हमारे देश में जल संसाधनों के प्रबन्धन का इतिहास बहुत पुराना है।
प्राचीन काल से ही भारतीय भागीरथों ने सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ भारत की जलवायु, मिट्टी की प्रकृति और अन्य विविधताओं को ध्यान में रखकर बरसाती पानी, नदी-नालों, झरनों और जमीन के नीचे मिलने वाले, भूजल संसाधनों के विकास और प्रबन्धन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की थी।
जल संसाधनों से जुड़ा यह प्रबन्धन वर्षा के अधिकांश विमा कक बर्फ स तक लदाय से लेकर दक्षिण के पठार तथा थार के शुष्क मरुस्थल से लेकर अति वर्षा वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की विशिष्ट और स्थानीय परिस्थितियों के लिये उपयुक्त था।
इन सभी स्थानों पर वहाँ की जलवायु और पानी अथवा बर्फ की उपलब्भता को दृष्टिगत रखते हुए असा सूचक, उसके निस्तार और सिंचाई में उपर्याग के तौर-तरीके खोजे गए थे। तथा समय की कसौटी पर खरी विधियाँ विकसित की गई थीं।
इन उपलब्धियों के पुल प्रमाण देश के कोने कोने में उपतम्भ है। वस्तुतः ये प्रमाण भारतीय भागीरथों के उन्नत ज्ञान दूरदृष्टि और परिस्थितियों की बेहतरीन जानकारी को दशांत है तथा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक हैं।
जल प्रबन्धन का पहला प्रमाण सिंधु पारी में खुदाई के दौरान मिला। धौराबीरा में अनेक जलाशमों के प्रमाण भी मिले हैं। इस क्षेत्र में बाढ़ के पानी की निकासी की बहुत ही अच्छी व्यवस्था की गई थी।
इसी प्रकार कुएं बनाने की कला का विकास भी हड़प्पा काल में हुआ था। इस क्षेत्र में हुई खुदाई तथा सर्वेक्षणों से विदित हुआ है कि वहाँ हर तीसरे मकान में कुआं था।
ईसा के जन्म से लगभग 300 वर्ष पूर्व कच्छ और बलूचिस्तान के लोग बाँध बनाने की कला से परिचित थे। उन्होंने कंकड़ों और पत्थरों की सहायता से बहुत ही मजबूत बाँध बनाए थे और उनमें वर्षाजल को संरक्षित किया था
बाँधों में संरक्षित यह पानी पेयजल और सिंचाई की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये काम में लाया जाता था और लोग बांध में एकत्रित पानी के प्रबन्धन में दक्ष थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य (ईसा से 321-297 वर्ष पूर्व) के कार्यकाल में भारतीय किसान सिंचाई के साधनों, यथा-तालाब, बाँध इत्यादि से न केबल परिचित था बरन वर्षा के लक्षण, मिट्टी के प्रकार और जल प्रबन्धन के तरीकों को भी अच्छी तरह से जानता था।
उस काल के लोग बाढ़ नियंत्रण के कार्य से भी अच्छी तरह परिचित था उन्होंने इसा के जन्म से एक शताब्दी पूर्व इलाहाबाद के पास गंगा की बान से बचने के लिये नहरों और तालाबों की एक दूसरे से जुड़ी संरचनाएँ बनाई थीं
इन संरचनाओं के कारण गंगा की बाल का अतिरिक्त पानी कुछ समय के लिये इन नहरों और तालाबों में एकत्रित हो जाता था। इस प्रणाली के अवशेष शृंगवेरपुरा में प्राप्त हुए।
पारम्परिक जल संरक्षण प्रणालियों की प्रासंगिकता- जल संचय और प्रबन्धन का चलन हमारे यहाँ सदियों पुराना है।
राजस्थान में खड़ीन, कुंड और नाडी, महाराष्ट्र में बन्धारा और ताल, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बन्धी बिहार में आहर और पइन, हिमाचल में कुहल, तमिलना में एरी, केरल में सुरंगम, जम्म क्षेत्र के काठी इलाके के पोखर, कर्नाटक में कट्टा पानी को सहेजने और एक से दूसरी जगह प्रवाहित करने के कुछ अति प्राचीन साधन थे, जो आज भी प्रचलन में हैं।
पारम्परिक व्यवस्थाएँ उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और संस्कृति की विशिष्ट देन होती है, जिनमें उनका विकास होता है। वे न केवल काल की कसौटी पर खरी उतरी हैं, बल्कि उन्होंने स्थानीय जरूरतों को भी पर्यावरण में तालमेल रखते हुए पूरा किया है।
आधुनिक व्यवस्थाएँ जहाँ पर्यावरण का दोहन करती हैं. उनकी विपरीत यह प्राचीन व्यवस्थाएँ पारिस्थितिकीय संरक्षण पर जोर देती है। पारम्परिक व्यवस्थाओं को अनन्त काल से साझा मानवीय अनुभवों से लाभ पहंचता रहा है और यही उनकी सबसे बड़ी शक्ति है।
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