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कबीर की भाषा में निहित व्यंग्य बोध की चर्चा कीजिए।

 कबीर निर्गुण काव्यधारा के सबसे प्रखर कवि माने जाते हैं। जीवनपर्यन्त उन्होंने समाज में जाति, प्रथा, धार्मिक रूढ़ियों, सामाजि असामनता जैसी विसंगतियों को दूर करने का अथक प्रयास किया।

कबीर मूलतः भक्त थे, पर उनकी भक्ति समाज-सापेक्ष थी। वह एकांतिक साधना और उत्थान के प्रेरक न होकर सामाजिक उत्थान के उत्प्रेरक थे।

उन्होंने अपने काव्य में ईश्वर के निर्गुण रूप की आराधना करने का उपदेश दिया तथा भक्ति को धर्म की सीमाओं से मुक्त कर जन-जन में व्याप्त किया।

अपनी इसी साधना पद्धति के लिए उन्होंने उन सभी चिंतकों, विचारकों और संप्रदायों का विरोध किया, जो जन-कल्याण विरोधी थे। 

कबीर जब अपने विरोधी के मत का खंडन करते हैं, तो वे ओजस्वी कवि के रूप में सामने आते हैं। अपने विरोध को प्रकट करने के लिए कबीर ने व्यंग्यात्मक शैली का बहुलता से प्रयोग किया है।

कबीर के व्यंग्य की सबसे विशेषता उनकी निडरता है। जिस युग में धर्म और धार्मिक व्यवहार ही समाज का आधार था, उस युग में कबीर ने धर्म और धार्मिक आडंबरों पर गहरी चोट की।

यह निडरता कबीर में अपनी दार्शनिक मान्यताओं से आई है, जो ईश्वर को निराकार और सर्व शक्तिशाली मानती है, जो ईश्वर को निराकार और सर्व शक्तिशाली मानती है।

कबीर अधार्मिक नहीं थे। ईश्वर में उन्हें गहरी आस्था थी। यही कारण है कि वे ईश्वर के नाम पर फैलाये जा रहे पाखंड की कटु आलोचना करते हैं।

कबीर के काव्य में सहज ज्ञान और भक्ति के विरोध में आने वाली बातों का विरोध दिखाई देता है। इसी विरोध प्रक्रिया को वे व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त करते हैं। वे बहुत सरल तरीके से की भी पाखड का खंडन करते चलते हैं

जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा अंधे ठेलिया, दून्यूँ कूप पंडत॥

अपना विरोध प्रकट करने के लिए कबीर हमेशा उग्र नहीं होते। वे हमेशा अपनी बात सिद्ध करने के लिए तर्क भी नहीं देते, बस अर असहमति व्यक्त कर देते हैं।

कबीर की कविता परिस्थितियों का बयान करती है, उपहास करती है पर कोई अतिरंजना नहीं करती। सहज रूप से गहरा व्यंग्य करती है। उनकी कविता में व्यंग्य अदृश्य रूप से उपस्थित रहता है

कबिरा गरब न कीजिए, ऊँचा देख अवास।
काल परे भुइँ लोटिहैं, ऊपर जमिहैं घास।

इन पंक्तियों में एक चेतावनी है और उपदेश भी। यहाँ व्यंग्य सधा हुआ है। सतही स्तर पर अपने श्रोता से संवाद है। इस संवाद में कहीं कोई व्यंग्य दिखाई नहीं देता, क्योंकि यहाँ कटुता नहीं है।

लेकिन विश्लेषण करने पर उस व्यंग्य को समझा जा सकता है।

मध्ययुग में शास्त्र अध्ययन पंडितों का काम था। निम्न वर्ग को तो वेद-शास्त्र पढ़ने की अनुमति नहीं थी। इस स्थिति में शास्त्र ज्ञानियों के मन में अंहकार आना स्वाभाविक था। 

कबीर ने इस अहंकार पर सीधी चोट की और ऐसे शास्त्रीय ज्ञान की निरर्थकता सिद्ध की। इस तरह कबीर सहज कथन में व्यंग्य का तालमेल करके अपनी बात को संप्रेषित कर देते हैं।

कबीर का व्यंग्य उनके जीवन ज्ञान के भीतर से पैदा होता है। यह व्यंग्य उनका बड़बोलापन नहीं है। यह एक ऐसे कवि का व्यंग्य है, जिसने दुनिया देखी है, दुनिया का दुःख देखा है, उस दु:ख को भोगा भी है, इसलिए उनकी बातों में सच्चाई है जो भोगे हुए यथार्थ से उपजी है

कबिरा नाम बिकावत जहँ तँह, बनियों का संसार।
ठगते और ठगाते देखा, दुनिया का बाजार।।

कबीर अपने आत्म-बल और आत्मिक ज्ञान के आधार पर व्यंग्य करते हैं, इसलिए वे निश्चित स्थिति में निश्चित स्थान पर चोट करते हैं। भीतर और बाहर की असंगति कबीर के लिए असहनीय है और जहाँ इन दोनों में अंतर दिखाई देता है। कबीर वहाँ चोट करते हैं

कबीर भेष अतीत का, करतूति करै अपराध।
बाहरि दीसै साध गति, माँहे महा असाध॥

कबीर की विचारधारा उनके काव्य से ही प्रकट होती है। कबीर अपनी बात कहने पर जोर देते हैं। उनके कथन से उनका विरोध भी स्वतः रेखांकित हो जाता है।

यह कबीर की सामाजिक चेतना है, जो उनके सहज कथनों से व्यक्त हो जाती है। उनकी चेतना का भक्ति के सहज सुलभ मार्ग को जन-जन के लिए उपलब्ध बनाना था, जो काम कबीर ने कभी विरोध द्वारा कभी व्यंग्य द्वारा, उपदेश द्व.. यथासंभव किया है।

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