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जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मेल करो तलवार का पड़ा रहन को म्यान|| हस्ती चढ़िये ज्ञान को ,सहज दुलीचा डारि सवां रूप संसार हैं भूकन दे झक मारी | |

 संदर्भ प्रस्तुत दोहे भक्ति कालीन निर्गुण संत काव्यधारा के कवि कबीरदास द्वारा रचित हैं। पहले दोहे में ज्ञान के आधार पर सज्जन की पहचान की बात सही है। दूसरे दोहे में संसार की आलो की परवाह न करने की बात कही है।

व्याख्या- कबीरदास कहते हैं, सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठा हुआ माना जाता है। साधु से यह कभी नहीं पूछा जाता की वह किस जाति का है उसका ज्ञान ही, उसका सम्मान करने के लिए पर्याप्त है।

जिस प्रकार एक तलवार के मोल का आकलन उसकी धार के आधार पर किया जाता है, न की उसकी म्यान के आधार पर। ठीक उसी प्रकार, एक साधु की जाति भी तलवार के म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार की धार के समान है।

दूसरे दोहे में कबीर ने ज्ञान की तुलना हाथी से की है। यहाँ कवि कह रहा है मनुष्य को इस ज्ञान रुपी हाथी की सवारी गलीचा डाल कर करनी चाहिए।

ऐसा करते वक्त अगर यह समाज अथवा संसार उसकी आलोचना करता है तो मनुष्य को उस आलोचना की परवाह नहीं करनी चाहिए।

मनुष्य का मूल उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति का होना चाहिए। कवि ने भक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने वालों को प्रेरणा दी है कि वह व्यर्थ की आलोचनाओं की परवाह न करें। 

विशेष :

  1. दोहा छंद है
  2. सधुक्कड़ी भाषा है
  3. तत्सम और तद्भव शब्दों का सहज प्रयोग किया गया है ।
  4. लाक्षणिकता से भाव गहनता को प्रकट किया है।
  5. स्वर मैत्री ने गेयता का गुण उत्पन्न किया है।

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