ओवेन वारफील्ड ने अपनी पुस्तक ‘Poetic Diction’ में लिखा है कि जब शब्दों का चयन और संयोजन इस प्रकार होता है कि उनका अर्थ सौंदर्य-बोध पैदा कर सके तो उसका प्रतिफल ‘पोएटिक डिक्शन’ होता है।
‘अज्ञेय’ ने भाषा का संस्कार बचपन में ही पाया था। इलियट के समान ‘अज्ञेय’ भी महान् कवि के लिए मस्तिष्क की प्रौढ़ता के साथ-साथ भाषागत प्रौढ़ता आवश्यक मानते हैं और भाषा में अर्थवत्ता को महत्त्व देते हैं।
उनके अनुसार शब्द का महत्त्व अर्थ से कम नहीं है, क्योंकि सत्य शब्दों के सहारे स्वयं बोलने लगता है।
‘अज्ञेय’ मानते हैं कि निरंतर प्रयोग से शब्द अपनी अर्थवत्ता खोते चलते हैं, नये सत्य को पुरानी भाषा व्यक्त नहीं कर सकती “व्यंजना के पुराने साधन पर्याप्त नहीं है। कवि नयी सूझ, नयी उपमाएं, नया चमत्कार भाषा में लाता है।”
अतः शब्द का निरंतर संस्कार होना चाहिए, भाषा को रूढ़िमुक्त होना चाहिए। वे गढ़ी हुई, कृत्रिम भाषा के खिलाफ हैं, क्योंकि उनका मत है कि काव्य की सफलता की कसौटी है उसमें निहित सत्य की अभिव्यक्ति अधिकाधिक पाठकों पर होना और इसके लिए सरल, सहज और सामान्य भाषा आवश्यक है।
‘अज्ञेय’ की काव्य-भाषा में सतत् विकास होता रहा है प्रारंभ में द्विवेदी-युगीन वर्णनात्मक और फिर छायावादी भाषा (तीक्ष्ण अपांग, उच्छ्वसित हृदय) और अंत में खुली हुई संदर्भ युक्त भाषा का प्रयोग दिखाई देता है।
‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’ में जनता की संवादी भाषा है, तो ‘बावरा अहेरी’ में भाषा लोकभाषा के निकट है और ‘आंगन के पार-द्वार’ की भाषा में रहस्यवादी पुट है। विकसनशील होने के कारण भाषा में वैविध्य और लचीलापन है।
‘अज्ञेय’ की काव्य-भाषा को तीन कोटियों में रखा जा सकता है तत्समप्रधान, सामान्य बोलचाल की तथा मिश्रित भाषा :
1 तत्समप्रधान भाषा कवि गंभीर भाव या विचार व्यक्त करते हुए तत्सम शब्दावली का प्रयोग करता है। संस्कृत शब्दावली का प्रयोग करते हुए वह चुने हुए छोटे-छोटे शब्द रखते हैं, अभ्र लख भ्रूचाप-सा नीचे प्रतीक्षा में स्तम्भित निःशब्द उनके विशेषण भी तत्सम हैं, सामान्य भाषा का प्रयोग करते समय उन्होंने आम बोलचाल की शब्दावली अपनाई है। अजेय’ लोक-सम्पक्ति के कवि हैं अतः उन्होंने लोक-भाषा और ग्रामीण शब्दावली (बांगर, ढिग, डांगर भंसाते, पगुराती भैंस) का प्रयोग निस्संकोच किया है।
‘अज्ञेय’ ने अंग्रेजी (रेल, पार्क, बैंच, थियेटर, मोटर) और उर्दू (इलाज, जुदा, जोखिम, सलीब, शौक, फबती, गरेबां) के उन्हीं शब्दों का प्रयोग किया है, जो लोक-प्रचलित हैं।
ब्रजभाषा के शब्द उनके काव्य में अर्थ-सौंदर्य, लयात्मक प्रवाह और संगीत तत्त्व का समावेश कर देते हैं। ब्रजभाषा की क्रियाओं, विशेषणों और संज्ञाओं के प्रयोग से काव्य-भाषा कोमल और मृदुल हो गई है।
इनके प्रयोग ने बौद्धिकता से आक्रांत कविताओं को भी दुरूह से बचा लिया है।
वर्णागम, वर्णलोप, स्वरागम, स्वरलोप कर (फोला, नांध, झोर, कांक्षा, मेघाली, थिर) उन्होंने शब्दों को नई अर्थवत्ता प्रदान की है।
नया अर्थ भरने के लिए उन्होंने नये रूप भी गढ़े हैं, जैसे उन्नित, लाज से ललाकर, झोंप अंधियारा, घटियल, भंसाना, फींचना, झौंसी आदि।
कहीं विशेषण को संज्ञा (लालिमा से लालियां) तो कहीं मुख्य क्रिया का लोप करके नया शब्द गढ़ा गया है, जैसे ‘पोसता है’, ‘अनुकूलो’ आदि।
इन प्रयोगों ने निश्चय ही भाषा को नई अर्थवत्ता प्रदान की है और इससे अनुभूति के मूर्तीकरण की क्षमता बढ़ गई है।
ध्वनि के आधार पर शब्दों का निर्माण उनकी काव्य-भाषा की एक अन्य विशेषता है लुढ़क-पुढक, गड्डमड्ड, पिसना, रिरियाहट, हहर, हरहराते, तिप-तिप, काय-काय, अड़ड़ाना आदि। ‘अज्ञेय’ की मिश्रित भाषा-शैली में विभिन्न भाषाओं के शब्द मिल-जुल कर आए हैं,
