लोहे की प्राचीनता के सम्बन्ध में साहित्यिक उल्लेखों की पुष्टि पुरातात्विक प्रमाणों से होती है। अहिच्छत्र, अतरजीखेड़ा, आलमगीरपुर, मथुरा, रोपड़, आवस्ती, काम्पिल्य भादि स्थलों के उत्खननों में लौह युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
इस काल का मानव एक विशेष प्रकार के मृद्भाण्डों का प्रयोग करता था जिन्हें चित्रित धूसर भाण्ड कहा गया है। इन स्थानों से लोहे के औजार तथा उपकरण यथा तीर, भाला, खुरपी चाकू, कटार, बसुली आदि मिलते हैं
अतरंजीखेड़ा की खुदाई से धातु शोधन करने वाली भट्टियों के अवशेष मिले हैं। इस संस्कृति का काल ई.पू.1000 माना गया है।
पूर्वी भारत में सौनपुर, चिरांद आदि स्थानों पर की गई खुदाई में लोहे की बर्छिया, छैनी तथा कीलें आदि मिली हैं जिनका समय ई.पू.800 से ई.पू.700 माना गया है।
लौह कालीन प्रारंभिक बस्तियां
सिन्धु- गंगा विभाजक तथा ऊपरी गंगा घाटी क्षेत्र- चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति इस क्षेत्र की विशेषता है। अहिच्छत्र, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोहे, काम्पिल्य, जखेड़ा आदि से इस संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
चिधित धूसर भाण्ड एक महीन चूर्ण से बने हुए हैं। से चाक निर्मित हैं। इनमें अधिकांश प्याले और तस्तरिया हैं। मृद्भाण्डों का पृष्ठ भाग चिकना है तथा रंग भूसर से लेकर राख का वर्ग के बीच का है।
खेती के उपकरणों में जखेड़ा में लोहे की बनी कुदाली तथा हसिया प्राप्त हुई हैं। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अन्य समस्त क्षेत्रों में लोहे की वस्तुएं मिली हैं। अतरंजीखेड़ा से लोहे की 135 वस्तुएं प्राप्त की गई हैं।
हस्तिनापुर तभा अतरंजीखेड़ा में उगाई जाने वाली फसलों के प्रमाण मिले हैं। हस्तिनापुर में केवल चावल और अजरंजीखेड़ा में गेहूँ और जौ के अवशेष मिले हैं। हस्तिनापुर से प्राप्त पशुओं की हड़ियों में घोड़ी हड्डियां भी हैं।
2 मध्य भारत- मध्य भारत में नागदा तथा एरण इस सभ्यता के प्रमुख स्थल है। इस युग में इस क्षेत्र में काले भाण्ड प्रचलित थे। पुराने ताम्रपाषाण युगीन तत्त्व इस काल में भी प्रचलित रहे।
3 इस स्तर से 112 प्रकार के सूक्ष्म पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। कुछ नए मुद्भाण्डों का भी इस युग में प्रचलन रहा। पर कच्ची इंटों से बनते थे। ताम्बे का प्रयोग कोटी वस्तुओं के निर्माण तक सीमित था।
नागदा से प्राप्त लोहे की वस्तुओं में बुधारी, सुरी, कुल्हाड़ी का खोल, चम्मच, चौड़े फलक बाली कुल्हाड़ी, अंगूठी, कील, तीर का सिरा, भाले का सिरा, चाकू, दरांती इत्यादि सम्मिलित हैं। एरण में लोहयुक्त स्तर की रेडियो कार्यन तिथियां निर्धारित की गई हैं जो ई.पू.100 से ई.पू. 800 के बीच की है।
मध्य निम्न गंगा क्षेत्र- इस क्षेत्र के प्रमुख स्थल पाण्डु राजार ढिबि, महिषदल, चिरण्ड, सोनपुर आदि हैं। यह अवस्था पिछली ताम्र-पाषाण-कालीन अवस्था के क्रम में आती है, जिसमें काले-लाल मृद्भाण्ड देखने को मिलते हैं।
लोहे का प्रयोग नई उपलब्धि है। महिषदल में लौहयुक्त स्तर पर सूक्ष्म पाषाण उपकरण भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। यहाँ से धातु-मल के रूप में लोहे की स्थानीय ढलाई का प्रमाण मिलता है। महिषदल में लोहे की तिथि ई. पू. 750 लगभग की है।
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