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भारत की विदेशनीति को निर्धारित करने वाली मुख्य संस्थाएँ कौन सी हैं? वे एकसाथ किस प्रकार कार्य करती हैं?

 भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने वाली संस्थाएँ हैं-विदेश मंत्रालय राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद प्रधानमंत्री कार्यालय, संसद एवं संसदीय समितियां। विदेश मंत्रालय-वैदेशिक नीति के निर्धारण में विदेश मंत्रालय की भूमिका बहुत ही विस्तृत और व्यापक होती है। भारत की आंतरिक नीति के निर्धारण में अथवा आंतरिक समस्याओं के निदान में विशेष कठिनाई नहीं होती, परंतु किसी भी देश के साथ संबंध स्थापित करने और किसी भी समस्या पर उससे बातचीत करने की समस्या बहुत ही कठिन और जटिल होती है, क्योंकि कोई भी देश पूर्णरूप से स्वतंत्र होता है, उसकी मानसिकता और व्यवहार भी अलग होते हैं। इसलिए किसी भी समस्या पर उस देश से बात करने के लिए अच्छे परिवेश और व्यवहार की प्रतीक्षा की जाती है। जब अच्छा परिवेश और परिस्थितियां नजर आती हैं, तभी बातचीत करना आवश्यक होता है। कोई भी देश किसी भी देश से बातचीत करने के क्रम में अधिकतम राष्ट्रीय हित की अपेक्षा करता है।

इसलिए वह इस बात की प्रतीक्षा करता रहता है कि वर्तमान सरकार की अपेक्षा चुनाव के बाद दूसरी सरकार के आने पर उसे अधिक राष्ट्रीय हित मिल सकता है। इन सभी बातों की जानकारी विदेश मंत्रालय के पदाधिकारियों को विस्तृत रूप से रहती है। विदेश मंत्रालय का अध्यक्ष विदेश मंत्री होता है। वह कैबिनेट स्तर का मंत्री होता है और उसके अंतर्गत वैदेशिक मामलों के विशेषज्ञ आई.एफ.एस. अधिकारी होते हैं। मंत्री सामान्यतया वैदेशिक मामलों में अनभिज्ञ होते हैं। इसलिए वे अपने विभाग में कार्य कर रहे विशेषज्ञ पदाधिकारियों से विचार-विमर्श करते हैं।

सामान्यतया देखा जाता है कि साधारण विषयों पर विशेषज्ञों की मंत्रणा के आधार पर कोई भी निर्णय लिया जाता है और विदेश मंत्री से परामर्श करके उसको अंतिम रूप दिया जाता है। विदेश मंत्री यदि किसी विषय की गंभीरता को देखता है, तो कैबिनेट की सभा में वह उस संबंध में विचार-विमर्श करता है और कैबिनेट की स्वीकृति लेता है।  विदेश विभाग के अंतर्गत संघ लोकसेवा आयोग द्वारा चयनित पदाधिकारी होते हैं। विदेश विभाग का एक सचिव होता है, जो वरिष्ठ और अनुभवी अधिकारी होता है। वह वैदेशिक मामलों का विशेष ज्ञान रखता है। विदेश सचिव अपने कार्यालय का स्थायी अध्यक्ष होता है और वैदेशिक मामलों में विदेश मंत्री को महत्त्वपूर्ण सलाह देता है।

विदेश सचिव की सहायता के लिए दो वरिष्ठ आई.एफ.एस. अधिकारी होते हैं, जिन्हें विदेश सचिव पूर्व और विदेश सचिव पश्चिम के नाम से पुकारा जाता है। विदेश मंत्रालयों में अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी होते हैं। विदेश सचिव की सहायता के लिए सामान्य रूप से तीन अतिरिक्त सचिव भी कार्यरत रहते हैं। विदेश मंत्रालय के अंतर्गत 24 प्रभाग होते हैं और प्रत्येक प्रभाग का प्रमुख एक संयुक्त सचिव रहता है। विदेश मंत्रालय में विश्व को क्षेत्रीयता के आधार पर 12 भागों में बाँटा गया है। इसलिए इसके 12 प्रादेशिक विभाग निश्चित किए गए हैं। इन प्रभागों के अंतर्गत कनाडा, लैटिन अमेरिका, कैरिबियन देश, खाड़ी के देश, पूर्वी एशिया, दक्षिणी अमेरिका के समूहों को रखा गया है।

इसके लिए अलग-अलग प्रभाग बनाए गए हैं। ये सभी प्रभाग अपने-अपने क्षेत्र में कार्यों का संपादन करते हैं। इनके अतिरिक्त नवाचार, विदेश प्रचार, ऐतिहासिक तथ्यों के संकलन, नीति निर्माण और संयुक्त राष्ट्र संघ से संबंधों की स्थापना के लिए 11 क्रियात्मक प्रभाग भी हैं और सारे प्रभागों पर आंतरिक नियंत्रण और प्रशासनिक कार्यों के संपादन के लिए एक प्रशासनिक प्रभाग भी स्थापित है। इन प्रभागों के अंतर्गत सारे तथ्यों का अनुसंधान एवं विचार-विमर्श होता है। प्रारंभ में केवल ऐतिहासिक प्रभाग ही था, परंतु चीनी आक्रमण के बाद योजना और अनुसंधान प्रभाग भी स्थापित किया गया।

