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बाणभट्ट' की आत्मकथा में अभिव्यक्त नारी चेतना को रेखांकित कीजिए।

 सम्राट हर्षवर्धन के काल (छठी-सातवीं शताब्दी) के समय में नारी के प्रति दृष्टि सामन्तीय थी । ‘मनुस्मृति’ नारी को पुरुष की अनुगामिनी तथा आज्ञाकारिणी बताता है । नारी की स्वतंत्रता को अमंगलकारी कहता है । सामन्तीय दृष्टि में नारी पुरुष की भोग्या, दासी एवं सन्तान का पालन-पोषण करने वाली परिचारिका है । वह पण्यवस्तु (Commodity) है, जिसकी बाज़ार में खरीद-फरोख्त होती है, जिसका अपहरण कर उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध बन्दी बनाकर रखा जा सकता है और जिसके शरीर को कामना-वासना की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है ।

उसे अपना जीवनसाथी चुनने का कोई अधिकार नहीं है । प्रतापी सम्राट् तुवुरमिलिन्द की बेटी राजकुमारी मोहिनी का अपहरण कर उसे छोटे राजकुल के अन्तःपुर में बन्दिनी बनाकर रखा जाता है और बहला-फुसलाकर मौखरि सामन्त की अंकशायिनी बनने के लिए बाध्य किया जाता है । महामाया कहती है- मैं तुम्हारे देश की लाख-लाख अवमानित, लांछित और अकारण दंडित बेटियों में से एक हूं। भट्टिनी कहती है, …. मेरा कौन-सा ऐसा पाप-चरित्र है, जिसके कारण मैं निदारुण दुःख की भट्टी में आजीवन जलती रही । क्या स्त्री होना ही मेरे सारे अनर्थों की गड़ नहीं है ? निपुणिका बाल-विधवा है, सुचरिता का विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध कर दिया है, मदनश्री और अस्मिता वेश्याएँ हैं । सभी सतायी हुई, पीड़ित तथा पुरुष प्रधान समाज द्वारा उत्पीड़िता हैं ।

वर्तमान भारत में नारी की स्थिति इतनी दयनीय तो नहीं है, परन्तु आज भी उसका शोषण-उत्पीड़न होता है । आज भी समाज उसे दासी, काम-पूर्ति का साधन, भाग्या समझता है । मैथिलीशरण गुप्त करुणा-द्रवित होकर लिखती है

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी

हजारीप्रसाद द्विवेदी भी अपने समय की नारी की इस दयनीय स्थिति से क्षुब्ध थे । अतः इस उपन्यास में उन्होंने भट्टिनी, निपुणिका महामाया और सुचरिता द्वारा नारी की महिमा, उसकी शक्ति, उसकी तेजस्विता तथा उसके हृदय की कोमलता एवं चरित्र की उदात्तता उजागर किया है। बाणभट्ट के रूप में वह नारी-शरीर को देवता का मन्दिर मानते हैं । बाणभट्ट का निउनिया तथा भट्टिनी के प्रति व्यवहार, आचरण इसी विचार पर टिका है कि नारी का शरीर देवता का मन्दिर है, स्त्री भाग्या या काम-पूर्ति का साधन मात्र नहीं है तथा महामाया के शब्दों में उसे शक्ति-स्वरूपा तथा उत्सर्गमयी बताते हैं । इन नारी पात्रों का चरित्र, आचरण तथा तेज देखकर एक ओर जयशंकर प्रसाद की पंक्ति याद आती है -नारी तुम केवल श्रद्धा हो। तथा दूसरी ओर वराहमिटिर का यह कथन कि स्त्रियां ही रत्नों को भूषित करती हैं, रत्न स्त्रियों को क्या भूषित करेंगे ? ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में नारी के तीन रूप प्रमुख हैं-प्रेमिका का रूप संन्यासिनी का रूप और धर्मपत्नी का रूप द्विवेदी जी ने नारी के गुणों का गुणगान किया है ।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में निपुणिका और भट्टिनी दोनों ही प्रेमिका रूप में वर्णित की गई हैं । निपुणिका बाण को अपनी पूर्ण शक्ति से प्रेम करती है आरम्भ में इसका प्रेम दैहिक होता है, जिसमें वासना का भाव अधिक और त्याग का भाव कम हैं । जब बाण की ओर से उसे कोई उचित प्रतिदान नहीं मिलता, तो वह निराश होकर एक रात को सहसा भाग जाती है । इसके बाद उसे अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ता है । ये संघर्ष उसके चित्त के कालुष्य को धोकर उसे निर्मल बना देते हैं और इसका दैहिक प्रेम भक्ति-भाव में परिणत हो जाता है । यह भक्ति-भाव इसके जीवन का सबसे प्रबल सबल बन जाता है | निपुणिका अपने जीवन में जिन दुष्कर कार्यों का सम्पादन करती है, वे उसकी प्रत्युत्पन्नमति और साहस के परिचायक है ।

