अरस्तू ने अपनी परिभाषा में शब्द का प्रयोग किया है और बूचर ने उसका अनुवाद किया है, जिसका हिन्दी अर्थ होगा अनुकृति या अनुकरण। वस्तुतः की जगह अधिक उपयुक्त शब्द है, क्योंकि त्रासदी में लेखक फोटोग्राफर की तरह अनुकरण नहीं करता। उसका कार्य जीवन का अनुकरण न होकर जीवन का निरूपण करना है। अरस्तू के अनुसार यह निरूपण कार्य का होना चाहिए। अरस्तू ने केवल गंभीर कार्य की अनुकृति को त्रासदी का विषय माना है। गंभीर से उसका अभिप्राय उस कार्य से है जो महत्त्वपूर्ण हो, जो त्रासदी के गौरव के अनुकूल हो।
अरस्तु का विचार है कि त्रासदी का कार्य अपने आप में पूर्ण होना चाहिए। पर आज पूर्णता के मत को अमान्य ठहरा दिया गया है। भारत ने कलात्मक भाषा और शैली-गौन्दर्य को वासटी के लिा आवश्यक बताया है। त्रासदी के तत्त्व : अरस्तू के अनुसार त्रासदी के छः तत्त्व हैं-कथावस्तु या कथानक चरित्र, विचार-तत्त्व, पदावली, दृश्य-विधान, तथा संगीत।
1) कथावस्तु : कथावस्तु से अरस्तू का तात्पर्य घटनाओं के विन्यास से है। यह कथावस्तु को त्रासदी का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग, उसकी आत्मा मानता है। इसके लिए उन्होंने निम्नलिखित कारण दिये हैं:
(क) त्रासदी अनुकृति है – व्यक्ति की नहीं, कार्य की तथा जीवन की।
(ख) जीवन कार्य-व्यापार का ही नाम है, अत: जीवन की अनुकृति में कार्य व्यापार ही प्रमुख है।
(ग) काव्यगत प्रभाव का स्वरूप सुख या दुःख होता है और यह कार्य पर निर्भर रहता है।
(घ) चरित्र कार्य-व्यापार के साथ गौण रूप से स्वतः ही आ जाता है।
(2) एकान्विति – नाटक, काव्य आदि कलाकृति होते हैं; उनमें अन्विति, पूर्णता आदि गुण होने चाहिए। इसलिए अरस्तू ने एकान्विति से युक्त कथानक को अनिवार्य ठहराया है। एकान्विति का यह अर्थ नहीं कि उसमें एक व्यक्ति की ही कथा हो। त्रासदी के कथानक की धुरी ऐसा कार्य व्यापार होनी चाहिए जिसके विभिन्न अंग परस्पर सम्बद्ध होने के साथ-साथ मूल कार्य से सम्बद्ध हों, जिसमें कोई अनावश्यक और निरर्थक अंग न हो, जिसमें इतनी सुसम्बद्धता हो कि एक अंग के हटाने से ही सर्वांग छिन्न-भिन्न हो जाए, कथानक का ढाँचा चरमरा उठे। कार्य की समाप्ति एक निश्चित बिन्दु पर होनी चाहिए, और सब घटनाओं के पीछे एक ही उद्देश्य परिलक्षित होना चाहिए। प्रत्येक दृश्य अगले दृश्य से या किसी अन्य आगामी दृश्य से सम्बद्ध हो तथा सभी दृश्य ऐसा भाव उत्पन्न करें, जो अन्तिम प्रभाव उत्पन्न करने में योग दे।
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