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अधिगम तथा विकास को परिभाषित कीजिए तथा अधिगम की प्रक्रिया के महत्वपूर्ण तत्यों की चर्चा कीजिए।

 अधिगम और विकास का अर्थ-अधिगम और विकास दोनों ही संगठन के प्रमुख अंग हैं। अधिगम और विकास के बिना संगठन की क्रियाओं का संचालन और विकास सम्भव नहीं है। आगे बढ़ने से पहले अधिगम और विकास के अर्थ को समझ लेना सार्थक होगा।

अधिगम को परिभाषित करते हुए बुरमोइन एवं होजसन ने कहा है, “अधिगम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति ने अपने पूर्व-जीवन काल में जो भी ज्ञान ग्रहण किया होता है, उसकी गुणवत्ता में परिवर्तन ला सकता है।” अर्थात अधिगम द्वारा व्यक्ति के प्राप्त ज्ञान में और अधिगम में गुणात्मक वृद्धि की जा सकती है। इसी तरह अधिगम को परिभाषित करते हुऐ रिबॉक्स एवं पॉपलेटन ने कहा है, “जीव में ग्रहण करना एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य बदलते परिवेश के अनुसार सामंजस्य बैठाने की क्षमता उत्पन्न करता है, जो अनुभव से संबंधित होती है. न कि परिपक्वता से।”

यानि अधिगम द्वारा व्यक्ति अपने बदलते हुए परिवेश के साथ सामंजस्य बैठाता है, जो उसके विकास के लिए एक अनिवार्य शर्त है। मनोविज्ञान के एक और प्रमुख विद्वान बिन्सटेड का मानना है कि अधिगम केवल एक मानसिक क्रिया या मस्तिष्क से संबंधित क्रिया नहीं है, बल्कि यह शारीरिक क्रियाओं को भी प्रभावित करती है। अधिगम से मनुष्य की भावनाओं और संवेदनाओं का भी विकास होता है।

विकास :- विकास एक ऐसी अवधारणा है. जो सबके लिए महत्त्व रखती है, क्योंकि सभी व्यक्तियों में जीवन को आगे बढ़ाने या विकसित करने की आकांक्षा होती है।

जैसा कि यह सर्वविदित है कि ‘परिवर्तन प्रकृति का नियम है’. उसी तरह यह भी सत्य है कि इस परिवर्तन के साथ मनुष्य को भी बदलना पड़ता है। इस बदलाव में यदि वह सफल होता है, तो वह विकसित कहलाएगा और यदि असफल हुआ तो पिछड़ा हुआ कहलाएगा। परिवर्तन चिर सत्य है, उसे रोका नहीं जा सकता, लेकिन यदि सही प्रयास किए जाएं तो, उसे विकास की दिशा में मोड़ा जरूर जा सकता है|

बदलती हुई परिस्थितियों के साथ संगठन में भी जटिलाएं बढ़ती हैं और इन जटिलताओं को दूर करने के लिए नयी-नयी विधाओं को सीखना आवश्यक हो जाता है। इससे कार्मिकों को अधिगम के नये अवसर प्राप्त होते हैं। अधिगम प्रक्रिया ही संगठन के विकास की दिशा तय करती है। बिना अधिगम के विकास करना सम्भव नहीं है. अतः कहा जा सकता है कि अधिगम विकास का पथ-प्रर्दशक है।

अधिगम और विकास की आवश्यकता :

डालोज के अनुसार. “अधिगम और विकास एक यात्रा है, जो एक जानी-पहचानी दुनिया से प्रारंभ होती है और भ्रम. संकटयुक्त, उतार चढ़ाव, संघर्ष और अनिश्चितता के रास्ते से होती हुई एक ऐसी नयी दुनिया में पहुँचती है जहाँ वास्तविकता में कुछ भी बदला नहीं परन्तु फिर भी सब-कुछ रूपान्तरित हो गया होता है व जीवन का अर्थ बदला हुआ प्रतीत होता है।”

यहाँ डालोज कहना चाहते हैं कि अधिगम एक ऐसी प्रकिया है जो व्यक्ति की मान्यताओं दृष्टिकोणों, विचारों, विश्वासों आदि को नया अर्थ प्रदान करती है। संगठन विशेष में अधिगम और विकास की आवश्यकता को हम निम्नांकित आधारों पर स्पष्ट कर सकते हैं

1. कर्मचारियों को योग्य और कुशल बनाने के लिए अधिगम और विकास की आवश्यकता होती है।

2. अधिकारियों के निर्देशन को अधिक प्रभावी और सक्रिय बनाने के लिए।

3. भावी चुनौतियों और समस्याओं का सामना करने के लिए।

4. संगठन को गतिशील बनाये रखने के लिए।

5. कर्मचारियों के प्रदर्शन में गुणात्मक सुधार के लिए।

6. संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति को सलभ बनाने के लिए।

7. नयी विधाओं. पद्धतियों और तकनीकों को सीखने के लिए।

अधिगम और विकास की ओर उन्मुख होने के लिए संगठन में दो तत्त्वों का होना आवश्यक है-
(1) गुणवत्ता, (2) लोचशीलता।

गुणवत्ता :- इस प्रतिस्पर्धा के दौर में संगठन को बनाए रखने की एक आवश्यक शर्त है-उत्पादन की गुणवत्ता को बनाए रखना। यह बात सभी पर समान रूप से लागू होती है, चाहे वह सार्वजनिक संस्थान हो या फिर व्यक्तिगत या निजी संस्थान। उत्पादन की गुणवत्ता स्थिति कैसी है, प्रतिस्पर्धा का स्तर क्या है आदि। इसके साथ ही उत्पादन की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए कर्मचारी की सुविधाओं और सेवाओं में निरंतर सुधार होना भी आवश्यक है।

संगठन में सुधार प्रक्रिया संपूर्णता में होनी चाहिए। यदि एक भी पक्ष छूट गया, तो वह गुणवत्ता और विकास दोनों को प्रभावित करेगा।  ‘सकल गुणवत्ता प्रबंधन’ में प्रबंधन द्वारा पूरा प्रयास रहता है कि वह उपभोक्ता संतुष्टि पर पूरा ध्यान दे। उपभोक्ता संतुष्टि ही वस्तु की गुणवत्ता के मूल्यांकन का आधार होती है, इसी पर संगठन का विकास और स्थायित्व भी निर्भर करता है।

लोचशीलता :- संगठन में लक्ष्यों की प्राप्ति कठोर कार्य-प्रणाली और अपरिवर्तनीय नीतियों द्वारा सम्भव नहीं है। इसके लिए आवश्यक है कि संगठन लोचशील कार्य-प्रणाली व्यवस्था को अपनाए, जिससे बदलती हुई परिस्थितियों और परिवेश के साथ सामंजस्य आवश्यक है,

परिवर्तन के साथ चलने के लिए गतिशील होना जरूरी है और गतिशीलता के लिए लोचशीलता होना आवश्यक है। अत: ये सब प्रक्रियाएं सम्बन्धित और परस्परनिर्भर हैं।

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