साइबरस्पेस की परिभाषा- डेविड विटल ने विज्ञान कल्पित लेख न्यूरामेंसर के लेखक विलियम गिब्सन को ऐसा लेखक बताया है, जिन्होंने साइबरस्पेस की संकल्पना को लेखबद्ध किया। गिब्सन स्वयं इस धारणा का श्रेय शॉकवेब राइडर के रचयिता जॉन ब्रूनर को देते हैं, जो बदले में एल्विन टोफ्लर को साइबरस्पेस की धारणा को शुरू करने का श्रेय देते हैं। साइबरस्पेस का अभिप्राय मनुष्य की उस मानसिक रचना से है, जो वह कम्प्यूटर संचार तथा सूचना प्राप्त करने के अनुभव से प्राप्त करता है।
इस संकल्पना की बहुत ज्यादा असमंजसता एवं अविश्वास इसमें है कि क्या वास्तव में कोई ऑनलाइन समुदाय है अथवा नहीं, क्या ‘आभासी समुदाय’ होते हैं? अथवा सब ‘साइबरस्पेस’ में कल्पनाओं तथा ‘वास्तविक जीवन’ एवं ‘आभासी जीवन’ के कोई कृत्रिम द्विभाजन है। साइबरस्पेस लक्षण हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि हमारी ऑनलाइन अन्त:क्रियाएं हमारे आम जीवन से अलग होते हैं। तकनीकी स्तर पर, हम जो कुछ भी ऑनलाइन कर रहे हैं, वह मॉडम एवं दूरभाष संपर्क की मदद से संदेशों का पहुंचना है।
साइबरस्पेस को न केवल आम जीवन तथा शारीरिक रूप से अन्त:क्रियाओं के कारण भिन्न मानते हैं, बल्कि उन्हीं को इस तथ्य में देखा जाता है कि साइबरस्पेस का मूल ही काल्पनिक विज्ञान से है। भविष्य में साइबरस्पेस में शारीरिक रूप से निवास किया जा सकता है। साइबरस्पेस के साहित्य विचार को मानते हुए हम अपने संदेशों के संचार को इंटरनेट के माध्यम से आकाशीय रूप से जोड़ सकते हैं। इसके बावजूद ऑनलाइन संचार के विषय में ऐसे बिन्दु हैं, जो हमें बहुआयामी अंतरिक्ष का ज्ञान कराते हैं। कम्प्यूटर के परदे पर जो शब्द अथवा आकृतियां आती-जाती रहती हैं, उनके विषय में भी कुछ ऐसा ही है, जैसे हम जब कोई संदेश भेजते अथवा प्राप्त करते हैं तथा वेबसाइट देखते हैं तो ऐसा आभास होता है जैसे कि परदे के पीछे भी कोई जीवन है।
काल्पनिक विज्ञान के लेखक विलियम गिब्सन, जिन्होंने इस शब्द ‘साइबरस्पेस’ को बनाया, ने लिखा, “जो व्यक्ति कम्प्यूटरों का प्रयोग करते हैं तथा कम्प्यूटर पर खेल खेलते हैं, वे यह विश्वास कर लेते हैं कि परदे के पीछे भी एक प्रकार की वास्तविक दुनिया है, ऐसी दुनिया जिसे तुम जानते हो कि वह है, लेकिन उसे पूर्णतः स्पर्श नहीं कर सकते।” कम्प्यूटर पर्दे के पीछे एक अन्य स्थान का भ्रम शायद सबसे अच्छा प्रमाण है, जो साइबरस्पेस के वास्तविक अस्तित्व का बोध कराता है। सेंडी स्टोन बताते हैं कि साहित्यिक कल्पनाओं में वर्णित साइबरस्पेस अभी तक अस्तित्व में नहीं आया है। विज्ञान के काल्पनिक उपन्यासों में साइबरस्पेस में शारीरिक रूप से जिंदगी बिताई जा सकती है।
