ललित निबंध भाव प्रधान होते हैं, लेकिन इनमें वैचारिकता भी होती है। कुछ निबंधों में भाव और विचार की धारा साथ-साथ बहती है और कुछ निबंध पूरी तरह भाव प्रधान होते हैं। द्विवेदी जी के ललित निबंधों में भाव और विचार बराबर-बराबर निहित हैं। इनमें द्विवेदी जी की विद्वत्ता भी बराबर दिखती है। उनके निबंधों में स्वच्छंदता, सरलता, आडंबरहीनता, घनिष्ठता और आत्मीयता के साथ-साथ उनका वैयक्तिक दृष्टिकोण भी है। निबंध लेखक के विचारों का मूर्त रूप है, अतः उसमें लेखक के व्यक्तित्व की आत्मीयता, विचारों की गंभीरता सहजता आदि भी झलकनी चाहिए।
ललित निबंधों में चिंतन की प्रधानता होती है और लेखक अपने स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार भावों को शामिल करते हैं। इस प्रकार भावना और विचार का सहज समन्वय ललित निबंध की विशेषता है, जो पाठक को द्रवीभूत करने के साथ उसकी बुद्धि को भी प्रेरित करती है। ‘कुटज’ निबंध में भी द्विवेदी जी ने शास्त्र और भाव के मिश्रण से ललित शैली में कुटज का वर्णन करके मानवीय आदर्शों को प्रस्तुत किया है। जीवन की वास्तविकता, कहानी की संवदेना, नाटक की नाटकीयता, उपन्यास की कल्पनाशीलता, गद्य काव्य की भावुकता, महाकाव्य की गरिमा, विचारों की उत्कृष्टता भी ललित निबंध की विशेषताएं हैं।
द्विवेदी जी ने कुटज के वर्णन में उसके जन्म स्थान के वर्णने में भावों और आत्मीयता का परिचय भी दिया है। कुटज की भाषाशास्त्रीय व्याख्या में सिद्धांतों के साथ ही भावों का समन्वय भी किया है। उन्होंने कुट मानवीय चेतना का रूप वकर उससे आत्मीय संबंध भी स्थापित किया है। कुटज को विशिष्ट बनाने के लिए कालिदास के ‘मेघदूत’ का वर्णन करते हैं, जिसमें उन्होंने कुटज के फूल प्रयोग किए थे।
कुटज को वे कठिन समय का साथी कहते हैं। कुटज के बहाने… उन्होंने रहीम की चर्चा भी की है, जिन्हें उनके अनरूप स्थान नहीं मिला और यही हालत कुटज की भी है जिसे अपनी विशिष्टताओं और जिजीविषा के अनुरूप सम्मान नहीं मिला। भाषाशास्त्री होने के नाते द्विवेदी जी ने कुटज की ऐतिहासिकता, प्राचीनता, उत्पत्ति एवं नामकरण पर चर्चा है। कुटज को आदर्श चिंतन का प्रवक्ता मानने के साथ ही जिजीविषा का प्रतीक भी माना है। कुटज की जीवनी शक्ति की चर्चा के द्वारा के अपनी सामाजिक चेतना संबंधी विचारधारा को अभिव्यक्त करते हैं।
ललित निबंध में सहजता-सरलता के साथ विचार और भाव के समन्वय के साश लेख की आत्मीयता जुड़ी होने से इनकी व्यंजना रागाश्रित होती है। ‘कुटज’ भी व्यंजना वाला निबंध है जो पाठक, लेखक और निबंधकार तीनों को एक साथ जोड़े रखता है। कुटज के उत्पत्ति के स्थान और जीने की इच्छा को कहानी के रूप में प्रस्तुत करने में द्विवेदी जी की आत्मीयता भी साफ दिखाई देती है। उन्होंने कुटज को सखा, मनस्वी, मित्र, गाढ़े का साथी कहा है, जिससे उनकी कुटज की विषय-वस्तु के साथ स्थापित एकात्मकता स्पष्ट होती है अन्यथा यह निबंध कुटज के स्थूल विवरण देकर भी पूरा किया जा सकता था।
यह अंतरंगता लेखक के चिंतन प्रवाह के साथ भाषा को भी | गतिमान बनाती है। और रचना के शिल्प को निखारती है। ‘कुटज’ में द्विवेदी जी कुटज के वर्णन में रमे दिखाई दिए हैं। उनकी दृष्टि भाव, उपदेश, जीवनादर्श आदि के रूपों को वर्णित करती है। द्विवेदी का यह कहना कि ‘कुटज मुझे अनादिकाल से जानता है, मैं भी कुटज को पहचानता हूँ।’ ‘यह चिर-परिचित दास्त उनकी एकात्मकता को स्पष्ट करते हैं।
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