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शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना की बृहत्तरीय के योगदान की चर्चा कीजिए।

 आचार्य शुक्ल ने हिंदी आलोचना को जो प्रौढ़ता और स्तर प्रदान किया था उसे उससे आगे ले जाना या उसका दिशा-परिवर्तन करना, बड़ा चुनौतीपूर्ण काम था। पर अपनी विशेष प्रकार की मान्यताओं और दृष्टिकोण के कारण वे समकालीन छायावादी कवियों को अपेक्षित सहानुभूति नहीं दे सके। इस काव्याधारा की सराहना के प्रश्न के साथ कुछ और बातों में मतभेद के कारण भी उनके बाद नन्ददलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नगेंद्र ने शुक्लोत्तर आलोचना की जिस बृहत् त्रयी का निर्माण किया वह अलग-अलग ढंग से आचार्य शुक्ल से टकराई।

यह टकराहट नंददुलारे वाजपेयी के कर्कश सिद्धांत-विरोध में, हजारीप्रसाद द्विवेदी के नवीन इतिहास-बोध में और नगेंद्र की छायावादी काव्य की सरस व्याख्याओं में प्रकट हुई।

1) इस प्रगति के बारे में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी जी ने कहा था : ‘शुक्ल जी की नैतिक और बौद्धिक दृष्टि की अपेक्षा नये समीक्षकों की सौंदर्य अनुभूति और कला-प्रधान दृष्टि एक निश्चित प्रगति है।’ इस नयी दृष्टि की प्रेरणा से वाजपेयी जी ने जो आलोचनात्मक प्रतिमान बनाए उनका आधार विशेष रूप से प्रगीत-काव्य था। ‘आँसू’, ‘परिमल’ और ‘पल्लय’ की गीति रचनाओं ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया था। जाहिर है कि ये प्रतिमान प्रगीतों के विवेचन-व्याख्या के लिए ही उपयोगी थे

वाजपेयी जी को प्रसाद और निराला के काव्य में व्याप्त पौरुष और शक्ति तत्व तो विशेष आकर्षित करता ही था इसके अलावा इनकी काव्य के प्रति अप्रतिम निष्ठा’ भी। वाजपेयी जी साहित्य के मूल्यांकन के लिए किसी साहित्येतर मूल्य को निर्णायक स्थिति में रखने के पक्ष में नहीं थे। काव्य के संदर्भ में उन्होंने काव्य सौष्ठव को सर्वोपरि महत्व दिया।

वे मूलतः छायावादी चेतना के आलोचक थे। इसीलिए वे न प्रेमचंद के साथ न्याय कर सके न प्रगतिशील साहित्य के साथ। उनका एक महत्वपूर्ण योगदान छायावाद को राष्ट्रीय स्वातंत्र्य-आंदोलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने का है। उन्होंने स्पष्ट किया कि छायावाद की ‘मुख्य प्रेरणा धार्मिक न होकर मानवीय और सांस्कृतिक है।

2) आचार्य शुक्ल से हजारी प्रसाद विवेवी का मतभेद साहित्य के प्रति सम्पूर्ण दृष्टिकोण को लेकर था। उन्होंने हिंदी साहित्य को एक समवेत, भारतीय पिता के स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रयास किया। इसे वे जैन, नाथ, सिद्ध सन्त आदि सभी धर्मों की संयुक्त और साझी चेतना का प्रतिफलन मानते थे।

द्विवेदी जी एक और सांस्कृतिक निरंतरता का समर्थन करते थे और दूसरी ओर अखंडता का इसीलिए उन्होंने एक ओर भक्ति साहित्य में एक कालक्रमिक चिंतन परंपरा की खोज की और दूसरी उसकी विभिन्न धाराओं को एक विराट भक्ति-चेतना के रूप में देखने का प्रयत्न किया। हिंदी आलोचना को द्विवेदी जी की मौलिक देन है काव्य-रदियों और कवि-प्रसिद्धियों के माध्यम से काव्य के अध्ययन की पद्धति का प्रस्ताव उनका विचार था कि समाज और संस्कृति के आंतरिक स्तर पर निरंतरता और अखंडता को प्रतिफलित होते हुए देखने का कारगर उपाय यही है।

इस सिद्धांत को उन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता पर विचार करते हुए व्यावहारिक रूप दिया। आचार्य द्विवेदी की आलोचना की सबसे बड़ी सामर्थ्य यह थी कि उन्होंने बड़े पैमाने पर साहित्यिक-रुचि में परिवर्तन करने का प्रयल किया। अपने इस प्रयास में वे बहुत दूर तक सफल भी हुए। वे स्वयं जनता की रुचि को महत्व देते थे। जन जीवन के प्रति यह मोह उनके मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण पैदा हुआ था। उन्होंने एक निबंध लिखा जिसका शीर्षक है : ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।’

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