मानव जाति की कोई भी क्रिया उत्पादन से संबंधित होती है। मनुष्य जब कोई भी काम करता है तो उसके पीछे कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं। वह उद्देश्य के माध्यम से अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करता है। ऐसा ही तत्व भारत की वैदेशिक नीति के साथ संलग्न है। बिना किसी उद्देश्य के किसी भी नीति का अवलम्बन करना और उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना उद्देश्य रहित क्रिया नहीं कही जा सकती है। भारत के संदर्भ में भी यह बात सटीक लगती है। स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही भारतीय नेताओं ने भारत की वैदेशिक नीति का सिद्धांत और उद्देश्य निश्चित कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के बाद वैदेशिक नीति के अंतर्गत उसी सिद्धांत के द्वारा उद्देश्य की प्राप्ति का प्रयत्न किया गया।
विभिन्न विद्वानों, समालोचकों तथा विश्लेषकों ने भारत की वैदेशिक नीति का समय-समय पर विश्लेषण किया और इसका मूल्यांकन करके उपयोगी तथ्यों को स्पष्ट किया। भारत की वैदेशिक नीति का मुख्य लक्ष्य राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता और बाह्य सुरक्षा की वृद्धि करना था। भारत लंबे समय से पराधीनता का जीवन जीने और औपनिवेशिक शासन के द्वारा शोषित होने के बाद 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ। इसलिए उसके समक्ष यह महत्त्वपूर्ण समस्या थी कि भविष्य में अपनी स्वतंत्रता को कायम कैसे रखे अथवा किसी विदेशी के साथ अपने अस्तित्व के संबंध में समझौता न करे या किसी भी राष्ट्र को यह अवसर प्रदान नहीं करे कि वह राष्ट्र उसके आंतरिक और बाह्य व्यवहारों को नियंत्रित एवं निर्देशित करे।
भारत की वैदेशिक नीति एक सफल वैदेशिक नीति के रूप में प्रदर्शित हुई, जिसके सहयोग से भारत किसी भी विदेशी आक्रमण को रोकने में सक्षम हो सकता है अथवा उसका प्रतिरोध भी कर सकता है। भारत की वैदेशिक नीति राष्ट्रीय सुरक्षा को बनाये रखने के साथ-साथ विश्व स्तर पर संयुक्त रूप से दूसरे राष्ट्रों के साथ मिलकर अन्य राष्ट्रों की सुरक्षा को भी अपने-आप में समेट लेता है, अर्थात् यह कहा जा सकता है कि भारत की वैदेशिक नीति का मूल तत्त्व यह नहीं रहा है कि यह केवल अपने ही राष्ट्र की सुरक्षा करे और दूसरे राष्ट्रों को असुरक्षित रहने के लिए बाध्य करे। भारत की हमेशा से यह नीति रही है कि यह विश्व के सभी राष्ट्रों के साथ सहयोगात्मक भावना के आधार पर मित्रतापूर्ण संबंध की स्थापना करे और खासकर पड़ोसी राज्यों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध, सहयोगात्मक भावना और प्रेमपूर्ण आचरण को महत्त्व दे।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि भारत की वैदेशिक नीति का मूल तत्त्व जहाँ एक तरफ सहयोग, मित्रता एवं प्रेम के बंधन पर टिका है, वहीं दूसरी तरफ वैदेशिक नीति के अंतर्गत यह विश्व शांति को भी स्थापित करने का प्रयल करता रहा है। आधुनिक युग में भारत ने दो विश्व-युद्धों को देखा और उसकी विभीषिका में विश्व के विभिन्न देशों को जलते हुए भी देखा। इसलिए उसका मुख्य उद्देश्य है युद्ध की विभीषिका से मानव जाति को बचाना और विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं और मतभेदों के बावजूद भी सभी राष्ट्रों के साथ सहयोग स्थापित करते हुए विश्व में शांति के परिवेश को स्थापित करना। इसी उद्देश्य को लेकर भारत स्वतंत्रता के बाद से अब तक विश्व राजनीति में प्रयत्नशील रहा है।
भारत लंबे समय तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक अंग रहा है और साम्राज्यवादी शोषण से इसको विस्तृत अनुभव एवं ज्ञान प्राप्त हुआ तथा महात्मा गाँधी के नेतृत्व में लंबे समय के अहिंसात्मक संघर्ष के बाद 1947 में स्वतंत्र हुआ। इसलिए भारत स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद रूपी कलंक को इस पृथ्वी से हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। इसलिए भारतीय वैदेशिक नीति के मूल तत्त्व के रूप में रंगवाद, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की समाप्ति का लक्ष्य निर्धारित रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने अपने इसी विचार का अवलम्बन करते हुए अफ्रीका और एशिया के विभिन्न देशों में स्वतंत्रता के लिए चल रहे राष्ट्रीय संघर्षों का तहेदिल से समर्थन किया है। भारत की बैदेशिक नीति के अंतर्गत या तत्व ची निहित रहा है कि वह सचीवानों की सम्प्रभुता, स्वतंत्रता एवं अखण्डता का सम्मान करे और सभी राष्ट्रों को समान अधिकार की प्राप्ति में सहयोग दे तथा बिना किसी भेदभाव के सभी राष्ट्रों को समान अधिकार की श्रेणी में प्रतिष्ठित करे।
