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राज्य के विभिन्‍न परिप्रेक्ष्यों की संक्षिप्त में चर्चा कीजिए।

  1960 के दशक के अंतिम वर्षों में राज्य के सिद्धांतों को एक प्रामाणिक पहचान मिली और यह सैद्धांतिक रूप से श्रेष्ठ बन गया। राज्य के अध्ययन पर विभिन्न परिप्रेक्ष्यों द्वारा दृष्टि डाली जाती है, जोकि उसे व्यक्तिवाद समकालीनवाद और सार्वभौमिकता के आधार पर इसकी प्रमाणिकता की जाँच करती है।हालाँकि, राज्य के अध्ययन पर विचारों की अधि कता के कारण इसकी मल विशषताएँ सम्मिश्रित हो गई हैं। हर परिप्रेक्ष्य राज्य को पृथक रूप से परिभाषित करता है, जिसके कारण किसी भी सामान्य निष्कर्ष तक पहुँचना कठिन है, और समकालीन राज्य की एक अमिश्रित तस्वीर अब भी उभरकर नहीं आ सकी।

तीन विचारधाराएँ या परिप्रेक्ष्य जिन्होंने राज्य के स्वरूप को प्रधान रूप से परिभाषित किया है, वे है – उदारवादी, मार्क्सवादी व नव-उदारवादी

(1) उदारवादी परिप्रेक्ष्य- अनेक विद्वानों का मत है कि उदारवादी परिप्रेक्ष्य में ही राज्य का आविर्भाव हुआ। उनके विचार उनके “प्राकृतिक अवस्था” के विश्लेषण पर आधारित है, जिसमें मनुष्य को एक विशिष्ट दृष्टिकोण से देखा जाता है और वह उन्हें एक सुरक्षात्मक व्यवस्था (चाहे वह व्यक्तियों या फिर व्यक्ति समूह के रूप में हो) के निर्माण हेतु प्रेरित करता है,  ताकि व्यक्ति अपने जीवन, सपंत्ति व अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा कर सके । राज्य के आविर्भाव के सभी सिद्धांत यह दर्शाते हैं कि व्यक्ति ने अपनी सुविध गाओं व शक्तियों को राज्य जैसी संस्था के निर्माण हेतु समर्पित कर दिया; ताकि वे अपनी सुरक्षा (जीवन, संपत्ति व स्वतंत्रता के प्रसार की सुरक्षा) कर सके ।

इसके साथ ही सेवाओं व वस्तुओं की उपलब्धता की एक सरल प्रणाली विकसित हो सके। उदारवाद एक विशिष्ट विचारधारा के रूप में विकसित हुआ, जिसने राज्य को केवल तभी स्वीकार किया, जब वह मानव प्रकृति व न्याय के सार्वभौमिक स्तर के प्रति उदार दष्टिकोण रख सका। उदारवादी विचार ने ‘कानून के शासन’ का समर्थन किया, क्योंकि इसके द्वारा ही नागरिकों को स्वेच्छाचारी शासन से बचाया जा सकता है तथा व्यक्ति को अपने निजी हितों व संपत्ति व समद्धि प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र छोड़ा जा सकता है।

पूर्व उदारवादियों जॉन लॉक, मांटेस्क्यू, डेविड ह्यूम, एडम स्मिथ, जेम्स मिल और जेर्मी बेंथम ने लोकतंत्र का समर्थन किया, क्योंकि यही व्यक्ति की स्वतंत्रता को राज्य की बढ़ती हुई शक्तियों से सुरक्षित करने में सर्वाधिक उत्तम तरीका था। नव-शास्त्रीय उदारवादियों जैसे वेलफ्रेडो पैरेटो, मैक्स वेबर, एमिल दुरखाईम, लुडविग वान माईसिस एवं फेडरिक वॉन हायेक आदि ने भी श्रम व वस्तुओं के लिए मुक्त बाजार को बनाए रखने के लिए राज्य की भूमिका को कम करने की वकालत की।

हालाँकि, इन विचारकों के उदाहरण के लिए पैरेटो ने पहले के उदारवादी दार्शनिकों द्वारा बाजार-तंत्र के नैतिक फायदों को निर्देशित किया । बाजार की उपयोगिता इस बात पर निर्भर करती है कि यह लोकतंत्र की अपेक्षा कम से कम भ्रष्ट हो और अधिक से अधिक तटस्थ हो, ताकि व्यक्ति की प्राथमिकताएँ दृष्टिगत हो सके, तथा संतुष्टि के एक उत्तम स्तर को प्राप्त किया जा सके। 

