक्तियों को मजबूत किया, जिसने इसे निर्बल किया और समाप्त किया। उन्होंने आगे तर्क दिया कि मध्यकालीन नगरों का उत्थान सामंती व्यवस्था की आंतरिक प्रक्रिया थी। उसने मध्यकालीन नगरों – परतंत्र समाज के मध्य एक नखलिस्तान के रूप में देखा, जिसने दमित तथा शोषित ग्रामीण जनसंख्या को अपनी ओर आकर्षित किया और उन्हें नगरो ‘ बसने के लिए प्रेरित किया।
फर्नान्ड ब्रॉडलर का विचार है कि नगरों के विकास के क्रम में तीन मौलिक प्रकार के नगर थे –
(i) मुक्तनगर अपने आंतरिक भूभाग के समान थे और कभी-कभी इसमें मिश्रित भी होते थे। इसके उदाहरण ग्रीस और रोम हैं। इस प्रकार के नगरों के अधिकांश भाग पर किसानों का कब्जा था।
(ii) आरक्षित नगर आत्मनिर्भर इकाइयों में थे और स्वयं में अधिक सुरक्षित थे। यहां की जीवन-शैली व्यक्तिगत थी। ये नगर सामन्तों से मुक्त थे। इन नगरों में रहने वाले लोगों द्वारा सत्ता को सापेक्षिक रूप से हस्तगत कर लिया गया था।
(iii) अधीनस्थ नगर तीसरे प्रकार के थे। ये नगर राजाओं और राज्य के अधीन थे। फ्लोरेंस और पेरिस इस प्रकार के नगर थे। ये व्यापारिक नगर थे और आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे।
ब्रॉडल के अनुसार व्यापारिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक नियंत्रण संबंधी प्रकार्य और शिल्प क्रियाकलाप बड़े नगरों के प्रमुख लक्षण हैं। अनेक इतिहासकारों ने मध्यकालीन नगरों को सांस्कृतिक संरचना के रूप में देखने का प्रयास किया है और सांस्कृतिक निर्माण के रूप में नगरीय पहचानों तथा नगर स्वरूपों की शुरुआत की ओर लगातार नवीनीकृत और संशोधित होते रहे। नगरीय समुदायों का उनकी सामुदायिक भागीदारी, विदेशी संस्कृतियों के साथ संघर्ष, बहुलवादी समाजों की संरचना, द्विनिष्ठा या बहुनिष्ठा तथा बहुसम्बद्धता के कारण उनके सांस्कृतिक निर्माण के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है।
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