आकाशदीप कहानी छायावादी कवि एवं आधुनिक कहानीकार जयशंकर प्रसाद की सर्वाधिक चर्चित कहानी रही है। इसमें कहानीकार ने बड़ी ही सजगता के साथ इतिहास और कल्पना का सुन्दर सामंजस्य बिठाया है। प्रेम और कर्तव्य के अन्तद्वन्द्व को लेकर लिखी गयी यह कहानी कर्तव्य-भावना का समर्थन करती है। बुद्धगुप्त चम्पा से परिणय करना चाहता है। वह स्तंभ पर दीप जलाती है।
समुद्र-जल में चमकती दीपों की रोशनी में वह खो जाती है तो अचानक बुद्धगुप्त आकर चम्पा से दीपों के प्रति आकर्षण का कारण जानना चाहता है तो वह बताती है कि ये दीपक किसी के आगमन की आशा लिए रहते है। जब मेरे पिता भी समुद्र में जाया करते थे, इस तरह आकाशदीप कहानी की कथावस्तु काल्पनिकता का सहारा लिए हुए है, फिर भी उसमें जिस प्रकार हृदय-परिवर्तन दिखाया गया है, वह निश्चित ही सफल कहानी की ओर संकेत करता है। बुधगुप्त ने चम्पा के पैर पकड़ लिये।
उच्छवसित शब्दों में वह कहने लगा-चम्पा, हम लोग जन्मभूमिभारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इन्द्र और शची के समान पूजित हैं। पर न जाने कौन अभिशाप हम लोगों को अभी तक अलग किये है। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परन्तु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकान्तमणि की तरह द्रवित हुआ।
“चलोगी चम्पा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लाद कर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत के लिए प्रस्थान करें। महानाविक बुधगुप्त की आज्ञा सिन्धु की लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस पोत-पुञ्ज को दक्षिण पवन के समान भारत में पहुँचा देंगी। आह चम्पा चलो।” चम्पा ने उसके हाथ पकड़ लिये। किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के लिए दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चम्पा ने कहा-“बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरत्न है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं।
सब मिलाकर एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुःख की सहानुभूति और सेवा के लिए।”
“तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चम्पा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर अधिकार रख सकूँ-इसमें सन्देह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो जाय।”- महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछा”तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?” “पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तम्भ पर से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी। किन्तु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।” ..
उद्देश्य – प्रसाद की कहानी आकाशदीप ही नहीं, कोई भी कला या रचना निरुद्देश्य नहीं होती। इस कहानी में उद्देश्य को स्पष्ट रूप से उजागर किया गया है। इसका उद्देश्य है- मानव के भीतर विश्वास की भावना जगाना, बिना सोचे समझे किसी से घृणा न करने, गरीब असहायों की सेवा करने जैसी भावनाओं को जगाना। चम्पा के आचरण द्वारा बुद्धगुप्त के हृदय में दस्यु-वृति का त्याग करवाकर लेखक ने अपने उद्देश्य को दर्शाते हुए कहानी के अंत में कर्तव्य के सम्मुख प्रेम की बलि चढ़ाव दी है। इससे पता चलता है कि ‘आकाशदीप’ कहानी अपने उद्देश्य का पोषण करने में सक्षम रही है। कर्तव्य की भावना को पुष्ट करना ही इसका प्रमुख उद्देश्य रहा है। ..
भाषा-शैली – ‘आकाशदीप’ कहानी की भाषा पर कवि प्रसाद के कवि-हृदय का पर्याप्त प्रभाव रहा है। खड़ी-बोली का सहज! सरल एवं प्रांजल रूप इसमें साकार हो उठा है। तत्सम शब्दों की प्रचुरता कहानी को शिष्ट भाषा का आयाम प्रदान करती चली गयी है। कहीं-कहीं इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अस्वाभाविक-सा लगता है, परन्तु भावों की गति ने उसे अनुभव नहीं होने दिया है।
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