अभिनवगुप्त ने भट्टनायक के मत में संशोधन कर साधारणीकरण को अपने ही ढंग से प्रस्तुत किया – वाक्यार्थ के ज्ञान के उपरांत साधारणीकरण नामक व्यापार द्वारा सहदय की कुछ इस प्रकार की मानसी एवं साक्षात्कारात्मिका प्रतीति होती है कि जिसके द्वारा काव्य अथवा नट आदि सामग्री (दृश्य काव्य में) में वर्णित देश, काल, प्रमाता आदि की विषय-सीमा नष्ट हो जाती है।अर्थात् ये नियामक कारणों के । बंधनों से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। वस्तुतः यही साधारणीकरण व्यापार है।
उदाहरणार्थ – भयानक रस के निदर्शन ‘ग्रीवाभंगाभिराम…..तस्यां च यो मृगयोतकादिर्भाति तस्य विशेष रूपत्वा भावाभित इति, त्रासकस्यापारमार्थिकत्वाद् भयमेव परं देशकालाद्यनलिगितम्।’ में त्रस्त मृग, त्रासक (दुष्यंत) और भय . स्थायी भाव, देशकाल आदि के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में सहृदय को जिस भयानक रस की प्रतीति होती है – वह उस भावना से भिन्न होती है कि ‘मैं भीत हूँ’ अथवा ‘यह भीत है’
अथवा ‘शत्रु-मित्र’ अथवा ‘उदासीन भीत है। यह प्रतीति लौकिक सुख-दुख के मान से भिन्न या विलक्षण होती है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि आश्रय और आलंबन का साधारणीकरण हो जाने से स्थायी भाव ही देशकाल के बंधन से मुक्त हो जाता है। इसी तथ्य को और स्पष्ट करते हुए अभिनवगुप्त लिखते हैं – इसीलिए ‘मैं भीत हूँ’, ‘यह भीत है’ या ‘शत्रु’ ‘मित्र’ अथवा ‘तटस्थ भीत है’ इत्यादि सुख-दुःखकारी अन्य प्रत्ययों (ज्ञान) को नियमतः उत्पन्न करने के कारण विघ्न बहुल प्रतीतियों से भिन्न निर्विघ्न प्रतीति रूप में ग्राह्य (भय स्थायी भाव ही) भयानक रस बन जाता है।’
अर्थात् काव्य में स्थायी भाव सभी प्रकार के व्यक्ति-संसर्गों से मुक्त हो जाता है वे व्यक्ति-संसर्ग अपनी परिमिति के कारण दुःखादि के कारण होते हैं। अतः इनसे मुक्ति का अभिप्राय होता है- लौकिक सुखदुःख आदि की चेतना से मुक्ति। यह साधारणत्व परिमित न होकर सर्वव्याप्त होता है – अनादि संस्कारों से चित्रित चित्त वाले समस्त सामाजिकों की एक-जैसी वासना (संस्कार) होने के कारण सभी को एक जैसी ही प्रतीति होती है।
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