आधे-अधूरे के आधार पर कहा जा सकता है कि मोहन राकेश उस नाट्य भाषा को तलाश रहे थे जिसमें बदले हुए और बदल रहे मानवीय संदर्भ को सही रूप में प्रस्तुत किया जा सके। ‘आधे-अधूरे’ की भाषा समकालीन मुहावरे तथा बोलचाल की सृजनात्मक भाषा है जिसमें महानगरीय मध्यवय परिवार के अनुभवों, अधूरी संवदेनाओं, बदलती स्थितियों, असंतुष्ट और अधूरे पात्रों की विस्फोटक मनःस्थिति का यथार्थ एवं तथ्यपरक चित्रण हुआ है। इस नाटक की भाषा व्यक्ति की पारिवारिक संबंधों से ऊब, अलगाव, झल्लाहट, विद्रूपता, संघर्ष को व्यक्त करती है जिसमें जीने के लिए हर परिवार विवश है। इस नाट्य भाषा को शब्द, ध्वनि, मौन, मुद्रा, क्रिया, मंचसज्जा, संगीत छायालोक आदि द्वारा संश्लिष्ट किया गया है।
प्रतीकात्मकता-‘आधे-अधूरे’ की भाषा में रोजमर्रा की जिंदगी में प्रयोग होने वाली चीjo को गहरी तथा नई अर्थ- छाया देकर प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है। घर की टूटी फूटी और घिसी-पिटी चीजों द्वारा घर की गिरती आर्थिक स्थिति और विघटित होते संबंधों को वाणी दी गई है। तीन दरवाजे तीन तरफ से कमरे में झाँकते हैं। जैसे कथनों द्वारा ‘कमरे’ को घर के जीवन और ‘दरवाजों को घर से झाँकने वाले सिंघानिया,, जुनेजा, जगमोहन आदि के प्रतीक रूप में प्रयोग किया है।
आंतरिक लयपूर्ण संवाद-कोई शब्द वाक्य में प्रयुक्त अन्य शब्दों के संबंध और संदर्भ से अर्थवान बनता है अतः नाटक में शब्दों या वाक्यांशों के निर्माण की अपेक्षा उनके संदर्भो की लय तथा नाटक के चरित्रों की आंतरिकता द्वारा जीवंत संवाद लेखन तथा भाषा सृजन है। तनावपूर्ण, स्वतः स्फूर्त, बिबोत्मक भाषा तथा आंतरिक लयपूर्ण संवाद ‘आधेअधूरे’ के संवादों को विशेष बनाते हैं। पात्र के संवादों की ध्वनि और उच्चारणा रसती विशेषता को प्रकट करने में सक्षम हैं।
नाटक के संवाद छोटे, विश्वसनीय, सच्चे परिसद एवं पात्रों की मनःस्थिति को उघाड़ने वाले हैं। प्रारंभ में काले सूट वाले आदमी के लंबे एकालाप तथा अंत में सावित्री और जुनेजा के लंबे संवाद अपवाद कहे जा सकते हैं। सहज, आत्मीय, अंतरंग तथा रचनात्मक बोलचाल की भाषा में प्रभावशाली ‘आधे-अधुरे’ को विशिष्ट नाट्य रचना बनाते हैं।
शाब्दिक संवाद :– ‘आधे-अधूरे’ के संवाद साधारण एवं अभिधात्मक लगते हैं, लेकिन उनका व्यंग्य गहरा है। अपनी विवशता के कारण सावित्री से दबने वाला महेंद्रनाथ उस पर साधारण शब्दों में तीखा व्यंग्य करता है।
उदाहरणतः पुरुष एक का आँख बचाते हुए स्त्री से कहना कि ‘आ गईं दफ्तर से लगता है आज बस जल्दी मिल गई?’ सुनने में साधारण बात है, परंतु इसके साथ महेंद्रनाथ सावित्री के प्रति अपने अविश्वास, दब्बूपन और उसके दफ्तरी जीवन पर व्यंग्य करता है। वह कहना चाहता है कि वह घर केवल लड़ने और कुढ़ने के लिए आती है। सावित्री भी इसे समझती है और जवाब न देकर उससे ही प्रश्न करती है।