भट्टिनी छोटे राजकुल के अन्तःपुर में से निकालकर ले जाना, संभवतः उस समय का सबसे विकट कार्य था । निपुणिका भी इस विकटता से पूर्णतया अवगत थी और यह कार्य उसने अपने अपूर्व साहस, धैर्य एवं समझबूझ के साथ किया । भट्टिनी का भी प्रेमिका-रूप उसी आदर्श के साथ चित्रित हुआ है, जिसके साथ निपुणिका का । भट्टिनी पूरी तरह से बाण के प्रति निपुणिका के आकर्षण को जानती है, फिर भी उसे निपुणिका से कोई शिकायत नहीं है । जब भी अवसर आया है, उसने बाण और निपुणिका के प्रेम में साधक बनने की ही कोशिश की है । जब बाण स्थाण्वीश्वर को जाने लगता है, तो एकांत पाकर निपुणिका उसके पैरों से चिपट जाती है।

बाण उसे छुड़ाने का प्रयत्न करता है । इमने में ही भट्टिनी वहाँ आ जाती है और बाण से कहती है कि इसे पैरों में ही पड़ी रहने दो, क्योंकि इन पैरों के स्पर्श से इसे असीम आनन्द मिलता है और यह अपनी वेदना को भूल जाती है । इससे अधिक आदर्श और त्यागमयी प्रेमिका कौन हो सकती है । धर्मपत्नी का रूप-धर्मपत्नी के रूप में सुचरिता का अंकन किया गया है । वह एक ऐसे पुरुष की पत्नी है, जो उसे असहाय छोड़ संन्यास का मार्ग ग्रहण कर लेता है । सुचरिता को अपने पति का अभाव बहुत खलता है । सुचरिता अपने पति के साथ हर अवस्था में रहना स्वीकार कर लेती है और उसके तप में बाधक न बनकर साधक ही बनती है ।

वह अपने जीवन की समस्त मधुर आकांक्षाओं को, सुनहले स्वप्नों को और यौवन की मृदुल भावनाओं को अपने पति की सफलता के लिए तिलांजलि दे देती है । अपने पति की पूजा को वह अपना अपरिहार्य अधिकार समझती हैं ।

सुचरिता के इन्हीं गुणों से रीझकर बाण कहता है :

'तुम सार्थक हो देवी ! तुम्हारा शरीर और मन सार्थक है । तुमको प्रणाम करके भवसागर में निर्लक्ष्य बहने वाले अकर्मा जीव भी सार्थक होंगे । तुम सतीत्व की मार्यादा हो,     पतिव्रत्य की काष्ठा हो, स्त्र धर्म का अलंकार हो।'

इस प्रकार उपन्यासकार ने सुचरिता के चरित्र में जब सभी विशेषताओं का समावेश कर दिया है, जो एक आदर्श धर्मपत्नी के लिए अपेक्षित है  तेजस्वी, विद्रोहिणी एवं प्रेरणादात्री का स्वरूप-महामाया के रूप में लेखक ने नारी का तेजस्वी रूप प्रस्तुत किया है। महामाया सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में उथल-पुथल मचा देने में समर्थ है । वह अपने लम्बे भाषण से जनता में विद्रोह की ज्वाला धधका देती है- मैं महाराष्टि राज से प्रार्थना करने के निर्णय का विरोध करती हूं ।

मैं संन्यासिनी हूं मैंने स्वेच्छा से दुःख और क्लेश का मार्ग स्वीकार किया है मृत्यु से नहीं डरती आप मेरी गर्दन उड़ा सकते हैं ; परन्तु सत्य कहने से मुझे नहीं रोक सकते । आचार्य भार्वपाद के पत्र के पौरुषहीनता । का आपने विचार किया होता, तो ऐसा निर्णय नहीं करते ? वह पौरुषहीनता का नग्न प्रचारक है । वह पत्र आर्यावर्त की भावी पराजय का अग्रदूत है । आपका निर्णय उसी मनोवृत्ति का पोषक है। आप कहते हैं कि उत्तरापथ के ब्राह्मण और श्रमण वृद्ध और बालक, बेटियाँ और बहुएँ किसी प्रचण्ड नरपतिशक्ति की छाया पाये बिना नहीं बच सकतीं ।