स्ट्रियन स्कूल (माएसिस व हायेक) – ने मेक्रो-इकोनोमिक थ्योरी की विश्लेषणात्मक प्राथमिकताओं पर जोर दिया, और इसके पक्ष को अस्वीकार कर दिया तथा अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप पर प्रश्न उठाया। राज्य पर मैक्स वेबर के विचार आस्ट्रियन स्कूल के समरूप ही थे। 20वीं शताब्दी के अंत में उदारवादियों ने स्वतंत्रता व समानता के उदार मूल्यों को सामाजिक न्याय के साथ जोड़ा और साथ ही कार्यकुशलता की आवश्यकता को भी ध्यान में रखा । जॉन रॉल्स व रॉबर्ट नोजिक ने इसी विचारधारा के अंतर्गत लिखा। इस प्रस्तावना से ही नव-उदारवाद या फिर नव-अधिकार दर्शनशास्त्र आगे सूत्र बढ़ाते हैं।

जॉन लॉक की प्राकृतिक अवस्था एक ऐसी अवस्था थी, जहाँ पूर्ण स्वतंत्रता व समानता थी। परंतु उसने भी व्यक्तियों के मध्य विरोधों की संभावना को अस्वीकार नहीं किया, इसलिए एक तर्कयुक्त व सीमित समझौते पर विचार किया गया, जोकि रक्षा व जीवन, स्वतंत्रता व समानता की वृद्धि की गारंटी दे सके । वस्तुतः यह संपत्ति का सामाजिक स्वरूप था, जिसने लॉक को एक न्यूनतम राज्य (जिसमें सीमित सरकार व व्यक्तिगत अधिकारों का महत्त्व हो) का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया।

जे मर्मी बेंथम ने अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण की भावना में विश्वास व्यक्त किया। उन्होंने आधुनिक राज्य के विचार को एक आदर्श माना। उनके लिए राज्य एक कानूनी सत्ता और व्यक्तिवाद इसका नैतिक आधार था। उन्होंने स्वतंत्रता के स्थान पर कल्याण को राज्य का अंतिम उद्देश्य माना, और एक ऐसी संस्था पर जोर दिया, जो कानूनी व्यवस्था का समर्थन करे, विशेष रूप से सार्वजनिक सेवाओं के नौकरशाहीकरण और वैधानिकीकरण को एक निरंतर व विविधता और परिवर्तनों का अनुसरण करने की प्रक्रिया मानते हुए।

(2) मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य - मार्क्सवादी सिद्धांत के दृष्टिकोण में, पॉल स्ट्रीटन के अनुसार, सरकार केवल शासक वर्ग की एक कार्यकारी समिति होती है और केवल इसी वर्ग के आर्थिक हितों की पूर्ति करती है। राज्य शासक वर्ग के हितों के अनुरूप कार्य करता है। यह राज्य का कार्य है कि वह शासक वर्ग के अंतर्गत हितों की विभिन्नताओं के मध्य एकता स्थापित करे, ताकि यह अपनी शक्ति व उत्पादन की पूँजीवादी प्रणाली बनाए रख सके। केवल सामाजिक वर्गों के नाश और अंततः राज्य के अंत द्वारा ही लोकतंत्र की स्थापना की जा सकती है।

राज्य व राज्य की शक्तियों को संपत्ति संबंधों दृग्विषय के रूप में वर्णित किया गया। बाद के मार्क्सवादियों के दृष्टिकोण से राज्य को कुछ संस्थाओं का योग माना गया और इसके वर्ग-व्यवस्था के बारे में कोई सामान्य अवधारणा नहीं बनाई जा सकी। इस प्रकार वर्ग व राज्य के मध्य संबंधों के बारे में मार्क्स के दो विचारबिंदु हैं। डेविड हेल्ड के अनुसार, पहला विचारबिंदु इस बात पर जोर देता है कि सामान्यतः राज्य और विशेष रूप से नौकरशाही संस्थाएँ.अनेक रूप ले सकती हैं और शक्ति के सोत का निर्माण कर सकती है, जोकि आवश्यक नहीं कि प्रत्यक्ष रूप से शासक वर्ग के हितों से संबंधित हो अथवा शासक वर्ग के नयंत्रण में हो। इस आ गार पर राज्य वर्गों से स्वतंत्र होकर शक्ति के एक स्तर को धारण करता है; इसका संस्थागत रूप और संचालक तत्त्व प्रत्यक्ष रूप से वर्ग-शक्ति द्वारा निर्धारित नहीं होते, वे स्वतंत्र होते हैं।

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