मुहावरे के प्रयोग ने उनके कथ्य को अधिक सशक्त और व्यंजक बना दिया है। हिन्दी मुहावरों के अतिरिक्त उर्दू मुहावरों का प्रव.. तो हुआ है, कहीं-कहीं मुहावरों को थोड़ा परिवर्तित भी कर दिया गया है, जैसे कर धुनना, नैन पकना, विष वमन करना, वक्ष पर गोलियां झेलना।
इन प्रयोगों से लाक्षणिकता में वृद्धि हुई है। संदर्भ-विशेष में नए मुहावरे का प्रयोग अर्थ को और अधिक प्रभावपूर्ण बना देता है, जैसे भाषा में साबुन की चिकनाई’ कहकर कवि नागरिकों के चरित्र पर अधिक प्रकाश डाल सका है।
इस प्रकार ‘अज्ञेय’ की भाषा ने नवीन बोध जगाने के लिए एक नया वातावरण तैयार किया है। प्राचीन भाषा को भावों की अभिव्यक्ति
2 सामान्य बोलचाल की भाषा ‘अज्ञेय’ की काव्य-भाषा में सामान्य बोलचाल की भाषा की शब्दावली का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है “घने कुहासे में
3 मिश्रित भाषा इस प्रकार की भाषा में उर्दू-फारसी, अंग्रेजी आदि सभी भाषाओं की शब्दावली का प्रयोग किया गया है, “खोजते हैं जाने क्या? बिछोर सिफर के अंधेरे में बिला-बत्ती सफर भी खूब है।
“सृजन के घर में
4 कहावतों और मुहावरों का प्रयोग जहाँ गद्य-भाषा की सरसता और प्रवाह उपयुक्त कहावतों और मुहावरों के प्रयोग से निखर उठते हैं, वहाँ काव्य-भाषा के संदर्भ में तो उनका प्रयोग और भी अधिक लाक्षणिकता, सरलता और प्रवाह की सृष्टि करता है।
काव्य की वार्णिक और मात्रिक सीमा में बंधी हुई अथवा कहिए मुक्त-छंद में भी अर्थ लय के बंधन में जकड़ी हुई काव्यात्मक पंक्तियों में इनका उपयोग निस्संदेह एक सशक्त लेखनी की अपेक्षा रखता है।
अज्ञेय की काव्य-भाषा में इनका यथावसर पर्याप्त प्रयोग मिलता है। जैसे मुंह चुराना, अंगूठा दिखाना, खिलकर मिलना, आंखों से चूमना, सांचे में ढलना, तनकर रहना, आंखें फूटना, आंचल बचाना, अंटी टटोलना, कमर झुकना, पल्ला छुड़ाना, दामन पाक रखना, फबतियां कसना, मुलम्मा छूटना, आकाश ताकना, उमर के दाग धोना, जमीन कुरेदना कहीं-कहीं उन्होंने एक ही कविता में अनेक मुहावरों का भी प्रयोग किया है, जैसे "कवि तुभ ( नभचारी) मिट्टी की ओर मत देखना गहरे न जाना कहीं, आंचल बचाना सदा दामन हमेशा पाक रखना पंकज-सा पंक में धाक रखना लाज रखना, नाम रखना
‘अज्ञेय’ की भाषा-शिल्प नया तो है ही, उसमें कहीं कृत्रिमता भी नहीं है। जैसा भाव है, भाषा उसी के अनुरूप अपना रूप धारण कर लेती हूँ
भाषागत प्रौढ़ता और वैविध्य के कारण कोई कवि कालजयी बनता है। इस दृष्टि से ‘अज्ञेय’ का कृतित्व कालजयी है।
डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी का मत है, “ भाषा का अधिक से अधिक सतर्क और सर्जनात्मक प्रयोग करके ही अज्ञेय ने अपनी रचना को निखारा है।” ।
‘अज्ञेय’ कविता के लिए छंद, तुक-ताल का बंधन आत्यन्तिक नहीं मानते, फिर भी छन्द को काव्यभाषा की आँख और लय को कविता का प्राण कहते हैं। छंद-प्रयोग की दृष्टि से वह परम्परावादी भी हैं और प्रयोगवादी भी।
‘भग्नदूत’, ‘चिंता’, ‘इत्यलम्’ में उन्होंने परम्परागत छंदों को स्वीकार किया है। पर आगे चलकर कुछ नए छंदों का आविष्कार भी किया है। मुक्त-छंद के क्षेत्र में उन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं।
उन्होंने लोक-गीत, संस्कृत कविता, जापानी कविता (हाइकू) आदि से लय का अन्वेषण कर अपने भाव के अनुरूप छंद की सृष्टि की है। लोकगीत की लय का उदाहरण देखिए,
अज्ञेय का भाषा-शिल्प पर्याप्त नवीनता लिए हुए है। अज्ञेय ने भाषा को नया संस्कार, नई राह और नई दिशा प्रदान की है।
उनके काव्य की भाषा सहज और सार्थक शब्दों से युक्त है। उनमें कहीं बनावट या प्रयत्नसिद्ध गठन नहीं है। जैसा भाव है भाषा उसी के अनुरूप अपना रूप धारण कर लेती है।
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