महेंद्रनाथ के सिंघानिया और जगमोहन को लेकर जुनेजा के सामने तेज-तर्रार, कटु और आक्रामक सावित्री का विनम्र बनना आदि उनके संवाद पात्रों की मनःस्थिति, संघर्ष एवं अंतद्वंद्व का चित्रण करते हैं। महेंद्रनाथ का बिन्नी से यह कहना है कि “आदमी जो जवाब दे, वह उसके चेहरे से भी तो झलकना चाहिए।” बिन्नी के अंतर्द्वद्व तनाव और विभाजित मानसिकता एवं विषमता को दिखाने में सक्षम है। सावित्री द्वारा ‘ओह, होह, होह’ जैसे निरर्थक शब्दों का प्रयोग और किन्नी-बिन्नी द्वारा उन्हें दोहराना उनके मन की खीझ, आक्रोश, झुंझलाहट आदि को अभिव्यक्ति देता है। दृश्य बिंबों की संवादात्मकता- पात्रों की मुख-मुद्रा, भंगिमा और रंगचर्चा से बिंब भी संवादों का कार्य करते हैं।
एक व्यक्ति द्वारा पाँच भूमिका निभाने के संदर्भ म एक ही रंग-संवाद कि “बिल्कुल एक से हैं आप लोग। अलग-अलग मुखौटे, पर चेहरा?चेहरा सबका एक ही!” शाब्दिक संवाद को दृश्य संवाद में बदल देता है। सावित्री का थका-हारा होना स्त्री के अंतद्वंद्व, संघर्ष और व्यक्तित्व को झलकाता है। सावित्री घर” दफ्तर और व्यक्तिगत जीवन तीनों में तालमेल नहीं बिठा पाती और यही उसकी उलझन का कारण है। जुनेजा का यह कथन कि “तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है |
कितना कुछ एक साथ होकर, कितना कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना।” उसकी सारी स्थिति को मूर्त रूप दे देता है जिसमें शुरू में विवश लगने वाली स्त्री. अंत में महत्त्वाकांक्षिणी और स्वार्थी दिखती है तथा दर्शक के मन में वितृष्णा पैदा करती है। चरित्र के इन दो बिंदुओं के बीच पल रही मानसिकता ने ही सावित्री का चरित्र चुनौतीपूर्ण बना दिया है जिसे परत-दर-परत दिखानाकी … है। सावित्री के अपने प्रथम संवाद में किन्नी की पढ़ाई, घर पर पड़ते आर्थिक दबाव …. बेरोजगार अशोक के बोझ और महेंद्रनाथ की अकर्मण्यता का परिचय मिल जाता है।
सावित्री का महेंद्रनाथ के पायजामे को मरे जानवर की तरह उठा देना और कोने में फेंकते-फेंकते तह लगाने लगना उसकी महेंद्रनाथ के प्रति सोच और उससे अलग होने, फिर उसी के साथ जिंदगी जीने की मजबूरी दिखाता है। जगमोहन के प्रवेश के पूर्व सावित्री की माला टूटना और उसका दूसरी माला पहनना प्रतीकात्मक रूप में उसकी जिंदगी को दिखाता है।
‘माला’ यहाँ एक परिवार के साथ रहने की परंपरा को दिखाती है तो माला का टूटना रिश्तों की टूटन को दिखाता है तथा सावित्री का नई माला पहनना नई जिंदगी जीने के प्रयास का प्रतीक है। एक चप्पल न मिलने पर सब जूते-चप्पलों को ठोकर मारना भी उसकी पारिवारिक और मानसिक स्थिति के प्रतीक हैं। पानों का- बार दराज खोलना व बंद करना, महेंद्रनाथ का कुर्सी झुलाना; चीज के डिब्बे का न खुलना आदि सभी पात्रों की घुटनभरी जिंदगी जीने की मजबूरी को दिखाते हैं।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box