ऋग्वैदिक काल
अर्थव्यवस्था-प्रारम्भिक वैदिक काल में पशुपालन के महत्त्व का ऋग्वेद साक्ष्यों की काफी बड़े स्तर पर वर्णन हुआ है। अग्वेद में बहुत-सी भाषागत अभिव्यक्तियां गाय (गी) से जुड़ी हैं। इस काल में संघर्ष एवं लड़ाईयों के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया था वे थे गिविष्ट, गवेशना, गवयत आदि।
प्रथम शब्द का अर्थ है गाय की खोज करना। ये शब्द स्पष्ट करते हैं कि पालतू पशुओं पर अधिकार समुदायों का होता था। कभी-कभी इसे लेकर कबीलों के बीच युद्ध छिड़ जाते थे।
ऋग्वेद में पानि शब्द का प्रयोग हुआ जो वैदिक जनों के शत्रु थे। आर्यों के धन विशेषकर गायों को पर्वतों तथा जंगलों में छिपा लिया जाता था। इन पशुओं को छुड़ाने के लिए वैदिक देवता इन्द्र की पूजा की जाती थी।
यह भी बताते है कि पानी का अपहरण किया जाता था पिमुखिया को गौपति कहा जाता था, जो गायों की | रक्षा करता था। ऋग्वेद में गोधुली शब्द का प्रयोग किया गया है। पुत्री को दुहिता कहा गया है।
ये सारे शब्द गौ से बना हुए हैं और इससे लगता है कि ऋग्वजमातीन जीयम का महत्वपूर्ण काम मी मालमा है। गोशाला, दोध लत्पादन और माला-भानवर का काम माहित्यिक सन्दर्भ श्लोकों एवं प्रार्थनाओं में पाये गये हैं।
समाज- वैदिक समाज केसीलाई मोमाज भा। वह जातीय एवं पारिरिक सम्बन्धों पर आधारित था। विभिन्न व्यावसायिक गुट अर्थात मुखिया, गुरोशित, कारीगर भारि जन समुन्नाग के निम्मी कनीकी के लिए ‘जन’ पानों के नम रानाभों के मजर्भ मिलते हैं। जैसे ‘जापान युद्ध’ का वर्णन ऋग्वेद से हुआ है।
इसी वर्णन में कुछ जनों के नाम हैं। जैसे-भरत, पुरु, यदु, अनू और तुरवास। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि युद्ध अपहरण एवं पशुओं की चोरी को लेकर होते रहते थे।
जन का मुखिया राजा या गोपति होता था। परिवार समाज की प्राथमिक इकाई था। कुलप अर्थात् परिवार का सबसे बड़ा पुरुष परिवार का मुखिया था, जो परिवार की रक्षा करता था।
समाज, पितृसत्तात्मक था। पुत्र की प्राप्ति लोगों की सामान्य इच्छा थी। पुरुष को महत्व दिया जाता था। इसका पता उन श्लोकों में लगता है, जिनको पुत्र प्राप्ति के लिये लगातार प्रार्थना में प्रयोग किया जाता था। समाज में महिलाओं का भी काफी महत्त्व था। वे शिक्षित थीं तथा सभाओं में भाग लेती थीं।
ऐसे महिलाओं के दृष्टांत मिले हैं। अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था। विवाह भी देर से कर सकती थीं। महिलाओं को पिताओं, भाताओं और पतियों पर निर्भर रहना पड़ता था। शिक्षा का मौखिक रूप से आदान-प्रदान किया जाता था। शिक्षा की परम्परा कम थी।
ऋग्वेद की रचनाओं में स्वयं को अन्य मानव समुदायों, जिन्हें उन्होंने बास और बस्यू कला, से पृथक रखा। नामों के लिए काला मोठा होठों वाला, चपटी नाक वाला, लिंग पूजक भाषा का प्रयोग किया जाता था।
वे पशुधन स्वामी थे। वे लोग धन तथा पशुओं के स्वामी थे। | ‘पणि’ शब्द का प्रयोग व्यापारियों की धन सम्पत्ति के लिए किया जाता था। वे लोग जातियों एवं भाषाओं के रूप में नहीं बंटे थे।
