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प्रत्ययवाद से आप कया समझते हैं,“ समझती हैं? स्पष्ट कीजिए।

 प्लेटो में काव्य और दर्शन के सापेक्ष महत्व को लेकर प्रायः अतद्वंद्व दिखाई देता है। इसका कारण है वे स्वभाव और संस्कार से कवि हैं तथा शिक्षा और परिस्थिति से दार्शनिक। कभी ये काव्य और दर्शन के पुराने कलह की याद दिलाते हैं तो कभी काव्य को ईश्वरीय प्रेरणा से उद्भूत मानकर उसकी प्रशंसा करते हैं। प्रायः प्लेटो का स्मरण काव्य के विरुद्ध अनेक अभियोग लगाने वाले दार्शनिक आचार्य की तरह किया जाता है। उनके मत से काव्य की अग्राह्यता के दो आधार हैं – दर्शन और प्रयोजन।

मूलतः प्लेटो प्रत्ययवादी दार्शनिक हैं। प्रत्ययवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात् विचार ही परम सत्य है, वह नित्य है, एक है. अखंड है और ईश्वर ही उसका स्रष्टा है।  यह दृश्यमान वस्तु-जगत प्रत्यय (परम सत्य या ईश्वर) का अनुकरण है क्योंकि कलाकार किसी वस्तु को ही अपनी कला के द्वारा निर्मित अंकित या चित्रित करता है। इस क्रम में कला तीसरे स्थान पर है- पहला स्थान प्रत्यय का (अर्थात् . ईश्वर का), दूसरा स्थान उसके आभास या प्रतिबिंब या वस्तु-जगत का और तीसरा स्थान वस्तु-जगत के प्रतिबिंब कला-जगत का। इसलिए परम सत्य से कला का तिहरा अलगाव है और अनुकरण का अनुकरण होने के कारण वह मिथ्या या झूठ है। प्लेटो के शब्दों में कविता या कला सत्य से तिगुना दूर होती है।

अपने इस सिद्धांत कथन को प्लेटो अपने उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं। उनका कहना है कि संसार में प्रत्येक वस्तु का एक नित्य रुप होता है। यह प्रत्यय या विचार में ही निहित रहता है और यह रूप ईश्वर निर्मित है। विचार (प्रत्यय) में मौजूद उसी रूप के आधार पर किसी वस्तु का निर्माण होता है। प्लेटो के द्वारा दिया गया पलंग का उदाहरण लें। यथार्थ पलंग वह है जिसका रूप हमारे प्रत्यय या विचार में है और इस रूप का निर्माण ईश्वर ने किया है।

इस विचार में विद्यमान रूप के आधार पर बदई लकडी के पलंग का निर्माण करता है और उसके द्वारा निर्मित पलंग का चित्र कवि या कलाकार निर्मित करता है। इस प्रकार तीन पलंग हुए –

(1) एक तो वह जिसका निर्माण ईश्वर करता है (प्रत्यय या विचार रूप में पलंग),

(2) दुसरा वह जिसका निर्माण लकड़ी से बदई करता है;

(3) तीसरा वह जिसका निर्माण कलाकार या चित्रकार करता है। इन तीनों के पलंग में अंतर है।

मूल बात यह कि वस्तु प्रत्यय में ही रूपायित होती है, फिर उसके अनुकरण कर निर्माता उसे ठोस आकार देता है।  यह आकार यथार्थ की नकल होता है। इसलिए उसकी स्थिति यथार्थ के दूसरे स्थान पर है। कलाकार – कवि, चित्रकार मूर्तिकार – किसी माध्यम (शब्द रंग या पत्थर) के द्वारा उस ठोस वस्तु की नकल कर उसे नया रूप देता है। इसलिए वह यथार्थ से तीसरे स्थान पर है। इसीलिए प्लेटो कहते हैं कि कला नकल की नकल है, अनुकरण का अनुकरण है, छाया की छाया है, प्रतिबिंध का, प्रतिबिंब है अर्थात् नकल या मिथ्या है।

प्लेटो अपना यह तर्क सभी कलाओं पर लागू करते हैं। प्लेटो का विचार है कि होमर और हैसिओड (आठवीं शताब्दी ई.पूर्व) जैसे कपियों के काव्य अथवा सोफोवलीज़ अरिस्तोफोनीज़ जैसे नाटककारों के नाटक भी अपवाद नहीं हैं। इन कृतियों को पढ़ने, देखने या सुनने से अके नागरिकों का निर्माण आदर्श राज्य के लिए संभव नहीं है। नैतिकतावादी आग्रहों से प्रेरित होकर प्लेटो काव्य और कलाओं की निंदा करते हैं। उनके कुछ तर्क इस प्रकार हैं

1) होमर के महाकाव्यों – ‘इलियड’ और ‘ओडसी’ – में देवताओं का चरित्र असत्य भी है और अनुचित भी। उनमें देवत्व कहाँ है और देवत्व नहीं है तो वे मनुष्यों के उन्नयन में सहायक नहीं हो सकते।

2) होमर और हैसिओड के काव्य में ऐसे स्थल प्रायः आते हैं जो पाठक को वीर और साहसी के बदले दुर्बल और कायर बनाते हैं।  काव्य तो ऐसा होना चाहिए जो नवयुवकों में शौर्य की भावना भरे उनके चरित्र का निर्माण करे और मृत्यु की लालसा के लिए उन्हें तैयार करे। प्लेटो का प्रसिद्ध कथन है – ‘दासता मृत्यु से भी बुरी चीज़ है।’

3) प्रायः कवि भोग और विलास की कामना से भर कर आवेशपूर्ण, कामुकतापूर्ण भावों की सृष्टि करते हैं। इनसे शुद्धता और संयम में बाधा पड़ती है तथा चरित्रहीनता, भोग-लिप्सा और अराजकता फैलती है।

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