1963 में पूर्वी एशिया अनुसंधान समन्वय प्रभाग स्थापित किया गया। 1965 में सामयिक अनुसंथाल प्रभार स्थापित किया गयाविर्तमान समय में विदेश मंत्रालय के अंतर्गत एक नीति नियोजन और अनुसंधान प्रभाग भी है। विदेश विभाग के द्वारा विभिन्न देशों में दूतावासों की स्थापना की गई है। इन दूतावासों में आई.एफ.एस. अधिकारी कार्यरत रहते हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित सूचनाओं को एकत्र करते हैं और इसकी सूचना सरकार को देते हैं। दूतावास के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के अटैची होते हैं जो कृषि, सैनिक, उद्योग व्यवसाय, शिक्षा, विज्ञान आदि के संबंध में विशेष जानकारी दूतावासों को देते हैं।

दूतावासों के अंतर्गत इंटेलिजेंस विभाग भी होता है, जो समस्त सूचनाओं को एकत्रित करके सारी सामग्रियाँ दूतावासों को सौंपता है। इंटेलिजेंस विभाग का संबंध एक तरफ दूतावास एवं दूसरी तरफ विदेश विभाग से भी होता है। कैबिनेट सचिवालय में एक विभाग रॉ भी है,  जो विभिन्न प्रकार की सूचनाएं आवश्यकता पड़ने पर एकत्रित करता है। इंटेलिजेंस ब्यूरो का संबंध आंतरिक सूचना से होता है और रॉ का संबंध बाह्य सूचना से। इससे स्पष्ट होता है कि विदेश मंत्रालय विभिन्न प्रभागों और संगठनों के माध्यम से वैदेशिक नीति के निर्माण एवं कार्यान्वयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद- प्रारंभ से ही राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के निर्माण एवं इस प्रणाली को व्यवस्थित करने के संबंध में यह आवाज उठती रही है कि राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् का गठन किया जाए। इस संबंध में प्रो. के.पी. मिश्रा और के. सुब्रह्मण्यम ने इस संस्था की स्थापना पर विशेष बल दिया। अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी संगठन है। इसलिए भारत में भी इसी प्रकार का संगठन स्थापित करने पर विशेष बल दिया गया, ताकि वह समय-समय पर अपनी सभाओं के द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में सरकार को परामर्श दे। इसके लिए नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् अधिनियम संसद के द्वारा बनाया गया। विद्वानों, विशेषज्ञों और नेताओं की बार-बार मांग के बाद वाजपेयी सरकार ने 1998 में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की स्थापना की। 

प्रधानमंत्री परिषद् के अध्यक्ष होते हैं। विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, गृह मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष इस परिषद् के सदस्य होते हैं तथा सलाहकार के रूप में वैज्ञानिक, रक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञ, विदेश सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी, शिक्षाविद्, सेवानिवृत्त नौकरशाही के वरिष्ठ अधिकारी तथा सेना के अवकाश प्राप्त प्रमुख अधिकारी होते हैं। इसके अंतर्गत तीनों सेनाओं के प्रमुख, इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख तथा रॉ के प्रमुख सम्मिलित रहते हैं। इसका कार्यालय संयुक्त इंटेलिजेंस कमिटी के सचिवालय में ही है। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की सफलता के लिए और प्रधानमंत्री को परामर्श देने के लिए पर्याप्त पदाधिकारियों की कमी है। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता तो प्रधानमंत्री को करनी चाहिए, परंतु प्रधानमंत्री द्वारा इसकी उपेक्षा हमेशा इस बात को लेकर की जाती है कि जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड है ही, तब इसकी क्या उपयोगिता है।

इसीलिए प्रधानमंत्रीगण न तो इसकी अध्यक्षता करते हैं और न इसकी मीटिंग ही बुलाते हैं। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की अध्यक्षता का भार अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र को सौंप दिया, यह उचित बात दिखाई नहीं पड़ती है।  1998 में जब राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की स्थापना की गई, तो प्रधानमंत्री की अनिच्छा सर्वविदित रूप से जानी गई। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् को परमाणु सिद्धांत के संबंध में मसौदा तैयार करने का काम सौंपा गया और इसने कुशलतापूर्वक इस कार्य का संपादन किया। प्रश्न यह उठता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् का उचित रूप से उपयोग नहीं किया जा रहा है, क्योंकि सरकार इसके प्रति उदासीन है। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् व्यापक रूप में अपने कार्यों का संपादन कर सकती थी, परंतु इसे न तो कोई विशेष कार्य सौंपे जाते हैं और न इसकी समान रूप से सभा बुलाई जाती है जिसके कारण इसकी उपयोगिता सर्वव्यापक नहीं हो पा रही है।

