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प्रयोगवाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए।

 इस काव्य धारा की प्रमुख विशेषताओं या प्रवृत्तियों को इस प्रकार निरूपित किया जा सकता है।

(1) काव्य संबंधी पुरानी अवधारणा में बदलाव-अज्ञेय ने कहा कि युग परिवर्तन के साथ हमारे रागात्मक संबंध बदल गए है। जीवन जग को देखने की दृष्टि के बदलाव ने राग बोध को परिवर्तित कर दिया है। आज की कविता “मूलतः अपने को अपनी अनुभूति से पृथक करने का प्रयत्न है, अपने ही भावों के निर्वैयक्तीकरण की चेष्टा”। कविता आत्माभिव्यक्ति नहीं है, आत्म से पलायन है। रोमान्टिक भाव-बोध के विरोध से उपजी गैर-रोमान्टिक दृष्टि का समर्थन अज्ञेय ने किया।

जगदीश गुप्त ने कहा कि कविता सहज आंतरिक अनुशानसे मुक्त अनुभूतिजन्य सघन लयात्मक शब्दार्थ है, जिसमें सह-अनुभूति उत्पन्न करने की यथेष्टा क्षमता निहित रहती हैं। केदारनाथ सिंहने कविता को एक विचार – एक अनुभूति एक दृश्य और इन सबका कलात्मक संगठन मानकर बिंब सिद्धांत का संकेत दिया।

(2) लघु मानव दर्शन में नए व्यक्तित्व की खोज- अहंग्रस्त आत्मलीन समाज विमुख, कुंठाग्रस्त, वर्जना-पीड़ित मानव है? या इस व्यक्ति की कोई और ही किस्म है? महाकाल का उदात्त नायक – आदर्श नायक कहाँ गायब हो गया है? लक्ष्मीकांत वर्मा ने “नए प्रतिमान पुराने निकष” पुस्तक में प्रथम बार लघु मानव को ” सहज मानव” कहकर चर्चा के केन्द्र में रख दिया।

फिर साही जी ने “लघु मानव के बहाने हिन्दी कविता पर एक बहस” शीर्षक निबंध में लघु मानव को ‘सहज मानव” या “महत् के स्थान पर लघु स्थापना” का नयी कविता में समर्थन किया। जगदीश गुप्त ने कहा कि “पहले अपने को “लघु कहना, फिर लघुता की महानता प्रदर्शित करना, प्रकारांतर से अपने को महान कहना है।  कहना न होगा कि इस लघु मानव को अमरीकी पूँजीवादी भोगासक्त, व्यक्तिवादी मानव का पर्याय मानकर ग.मा. मुक्तिबोध को कहना पड़ा, “आधुनिक भावबोध वाले सिद्धांत में जन साधारण के उत्पीड़न अनुभवों, उग्र विक्षोभों और मूल उद्वेगों का – बायकाट किया गया।

(3) अनुभूति की ईमानदारी और प्रामाणिकता – अनुभूति की ईमानदारी का दावा नयी कविता से पहले के कवि भी कम नहीं करते हैं, फिर नयी कविता में “ईमानदारी का क्या अर्थ?

छायावाद और प्रगतिवाद के कवियों की ईमानदारी पर प्रयोगवाद और नयी कविता ने संदेह व्यक्त किया और कहा कि छायावादी कवि में ” करुणा” और प्रगतिवादी कवि का -वेदना” का नारा झूठा था – कोरी “बौद्धिक सहानुभूति” मात्र छलना है। रघुवीर सहाय ने कहा कि काव्य-सृजन का ” ईमानदारी एक मौलिक गुण है और उस बौद्धिक स्तर का पर्याय हैं |

(4) रस के प्रतिमान की अप्रासंगिकता लगभग सभी नये कवियों ने तनाव घिराव, आक्रोशयंत्रणा, की कविताएँ रची हैं। इन कविताओं का मूल्यांकन रस के प्रतिमान से नहीं किया जा सकता। क्या कोई “अंधायुग” या “चाँद का मुँह टेढ़ा है” का मूल्यांव रस प्रतिमान से कर सकता है?