आर्य सभासदों, उत्तरापथ के लाख-लाख नौजवानों ने क्या कंकण वलय धारण किया है ? क्या वे वृद्धों और बालकों, बेटियों और बहुओं, देवमन्दिरों और विहारों की रक्षा के लिए अपने प्राण नहीं दे सकते? स्पष्ट है कि द्विवेदी जी नारी को अबला न मानकर शक्तिस्वरूपा मानते हैं उनकी दृष्टि में नारी स्वभावतः कुसुम से भी कोमल है, परन्तु अवसर पड़ने पर वज्र से भी अधिक कठोर बन जाती है ।

उसमें जीवन की कठिन-से-कठिन साधना से भी जूझ जाने की शक्ति होती है । विघ्नों से संघर्ष करने की उसमें जन्मजात शक्ति होती है । बल्कि कहना चाहिए कि विघ्न ही उसका वास्तविक रूप है और विघ्न ही उसकी साधना है । महामाया भट्टिनी से कहती है  

‘ना-रे-ना, मैं विघ्नों की पूजा का ही तो तप कर रही हूं । विघ्न ही तो मेरे उपास्य हैं । तेरे शास्त्र के अनुसार तू भी एक विघ्न ही है । विधाता ने तो विघ्न के रूप में ही तो सुन्दरियों की सृष्टि की थी । क्यों रे, तू अपने को किसी का विष्न नहीं समझती ?’ .

नर और नारी दोनों मिलकर एक पूर्ण जीवन बनते हैं । केवल नर अथवा नारी किसी भी तप में पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकते ‘हाँ बेटी, नारी-हीन तपस्या संसार की यही भूल है। यह कर्म-धर्म का विशाल आयोजन, सैन्य-संगठन और राज्य-व्यवस्थापन सब फेन बुदबुद की भाँति विलुप्त हो जायेंगे, क्योंकि नारी का इनमें सहयोग नहीं है । यह सारा ठाट-बाट संसार में केवल अशांति पैदा करेगा।’ भैरवी गैरिकधारिणी भैरवियों का दल संगठित कर, समस्त देश में घूम-घूम कर, युवा शक्ति को जगाती है । यह उपन्यासकार का नारी शक्ति को आह्वान भी माना जा सकता है |

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में चार नारी पात्र प्रमुख हैं-भट्टिनी, निउनिया, महामाया और सुचरिता । भट्टिनी का प्रेम तो उदात्त है ही, वह चाहती है कि सम्पूर्ण जगत् में स्नेह, भाईचारा, सौहार्द्र के भाव व्याप्त हों, भेद भाव दूर हों । म्लेच्छ कही जाने वाली जातियों को भी समझा-बुझाकर उनको जगाकर कलह-क्लेश दूर किया जाय । दूसरी ओर महामाया बर्बरता, दुराचार, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाती है । भट्टिनी यदि हृदय परिवर्तन द्वारा संसार को सुखमय बनाने का संदेश देती है, तो महामाया विद्रोह और क्रान्ति द्वारा त्याग एवं प्रेम की प्रतिमूर्ति है । 

वह दलित द्राक्षा की तरह निचुड़ कर दूसरों की तृषा दूर करने में विश्वास करती है । तीनों अपने-अपने ढंग से पुरुष की सुप्त चेतना को संपादित करती हैं, वे पुरुष को प्रेरणा देती हैं । सुचरिता सती-साध्वी पति की अनुगामिनी धर्मपत्नी तो है ही वह अपने गंभीर धार्मिक विचारों से अपना वैदूष्य भी सिद्ध करती है। लेखक ने स्त्री के प्रति प्रति सामंतीय दृष्टि के स्थान पर मानवीय दृष्टि के स्थान पर मानवीय दृष्टि का संधान किया है सारांश यह है कि द्विवेदी जी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में नारी महिमा की जो प्रतिमा गढ़ी है, वह अनूठी है । उपन्यास में सर्वत्र नारी जाति के प्रति सम्मान का भाव है ।

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