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सूरदास की काव्य भाषा की विशेषताएं बताइए।

 सूरदास से पूर्व काव्य में प्रायः दो भाषाओं का प्रयोग होता था- अपभ्रंशमिश्रित डिंगल भाषा तथा घुमक्कड़ साधु-संतों की सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी भाषा । सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ की भाषा चलती हुई बोलचाल की ब्रजभाषा है 

कवि ने अपनी प्रतिभा से उसे साहित्यिक भाषा का गौरव प्रदान किया । उनकी भाषा की सर्वप्रमुख विशेषता है उसका भावानुरूपिणी होना बड सहन, स्वाभाविक, प्रवाहमय तथा संगीतमय तो है ही, भावोच्छ्वास के क्षणों में उनके हृदय से निकली भावप्रेरित वाणी स्वतः ही भावों का अनुगमन करती प्रर्तत होती है ।

अतः उसमें सहजता तथा प्रवाह के गुण स्वतः आ गये हैं ।

उद्धव के ज्ञानोपदेश के प्रति सरल स्वभाव वाली गोपियों की सहज प्रतिक्रिया हो, या कृष्ण के विरह में अपनी व्यथा का वर्णन हो, सर्वत्र भाषा सहज तथा सरिता की तरह प्रवाहमयी है :

लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि कैसे छूटै
चंचल चाल, मनोहर चितवनि, बई मुसकान, मंद धुनि गावत
नटवर भेस नंदनंदन कौ वह विनोद गृहवन तैं आवत।

उनकी भाषा में बोलचाल की ब्रजभाषा के शब्दों का प्राधान्य है। अनुनासिकता पर बल देने के कारण वह अधिक कोमल हो गयी है ।

भागवत पर आधृत प्रसंगों में अथवा दृश्य, मुद्रा, आदि का चित्रण करते समय उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों का भी प्रयोग किया है ।

उन्हें अरबी-फारसी शब्दों से भी परहेज नहीं है क्योंकि उनका उद्देश्य तो अपनी बात को सशक्त ढंग से प्रस्तुत करना था, भावों का अंकन करना था । सूरदास के काव्य में लाक्षणिक प्रयोगों के साथ-साथ व्यंजना का विशेष प्रयोग हुआ है विशेषतः गोपियो की व्यंग्योक्तियों में ।

लक्षणा– मधुकर स्याम हमारे चोर
मन हरि लियौ माधुरी मूरति चितै नयन की कोर।

व्यंजना- (क) आयौ घोष बड़ौ व्यौपारी
लादि खेप गुन-ज्ञान-जोग की ब्रज में आय उतारी

(ख) सूर स्याम जब तुमहिं पठायै तब नेकहु मुसकाने।

सूर ने अपने काव्य में मुहावरों का, विशेष रूप से ब्रजप्रदेश में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग कर अपनी काव्य-भाषा को समर्थ तथा सजीव बनाया है ।

कुछ उदाहरण है-गगन के तारे गिनना, एक डार के तोरे, जी में सूल रहना, जरे पर जारना, पवन को भुस बनाना, धतूरा खाये फिरना । 

आंख से संबंधित जितने मुहावरों का प्रयोग सूरदास ने किया है उतना ‘हरिऔध’ के छोड़कर किसी अन्य हिन्दी कवि ने नहीं किया ।

सूर ने लोकोक्तियों का भी खुले-दिल से प्रयोग किया है।

सूर की भाषा भी अत्यंत मधुर है। फिर सूरदास श्रीनाथ जी के मंदिर में प्रतिदिन कीर्तन के समय एकतारे पर अपने रचे पद गाते थे ।

इन पदों का संक्षिप्त आकार, उनकी लयपूर्ण शब्दावली और भावपरिपूर्णता उन्हें गेय बना देती है।इस प्रकार सूरदास का ‘भ्रमरगीत’ अपनी वाग्विदग्धता के कारण सहृदय पाठकों का प्रिय रहा है।

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