यह वैद्युत तरीके से पैदा की गई एक वैकल्पिक वास्तविकता है, जो मस्तिष्क के सीधे संपर्क से आई है अर्थात यहां चित्रित व्यक्ति अपने शारीरिक शरीर से अलग हुए, ‘सामान्य’ स्थान में स्थित है। ‘सामान्य’ स्थान के भौतिकी के नियमों को साइबरस्पेस के लिए लागू करने की जरूरत नहीं है, हालांकि कुछ प्रयोगात्मक नियमों को सामान्य स्थानों में लागू किया जा सकता है, जैसे-साइबरस्पेस के रेखागणित को कार्टे के अधिकतर वर्णनों में माना गया है। साइबरस्पेस के पुनः चित्रित शरीर का ‘मूल’ शरीर प्रमाणकर्ता स्रोत है-‘सामान्य’ स्थान में जिसकी शारीरिक रूप से उपस्थिति नहीं है, ऐसे किसी व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं होता।
लेकिन मृत्यु सामान्य अथवा साइबरस्पेस में वास्तविकता है, क्योंकि यदि साइबरस्पेस में कोई व्यक्ति मरता है तो सामान्य स्थान में भी वह शरीर मरता है तथा इसी प्रकार जब साइबरस्पेस में कोई जीता है तो शरीर भी जीवित रहता है। आभासी समुदायों को समझना-आभासी समुदाय के विचार को प्रचलित करने का श्रेय हावर्ड रेनगोल्ड को जाता है। जब वाणिज्य के लिए इंटरनेट विश्वव्यापी वेब के रूप में उपलब्ध हुआ, जिसमें संसार भर में इसकी ज्यादा अधिगम्यता तथा प्रयोग बढ़ा, तो कृत्रिम रूप से प्रतीयमान समुदाय की इस धारणा को उत्तेजित किया गया, लेकिन 1990 के पूर्वार्द्ध में इस पर बहुत ज्यादा वार्ताएं एवं विवाद हुए।
साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि आभासी समुदाय की धारणा उन व्यक्तियों के विषय में है, जो अनेक ऑनलाइन तकनीकों के माध्यम से उनके बीच स्थापित किए सामान्य मुद्दों एवं हितों में विद्यमान होते हैं। आभासी समुदायों को दर्शाने वाले समर्थक सामान्यतः आभासी समुदायों का वर्णन इस प्रकार करते हैं, “सामाजिक समूहन जो नेट से पैदा होते हैं, जो समुचित रूप से लोगों द्वारा आगे बढ़ाए जाते हैं।
लम्बी सार्वजनिक वार्ताएं, जिन्हें मानवीय संवेदनाओं के साथ किया जाता है, साइबरस्पेस में व्यक्तिगत संबंधों का एक जाल बना लेते हैं।” नसीम वाटसन का मानना है कि व्यक्तियों के उन समूहों को जो एक-दूसरे से ऑनलाइन अन्त:क्रिया कर रहे हैं ‘आभासी’ समुदाय का नाम देना ऐसा प्रतीत होता है मानो ये समुदाय ‘वास्तव में एक समुदाय नहीं हैं। ‘आभासी’ तथा ‘वास्तविक’ समुदायों के मध्य अंतर करना न्यायसंगत नहीं है। वाटसन का मानना है कि ऑनलाइन समुदाय, ऑफलाइन समुदायों से अलग है, लेकिन उनका मत है कि वे भी समुदाय हैं। वाटसन समदाय के रूपक को ऑनलाइन अन्त:क्रिया करने वाले समहों के लिए स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के प्रयोग का भी परीक्षण करते हैं।
वे नील पोस्टमैन के आभासी समुदाय की धारणा के आलोचक हैं, जिनका संकेत इस ओर है कि ऑनलाइन समुदाय ‘वास्तविक’ से ‘आभासी’ को अलग करने की जानकारी देते हैं। पोस्टमैन ऑनलाइन समुदाय के संदर्भ में समुदाय की धारणा का प्रयोग गलत मानते हैं, क्योंकि ऑनलाइन समुदाय पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं होता, जैसा कि वास्तविक समुदायों में होता है। उनमें एक सामान्य बंधन के जरूरी लक्षण की कमी होती है। सामान्य अर्थों में, ऑनलाइन समुदाय में, ज्यादातर समुदायों का सामान्य बंधनों में मिलने अथवा बाध्यता का अभाव होता है। ऑनलाइन समह का वास्तविक जीवन समहों से किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं होता इस बात का खंडन किया जा सकता है।