प्रधानमंत्री कार्यालय – भारत में स्वतंत्रता के बाद संसदात्मक लोकतांत्रिक प्रणाली क्षानाई गई है। इस प्रकार की लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत प्रधानमंत्री की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि एक तरफ वह संसद के बहुमत दल का नेता होता है,  तो दूसरी तरफ वह कार्यपालिका को वास्तविक प्रधान भी होता है। इसी कारण से प्रधानमंत्री का कार्यालय वैदेशिक नीति का निर्माण, निर्णय और संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

यह बात भी निश्चित है कि इन सारे कार्यों का संपादन प्रधानमंत्री का कार्यालय स्वयं अकेला ही नहीं कर लेता। सामान्यतया वैसे ही मामले प्रधानमंत्री के कार्यालय में महत्त्वपूर्ण रूप से निपटाये जाते हैं। जिनका संबंध भारत की सुरक्षा, वैदेशिक नीति के लक्ष्यों, भारत के आर्थिक विकास आदि से होता है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू वैदेशिक मामले में बहुत ही दक्ष एवं वैदेशिक व्यवहारों से पूर्णरूप से परिचित थे। इसीलिए विदेश विभाग को वे अपने ही अधीन रखते थे और अपने कार्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों से परामर्श लेकर अपनी वैदेशिक नीति का संचालन स्वयं करते थे, जिसके कारण उनके काल में प्रधानमंत्री का कार्यालय वैदेशिक नीतियों के निर्माण, निर्धारण एवं संचालन का केन्द्र बिन्दु बन गया। तब से प्रधानमंत्री का कार्यालय वैदेशिक नीति के संबंध में अग्रणी भूमिका निभाता रहा है।

संसद – भारतीय संविधान के अंतर्गत वैदेशिक नीति, युद्ध और शांति, संयुक्त राष्ट्र संघ, दौत्य संबंध, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य और व्यापार, नागरिकता तथा नागरिकता का देशीयकरण आदि केन्द्रीय सूची के विषय हैं। केन्द्रीय सूची का विषय होने के कारण इन सभी विषयों पर विधायन का अधिकार संसद को पूर्णरूपेण प्राप्त है। इसलिए संसद वैदेशिक नीति के निर्धारण एवं संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और वैदेशिक नीति को प्रभावित भी करती है।

संसद का वित्त पर पूरा अधिकार होता है। इसलिए वित्त पर नियंत्रण करके भी वैदेशिक नीति को प्रभावित करने में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वैदेशिक नीतियों पर संसदीय समितियों का प्रभाव - 

(i) भारत के संसद में एक परामर्शदात्री समिति होती है, जो वैदेशिक संबंधों की स्थापना एवं संचालन के संबंध में व्यापक रूप से विचार-विमर्श करके सरकार को सहयोग देती है।

(ii) 1971 में जब भारत-रूस के बीच मैत्री संधि हुई, तो संसद की परामर्शदात्री समिति ने विशेष रूप से चर्चा नहीं की और इसे बिना किसी हिचक के स्वीकार कर लिया।

(iii) 2 जुलाई, 1972 को जब शिमला समझौता हुआ तो संसदीय परामर्शदात्री समिति के अंतर्गत इसे नहीं रखा गया, फिर भी संसदीय समितियों की भावना इसके अनुकूल थी।

(iv) 1976-77 में भारत के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में आकलन समिति ने विदेशों में स्थित दूतावासों की कार्यप्रणालियों की जाँच की।

(v) 1970-80 के दशक में विभिन्न विद्वानों ने भारतीय वैदेशिक नीति एवं रक्षा संबंधी मामलों पर विचार करने के लिए स्थायी समिति के निर्माण पर बल दिया।

(vi) वैदेशिक नीति की समीक्षा करने और उससे संबंधित खामियों को उजागर करने का काम संसद की विभिन्न समितियाँ करती हैं।

(vii) 1995 में संसद की रक्षा संबंधी समिति ने चीन के साथ मधुर संबंध स्थापित करने के संदर्भ में कहा था कि लंबे समय के बावजूद भी चीन को भारत की महत्त्वपूर्ण चुनौती के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

भारत की संसद में विभिन्न समितियों के अंतर्गत सेना, रक्षा, और वैदेशिक नीति संबंधी विशेषज्ञ होते हैं, जो संसद और सरकार को वैदेशिक संबंधों के निर्माण एवं संचालन से संबंधित सरकार की रिपोर्टों की जांच करके सरकार को व्यापक रूप से परामर्श देते हैं और वैदेशिक नीति को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं।

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