इसी नीति के कारण भारत समय-समय पर दक्षिण अफ्रीका में चल रही रंगभेद नीति का व्यापक रूप से विरोध करता रहा है और भारत स्वतंत्रता के समय से ही यह प्रयत्न करता रहा है कि भारतीय मूल के नागरिक जिस किसी भी देश में रहें, उन्हें समानता के आधिकार से संपन्न किया जाय और उनकी रक्षा कानून के शासन के अंतर्गत की जाय। भारत ने अपनी वैदेशिक नीति के इन उद्देश्यों का पालन स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही प्रारंभ कर दिया था। हिटलर ने जब चेकोस्लोवाकिया और मुसोलिनी ने जब इथियोपिया पर आक्रमण किया तब भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने इसकी कड़े शब्दों में निंदा की तथा स्वतंत्रता के बाद भी जब सोवियत रूस ने चेकोस्लोवाकिया, हंगरी आदि देशों में बलपूर्वक साम्यवादी शासन की स्थापना की, तो भारत ने इसका विरोध किया।
अमेरिका ने जब वियतनाम और कोरिया में युद्ध का ताण्डव प्रारंभ किया, तब भी भारत ने विश्व स्तर पर विरोध के स्वर को उजागर किया। भारतीय वैदेशिक नीति का मूल उद्देश्य यह रहा है कि पराधीन और शोषित राष्ट्रों को स्वतंत्र किया जाय तथा आर्थिक क्षेत्र में उन्हें पर्याप्त सहयोग देकर विकास के लिए प्रोत्साहित किया जाय। इसीलिए भारतीय वैदेशिक नीति औद्योगिक क्षेत्र में विकसित विभिन्न राष्ट्रों के साथ मधुर संबंध स्थापित करती रही है। इसके पीछे भारतीय वैदेशिक नीति का यह लक्ष्य रहा है कि औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्रों से भारत को उद्योगों के विस्तार में पर्याप्त सहयोग मिल सके। भारत की वैदेशिक नीति का मूल उद्देश्य और लक्ष्य विदेशी सहयोग के द्वारा केवल अपने ही राष्ट्र की उन्नति एवं संपन्नता प्राप्त करना नहीं है, वरन् यह नव-स्वतंत्र और नवोदित राष्ट्रों के आर्थिक विकास और गरीबी से मुक्ति तथा न्याय संगत आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था की स्थापना भी रहा है।
भारत हमेशा से इस कार्य में प्रयत्नशील रहा है कि नवोदित स्वतंत्र राष्ट्रों को दरिद्रता, भुखमरी, अशिक्षा, बीमारी आदि से त्राण मिल सके और वे राष्ट्र स्वतंत्र रूप से आत्मनिर्भर होकर वैदेशिक क्षेत्र में अपनी स्वतंत्र वैदेशिक नीति का संचालन कर सकें। भारतीय वैदेशिक नीति अंतर्राष्ट्रीय जगत में स्वस्थ और समानता के आधार पर नयी परंपरा को विकसित करने में समर्थ हुई है। इसी कारण से विश्व के विभिन्न देश भारतीय वैदेशिक नीति के प्रशंसक रहे हैं और इसी नीति का अनुसरण भी करते रहे हैं। भारत वैदेशिक क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्रों के साथ बल प्रयोग के सिद्धांत का विरोधी रहा है तथा राष्ट्रों के बीच उत्पन्न हुए मतभेदों को समाप्त करने और वैश्विक समस्याओं का समाधान करने के लिए विचार-विमर्श के द्वारा शांतिपूर्ण साधनों के प्रयोग का अटल समर्थक रहा है। भारत विश्व राजनीति में राष्ट्रों के बीच मतभेदों को मिटाने और सभी राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण एवं सौहार्दपूर्ण परिवेश की स्थापना का प्रबल समर्थक रहा है।
विश्व की विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए भारत ने हमेशा से अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के प्रति निष्ठा प्रदर्शित की है और सक्रिय सहयोग देकर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के पालन पर विशेष रूप से बल दिया है। भारत स्वतंत्रता के बाद से ही विश्व संगठन का समर्थक रहा है। भारत इस बात को जानता है कि विश्व संगठन अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सहयोग की स्थापना का एक महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इसीलिए इसके सहयोग के द्वारा विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है और अविकसित राष्ट्रों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जा सकता है। विश्व संगठन अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में नि:शस्त्रीकरण के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इसलिए स्वतंत्रता के बाद शीघ्र ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त की।
1954 में भारत ने चीन के साथ समझौता करके पंचशील के सिद्धांतों को विश्व स्तर पर प्रचारित तथा प्रसारित किया। पंचशील के अंतर्गत अनाक्रमण, अहस्तक्षेप, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व आदि की भावना को वैदेशिक नीति के रूप में स्पष्ट किया गया है। ऊपर वर्णित तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि भारत हमेशा से विश्व राजनीति में शांति का समर्थक राष्ट्रों के साथ मित्रता, सहयोग, सहअस्तित्व और अनाक्रमण एवं अहस्तक्षेप की नीति का पालन करता रहा है तथा इसी परिवेश में यह लोकतांत्रिक शासन पद्धति को प्रश्रय देता रहा है।
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