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संस्कृत आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य लक्षणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

 काव्य लक्षण से तात्पर्य है कविता की विशिष्टताएँ, उसका स्वरूप विवेचन, उसकी परिभाषा। काव्य लक्षण में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए - 

1) वह सारगर्भित, संक्षिप्त, सूत्रबद्ध तथा अर्थवान होना चाहिए।

2) उसमें कोई पारिभाषिक शब्द नहीं होना चाहिए, जिसे समझने में कठिनाई हो।

3) उसमें अतिव्याप्ति दोष नहीं होना चाहिए, अर्थात् विषय का अनावश्यक विस्तार नहीं होना चाहिए।

4) लक्षण तार्किक, स्पष्ट और सहज बोधगभ्य होना चाहिए। संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य-लक्षण

5) उसमें अव्याप्ति दोष भी नहीं होना चाहिए अर्थात उसमें काव्य की सभी विशेषताएँ बतानी चाहिए, कोई विशेषता छूटनी नहीं चाहिए।

प्रस्तुत करने की परम्परा प्रारंभ से ही मिलती है। सर्वप्रथम भारत के आदि आचार्य भरत मुनि ने नाटक पर आधारित काव्य-लक्षण प्रस्तुत किये-मृदु ललित पदावली, गूढ शब्दार्थहीनता, सर्वसुगमता, युक्तिमत्ता, रस प्रवाहित करने की क्षमता।

भामह : इनके अनुसार शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य कहलाता है शब्दार्थों सहितौ काव्यम्। इनका यह लक्षण केवल काव्य पर घटित नहीं होता, प्रत्येक प्रकार के सार्थक कथन पर लोकवार्ता और शास्त्र-कथन पर भी घटित होता है। 

दण्डी : इनके अनुसार, इष्ट अर्थ से परिपूर्ण पदावली काव्य का शरीर है। शरीर सावद् इष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली। ‘इष्ट अर्थ’ से उनका तात्पर्य अलंकारजन्य आजाद माना जा सकता है। दण्डी का उक्त कथन ‘काव्य शरीर’ का स्वरूप प्रस्तुत करता है, न कि काव्य का इसमें एक दोष तो यह है कि काव्य का शरीर पदावली नहीं है, अपितु शब्द (वाचक) और अर्थ (वाच्य) दोनों का समन्वित रूप है।

वामन : काव्य उस शब्दार्थ को कहते हैं, जो दोषरहित हो तथा जिसमें गुण नित्य रूप से और अलंकार अनित्य रूप से विद्यमान हों, और इसकी आत्मा है रीति।

आनन्दवर्धान : काव्य उस शब्दार्थ रूप शरीर को कहते हैं, जिसकी आत्मा ध्वनि (व्यंग्यार्थ) है। यद्यपि यह लक्षण काव्य के आन्तरिक तत्त्व ध्वनि की ओर सर्वप्रथम संकेत करता है, किन्तु स्वयं ‘ध्वनि’ शब्द अत्यन्त व्याख्यापेक्ष है।

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