ऋग्वेद का सबसे बड़ा नेता सुदास था, जिसने “10 राजाओं” की लड़ाई में भरत कुल का नेतृत्व किया था। उसके नाम के अन्त में प्रयुक्त दास शब्द से लगता है कि उसका दासों से कुछ सम्बन्ध था। एक क्षेत्र में कई समुदायों की उपस्थित के कारण ही वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव
धर्म- आर्य प्राकृतिक शक्तियों जैसे-जल, वायु, वर्षा, बादल, आग पर दैवी शक्ति का आरोपण करके मानव रूपों में उनकी उपासना करते थे। देवियों की आराधना बहुत कम होती थी। इंद्र शक्ति का देवता था। उसकी उपासना शत्रुओं का नाश करने के लिए की जाती थी।
वह बादलों का भी देवता भा। इस कारण वर्षा के लिए उसकी प्रार्थना की जाती भी। बरुण जल का बेवता था तथा प्राकृतिक व्यवस्था का रक्षक भी था। मृत्यु का देवता यम था।
अन्य दूसरे देवता सूर्य, सावित्री. सोम, स्त्र आदि थे। यत धर्म काल्पनिक अनुष्ठानों पर आधारित नहीं था, बल्कि बलि और स्लोकों के माध्यम से देवताओं से सीधा सम्पर्क स्थापित करने पर बल दिया जाता था।
आयों और उनके देवताओं के मध्यस्थ का काम अग्नि का था। ऐसा विश्वास था कि ठबन में जो बलि दी जाती है, वह अग्नि के माध्यम से सीधे देवताओं को मिल जाती है।
उत्तर वैदिक काल
अर्थव्यवस्था- दोआब और मध्य गंगा घाटी की उपजाऊ जमीन के कारण कृषि का विकास आसान हो गया। कृषि की पैदावार बढ़ने लगी, किन्तु पशुपालन अभी भी जारी रहा।
स्रोतों से पता चलता है कि लोग खाने में चावल का प्रयोग करते थे। वैदिक साहित्य में व्रीही (चावल), तंदुला तथा सलि जैसे शब्दों का प्रयोग इसकी पुष्टि करता है। फसल चक्र का प्रयोग होने लगा था।
अच्छी पैदावार के कारण राजसूय यज्ञ में दूध, भी तथा पशुओं के साथ अनाज भी चलाया जाने लगा। साहित्य में 812. तथा 20 बैल तक जोते जाने के प्रमाण मिलते हैं।
इस काल में पशुपालन जीवनयापन का प्रमुख साधन नहीं रहा। इसका स्थान अब कृषि ने ले लिया। मिश्रित कृषि अर्थव्यवस्था का प्रचलन हो गया। रोपाई द्वारा धान पैदा करने की जानकारी अभी तक पता नहीं थी। मिश्रित कृषि के कारण जीवन स्थाई व्यतीत होने लगा।
उत्तर वैदिक काल में अनुष्ठान का सदस्य साफ चलाया अब अनुष्ठान अनिल जो वाया। इस कारण अब काल ली लोग ही इसे सम्पन्न करा सकते थे।
सामूहिक भावना में कमी आई तथा बलि का उद्देश्य समुदाय पर नियन्त्रण प्राप्त करना हो गया। अब पूरे समुदाय को नहीं, बल्कि केवल ब्राह्मणों को उपहार मिलता था, जो अनुष्ठान करवाते थे।
भूमि का बढ़ता महत्त्व- भूमि पर धीरे-धीरे परिवार का स्वामित्व होने लगा। वैश्य समाज का उत्पादक वर्ग था। क्षत्रिय तथा ब्राह्मण उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा नहीं लेते थे।
इनके लिए उत्पादन वैश्य ही करते थे। जीवन निर्वाह करने वाले खाद्य पदार्थ क्षत्रिय और ब्राह्मणों के बीच बँट जाते थे।
