‘भागीदारी’ शब्द से तात्पर्य है-‘किसी गतिविधि या क्रियाकलाप में हिस्सा लेना या शामिल होना’। प्रबंधन में कार्यकर्ता की भागीदारी से आशय है-प्रबंधकीय कार्यों व गतिविधियों में कर्मचारियों का भाग लेना।
विद्वानों का मानना है (जिसमें ऑपरत काम्टे व ऑवन प्रमुख हैं) कि यदि कर्मचारियों को प्रबंधन में भागीदार बनाया जाए. तो इसका उनकी मानसिकता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा इससे सामाजिक न्याय का आदर्श भी पूरा किया जा सकता है।
समाजशास्त्र के प्रमुख विद्वान, जिनमें मुख्य हैं-ब्लेक, मेयो, लेविन तथा लाइकार्ट का मानना है कि यदि कर्मचारियों को निर्णयन प्रक्रिया में भागीदार बनाया जाता है, तो इसका सकारात्मक प्रभाव संगठन की प्रभाविकता, कर्मचारियों की मानसिकता व उनके नैतिक मूल्यों पर पड़ता है।
प्रबंधन में कार्यकर्ता की भागीदारी के आधारभूत विचार :–
उपर्युक्त रेखाचित्र में प्रबंधन में कर्मचारी की भागीदारी के विभिन्न आयामों को दर्शाया गया है। रेखाचित्र के अनुसार कार्यकर्ता, प्रबंधन में सामूहिक सौदेबाजी, संघ-समूह संगठन, कर्मचारी पर्यवेक्षक, कार्य परिषदें व सलाह योजना में भाग लेकर अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है। औद्योगिक क्षेत्र में आए तेज बदलावों ने पूरे आर्थिक परिदृश्य में परिवर्तन किये हैं। इसका प्रभाव कार्य-संस्कृति की मूल्य-व्यवस्था पर भी पड़ा है।
संगठन में कर्मचारियों की स्थिति में बदलाव आया है। पहले संगठन कठोर पदसोपानीय व्यवस्था व संस्कृति में अधिक विश्वास करते थे तथा अधिकारी-अधीनस्थ के बीच औपचारिक सम्बन्धों पर बल दिया जाता था। परंतु आज कर्मचारी को ‘सहयोगी’ के रूप में देखा जाता है तथा यदि आवश्यक होता है, तो उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थ से सलाह-मशविरा करने में भी नहीं हिचकिचाते। संगठन की कार्यप्रणाली पहले से लोचशील और अधिक लोकतांत्रिक हो गया है, जिसमें कर्मचारियों को अपनी योग्यतानुसार कार्य करने की पूरी छूट दी जाती है।
कर्मचारी की मनः स्थिति का प्रभाव उसकी उत्पादकता पर पड़ता है। किये गये अनुसंधानों से यह तथ्य प्राप्त हुए हैं कि यदि कर्मचारियों को प्रबंधन में संलग्न किया जाए तो उनकी उत्पादकता पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
भारत में द्वितीय पंचवर्षीय योजना में मजदूर प्रबंधन सहभागिला के संदर्भ में निम्नलिखित सिद्धातों पर बल दिया गया
- प्रबंधकों व कर्मचारियों के बीच मधुर, विश्वासपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए जाएं।
- उत्पादन को राष्ट्रहित के अनुकूल किया जाए।
- कार्मिक को उत्पादन के लिए अनुकूल सुविधाएं प्रदान की जाएं।
- कर्मचारियों को आवश्यक व उचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाएं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :-
प्रबंधन में कर्मचारियों की भागीदारी का विचार फेबियन समाजवादी विचारधारा से प्रभावित है। इस विचारधारा के अग्रणी विचारक सिडनी बेव थे। यह विचारधारा इस सिद्धान्त में विश्वास करती है कि राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना सही मायने में तभी संभव है, जब आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की जा सके। इस विचारधारा ने अनेक देशों को प्रभावित किया, जिनमें इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस आदि देश प्रमुख हैं। इंग्लैण्ड में इस विचारधारा पर अमल करने के लिए एक समिति का गठन किया गया, जिसे ह्वीटली समिति कहा जाता है। इसने अनेक सिफारिशें प्रस्तुत की।
भारत में गांधीवादी विचारधारा भी इसी आदर्श का समर्थन करती है कि नियोक्ता व कर्मचारी के बीच सम्बन्ध समन्वय पर आधारित हो न कि विवाद पर, क्योंकि ये दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। गाँधीजी व्यावसायिकों को समाज के न्यासधारी के रूप में देखना चाहते थे। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भी इस विचारधारा का समर्थन किया तथा 1950, 1960 व 1976 में अनेक सिफारिशों को स्वीकार किया।
प्रबंधन में कर्मचारी सहभागिता के उद्देश्य में 42वें संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छेद 43A जोड़ा गया, जिसके द्वारा ‘राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों’ का विस्तार किया गया। राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व राज्य को ऐसी नीतियाँ बनाने की सिफारिश करते हैं, जो कर्मचारियों की भागीदारी को सुनिश्चित कर सकें। ‘राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व’ भारतीय संविधान के भाग IV’ में वर्णित हैं (अनुच्छेद 36-51 तक)।
ये तत्त्व राज्य को नीति-निर्माण में दिशा-निर्देश का कार्य करते हैं। इन तत्त्वों की सबसे बड़ी कमी है कि ये न्याय योग्य नहीं है अर्थात यदि सरकार नीति-निर्माण करते समय इन तत्त्वों का ध्यान न रखें, तो इसके विरुद्ध कोई व्यक्ति न्यायालय की शरण नहीं ले सकता और न ही सरकार पर इस सम्बन्ध में कोई नियंत्रण लगाया जा सकता है। फिर भी ये तत्त्व सरकार के नीति-निर्धारण में दिशा-निर्देशक की भूमिका का निर्वाह करते हैं।
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