पोस्टमैन का मानना है कि इंटरनेट द्वारा ऑनलाइन अन्त:क्रिया के तरीकों पर एक नजदीकी दृष्टिपात करने से समुदायों की संरचना एवं उनमें बदलावों में इंटरनेट के विद्वानों को लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सुधार के चित्रण एवं सहयोग करने में सहायता मिल सकेगी। हममें से जो कुछ एक निश्चित सामाजिक-आर्थिक वर्ग में आते हैं, जिनके पास भाषा, शिक्षा, प्रतिभा तथा आपस में जोड़ने के लिए जरूरी वस्तुओं की उपलब्धता है, ऑनलाइन सामुदायिक संरचनाओं को पहले से ही मान लेते हैं। वे उन कार्य-वातावरण जिनमें इस बात का विकल्प नहीं दिया जाता कि वे इंटरनेट संबद्धता तथा ऑनलाइन उपलब्ध सूचना एवं सामाजिक स्थान का प्रयोग करें अथवा न करें।
जिस प्रकार सरलता से रेडियो, दूरदर्शन, दूरभाष तथा मोबाइल/सेलफोन हमारी दिनचर्या के लिए जरूरत बन चुके हैं, उसी प्रकार ऑनलाइन होना भी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है। स्वतंत्रता का उत्सव तथा साइबरस्पेस से सीमाओं का विलय यह अनुभव कराता है कि साइबरस्पेस केवल आदर्श में विशेषाधिकार युक्त वर्गों के लिए संभव है, जो उन्हें विश्व के उन अन्य अल्प अधिकारों से युक्त व्यक्ति से अलग करता है, जो दैनिक कष्ट एवं अभाव में जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनसे इन्हें अलग करता है। आधुनिक रूप से साइबरस्पेस को एक आश्चर्यजनक भूमि कहा गया है, जहां जैसे ही हम स्वयं को एक आवरण तथा प्रतिमानों में परिवर्तित करते हैं, वैसे ही वहां लिंग, जाति तथा अन्य अलगाव के प्रतीक समाप्त हो जाते हैं।
द्विआधारी तर्क जो आभासी समुदाय को अवास्तविक मानता है और जो ऑफलाइन की दैनिक वास्तविकता से दूर है, गलत चित्रण भी करता है। आभासी समुदायों के लिए इसके अलावा इस साहित्यशास्त्र से यह संकल्पना स्पष्ट होती है कि समुदाय की संरचना व्यक्ति विशेष से शुरू होती है तथा तकनीकी सोच के व्यक्तिगत अलंकृतशास्त्र में निहित होती है। यह स्पष्ट है कि यह साइबरस्पेस एवं ऑनलाइन तकनीक की आदर्शवादी एवं निश्चयवादी अवधारणाएं इस तथ्य को भूल जाती है कि व्यक्ति उन रीतियों, सत्ता संगठनों तथा नियमों से बंधे होते हैं, जो इन समुदायों को बनाते हैं।
जब भी हम ऑनलाइन क्रियाकलाप की चर्चा करते हैं तो ‘वास्तविक’ तथा ‘आभासी’ में विभाजन विद्यमान होता है। आभासी जीवन बनाम वास्तविक जीवन के दोहरेपन को दूर करने के लिए, डॉन स्लेटर सुझाव देते हैं कि इसकी जरूरत इसलिए है कि ऑनलाइन संबंधों और पहचानों की प्रकृति के विषय में प्रश्न करने से हटकर ऑनलाइन पर व्यक्ति क्या करते हैं?’ स्लेटर सामाजिक संबंधों के ज्यादा समृद्ध एवं एकीकृत विवरण की मांग करते हैं, जो मानवजाति संबंधी अध्ययन पैदा करते हैं।
यदि ऑफलाइन तथा ऑनलाइन के विभाजन को मान लिया जाए तो उस सामाजिक ऑनलाइन अन्त:क्रिया का क्या होगा, जो ऑफलाइन में चलती है? स्थायी रूप से होने वाले ऑफलाइन संपर्क का उन व्यक्तियों के मध्य प्रतीयमान अन्त:क्रिया पर क्या प्रभाव पड़ता है?