यदि करता है तो क्या यह अनौचित्य नहीं होगा? नयी कविता हृदय की मुक्तावस्था नहीं है, बुद्धि की मुक्तावस्था का पर्याय हैं।  नयी कविता का विषय है क्षण की अनुभूति जबकि रस का आधार है (जन्मांतर्गत) वासना और स्थायी भाव।” जाहिर है कि नयी कविता रसाश्रयी कविता नहीं है।

(5) स्वाधीनता प्राप्ति के बाद का मोह भंग नेहरू युग ने जनता की आशाओं-आकांक्षाओं को जलाकर राख कर दिया। अमीर और गरीब के बीच खाई और चौड़ी हो गई तथा विदेशी पराधीनता का संकट गहराने लगा। पूरा देश एक ऐसी उथल-पुथल के दौर से गुजरा कि जागरूक और संवेदनशील रचनाकार ‘मोह भंग” की पीड़ा से कराहने लगा।

विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी-पूँजीवाद के शीतयुद्ध की छाया, असीम प्राविधिक विकास और स्थापित व्यवस्था के बढ़ते हुए विराट, संवेदनशील, अमानवीय तंत्रों की स्वार्थपरता के कारण सर्वग्रासी मानव विनाश का खतरा, हर स्तर पर झूठ, फरेब, आडम्बर पाखण्ड और भ्रष्टाचार से भारतीय लोकतंत्र चरमराने लगा।

(6) प्रयोग परम्परा और आधुनिकता – इन कवियों ने अपनी “परम्परा” के गतिशील तवं को पहचान कर रचना में ढाला तथा “रूढ़ि” के बासीपन का निषेध किया। इनके लिए “परम्परा” का अर्थ – यदि ऐतिहासिक चेतना रहा है तो दूसरा अर्थ “निरंतरता” भी है अर्थात् रचना में प्राचीन नमक’ का नया स्वाद ।

“परम्परा” और “आधुनिकता” पर इन सभी कवियों ने करारी बहसें कीं। मूल विचार यह है कि परम्परा से ही आधुनिकता फूटती है, वह आकाशसे नहीं टपकती।  आधुनिकता नए संदर्भो में देखने की दृष्टि है, रूढ़ियों की अस्वीकृति है, मध्ययुगीन पिछड़ी जीवन-दृष्टियों का विरोध है एक तरह की सामयिक नवीनता है।

(7) प्रकृति सौंदर्य पर नई दृष्टि छायावादी कवि प्रकृति में एक विराट सत्ता का संकेत पाता था और मानसिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति में भी प्रकृति का पूरा उपयोग था। प्रकृति उसके भावों का आलम्ब थी। हृदय की स्वच्छंदता समाज के सभी बंधनों तोड़कर “तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल” के गीत गाती थी।

प्रयोगवाद तथा नयी कविता के काल में कवि पर जीवन जगत की स्थिति परिस्थिति के तनाव संघर्ष, औद्योगिक समाज के आर की टूटन, नेहरू युग की निराशा से – उत्पन्न मोह भंग उसकी चेतना को डसता था। इसी को कम करने के लिए वह प्रकृति के पास जाता है।

(8) काव्यरूप पुराने प्रबंध काव्य के “अखण्ड कथात्मकता और अखण्ड रसात्मकता वाले रूढ़ ढाँचे – को तोड़कर एक नवीन प्रबंध चेतना को विकसित किया। धर्मवीर भारती के “अंधायुग” और कुँवर नारायण की “आत्मजयी” को पुराने ढंग का प्रबंध काव्य नहीं कहा.. जा सकता है।

कथा का उपयोग विचार-विशेष के केन्द्र को आलोकित करने के लिए किया गया है और प्रभाव की दृष्टि से कृति “रस-चेतना” से कोसों दूर हैं। इसी तरह प्रयोग सिद्धि का आलम यह है कि इस दौर में प्रबंध का स्थानापन्न “नयी लम्बी कविताओं” को बनाया गया।

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