राजनीति और समाज- अब कबीलाई संस्था का स्थान क्षेत्रीय पहचान ने ले लिया। मुखिया की प्रकृति में भी व्यापक परिवर्तन आया। समाज जटिल होने लगा।
राजनीति- दस काल में जन की जगह जनपद का प्रयोग होने लगा। ‘राष्ट्र’ शब्द का भी प्रयोग होने लगा था, किन्तु इसका अर्थ अभी निश्चित नहीं हुआ था। कबीले अब क्षेत्रीय पहचान बन गए।
उदाहरण के लिए कुरु तथा पांचाल एक में मिल गए। राजा या मुखिया केवल पशुओं की लूट में सम्मिलित नहीं होता था, बल्कि वह उस क्षेत्र का रक्षक हो गया था। समिति की अपेक्षा सभाएँ अधिक शक्तिशाली हो गई।
अब लड़ाइयाँ लूट के लिए नहीं, अपितु आधिपत्य स्थापित करने के लिए लड़ी जाने लगीं। ब्राह्मणों का महत्व बढ़ गया क्योंकि वे क्षत्रियों का अनुष्ठान कर राजा को वैद्यता प्रदान करते थे।
समाज-अब चार वर्ण व्यवस्था स्पष्ट रूप से सामने आई। समाज अब असमानता पर आधारित हो गया। ब्राह्मण समाज में सबसे उच्च तथा शूद्र स्वसे निम्न थे।
सगोत्र विवाह अनुष्ठानों की पवित्रता के नियम कठोर हो गए। भौगोलिक केन्द्र परिवर्तन के कारण वैदिक जनों का सामना अन्य लोगों से हुआ।
इनमें लम्बे आदान-प्रदान के बाद एक मिलाजुला समाज अस्तित्व में आया। इसी काल में गोत्र संस्था का उदय हुआ। सगोत्र विवाह अमान्य हो गए।
इस काल में पितृसतात्मक परिवार अच्छी प्रकार से स्थापित हो चुका था। ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ तथा संन्यास-आश्रम प्रचलित थे। संन्यास संभवतः पूरी तरह विकसित नहीं हो सका था।
धर्म-अथर्ववेद से पता चलता है कि धर्म विभिन्न संस्कृतियों तथा वैदिक मान्यताओं का मिला-जुला रूप था। ‘बलि’ धर्म का अभिन्न अंग था। यज्ञों में आहुति दी जाती थी।
पुरोहितवाद-जटिल अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के लिए व्यावसायिक लोगों की आवश्यकता थी जो इस कार्य में निपुण हों। इस प्रकार एक नई सामाजिक व्यवस्था पुरोहितवाद की उत्पत्ति हुई।
वह विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान करवाता तथा यज्ञों को सम्पन्न करवाता था। इसके बदले में उसे अपार धन की प्राप्ति होती थी।
उत्तर वैदिक काल के देवता- इस काल में इन्द्र और अग्नि का महत्त्व कम हो गया। प्रजापति महत्त्वपूर्ण देवता हो गया। रूद्र का महत्त्व बढ़ गया।
विष्णु को सृष्टि का रचयिता तथा संस्थापक समझा जाने लगा। पूषण अब शूद्रों का देवता हो गया, पहले वह पशुओं की रक्षा करता था।
लोक परम्परा- अथर्ववेद से लोक परम्पराओं को विशालता का पता चलता है। यह समाज में व्याप्त विश्वासों और अन्धविश्वासों पर आधारित ग्रंथ है। देवताओं की स्तुति अब छाट और व्यक्त्तिात मिलाकामना सेतु की जाती थी बहुत सारे देवता, राक्षस तथा पिशाच सबकी स्तुति की जाती थी।
मंत्र-तन्त्र तथा जादू-टोना पर लोगों का विश्वास था। इस काल में ब्राह्मणों के विरुद्ध एक कड़ी प्रतिक्रिया हुई। इसका मूर्त रूप उपनिषदों में दिखाई देता
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)

0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box