प्रवासी समुदायों के आभासी समुदाय इस प्रकार भौतिक एवं विशृंखलित हैं, जिनके परिणाम सारयुक्त हैं। इसके अलावा वे न केवल सामाजिक एवं अंकीय स्थान का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि सांस्कृतिक संघर्ष का एक संपर्कीय क्षेत्र हैं।
भारतीय अंकीय (Digital) डायस्पोरा- संसार के प्रवासी समुदाय वास्तविक रूप से अनेक आभासी समुदायों के निर्माण के लिए भूमण्डलीय अंत:क्रिया के अवसरों को जिम्मेदार मानते हैं।
प्रश्न उठता है कि इस प्रकार की अंत:क्रिया को बनाने में सफल तथा ऑनलाइन नेटवर्क द्वारा उन्हें सुरक्षित रखने के क्या निहितार्थ हैं? उनके द्वारा किस प्रकार की सांस्कृतिक रीतियों की पुनरुत्पत्ति की जाती तथा कायम रखी जाती है। किस प्रकार के इतिहास को ग्रहण किया जाता है? अंकीय प्रवासी समुदाय किस प्रकार सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक भूतकाल एवं भविष्यों की पुनः कल्पना करते हैं? उन देशों की भावी पीढ़ियों का क्या भविष्य हो सकता है,
जहाँ इस प्रकार के अंकीय प्रवासी समदाय अपना घर बना लेते हैं। इसके अलावा इंटरनेट के आधार पर अंकीय मीडिया द्वारा प्राप्त तकनीकी अन्तरापृष्ठ इस प्रकार की अस्मिताओं तथा सामुदायिक व्यवहारों की पुनरुत्पत्ति को कैसा स्वरूप प्रदान करती है?
अमित राय (1995) का मानना है कि आप्रवासियों एवं अन्य प्रवासी सामुदायिक जनसंख्या द्वारा निर्मित किए गए ऑनलाइन समुदाय, उसी प्रकार की चिन्ताएं तथा विचारधाराएं पैदा करते हैं, जो उन प्रवासी समुदायों के अंदर के दृश्य हैं, जो ऑनलाइन नहीं हैं। उनका मानना है कि इन समुदायों की अति उद्धरण की मनोवैज्ञानिक तार्किक संरचना दिखाई देती है, जबकि वे अति उद्धरण की मूलभूत लोकतंत्रात्मक अथवा वैद्युत माध्यम की शक्ति पर साधारणतः सन्देह करते हैं, लेकिन हम यह विश्वास करते हैं कि इन अनेक प्रकार के अति उद्धरणों की अन्त:क्रियाओं को कम-से-कम उन विशेषाधिकारयुक्त व्यक्तियों, जो इन माध्यमों तक पहुंचने की शक्ति रखते हैं, उनके लिए संभव बना सकते हैं। यह याद रखना जरूरी है कि आभासी समुदाय अमूर्त रूप में है, लेकिन फिर भी वे वास्तविक समाजों के तथा अनुमानित समुदायों के विशृंखलित प्रतिरूप हैं।
इस सन्देह के बावजूद कि यह एक शुद्ध उद्धरण है न कि कोई मानवीय आकृति, जिसमें ये उद्धरण निकलते हैं, हम सभी शुद्ध साइबरस्पेस में नहीं फैले हैं। हम अमूर्त रूप व्यक्ति नहीं हैं तथा हम आभासी समुदायों के मध्य अन्त:क्रिया करते हैं, तब भी हम विशृंखलित अर्थव्यवस्थाओं तथा असमान स्थितियों में रहते हैं, इन्हें हमारे द्वारा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अन्त:क्रियाओं के प्रमुख संरचना के तहत ही बनाया जाता है। साथ ही हम उन ‘विशृंखलित विषयों’ के संदर्भ में बात कर रहे हैं, जो अपने उद्धरण की प्रकृति और विषय से जाने जाते हैं।
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