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पृथ्वीराज रासो

रासो-काव्य हिन्दी के प्राचीनतम काव्य हैं, जो धीरे-धीरे इतिहास की अंधकाराच्छनन गुहा से निकलकर आलोक में आ रहे हैं। अत्यन्त प्राचीन काव्य होने के कारण, न केवल रासो-काबव्यों के संबंध में ही अनेक भ्रान्तियों ने जन्म लिया है, अपितु स्वयं 'रासो' शब्द के संबंध में भी अनेक भ्रामक धारणाएँ विद्वानों द्वारा व्यक्त की गई हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार गार्सा द तासी के अनुसार, रासो शब्द की व्युत्पत्ति राजसूय शब्द से हुईं है, परन्तु न सभी चरित-काव्यों में राजसूय यज्ञ का वर्णन है और न संदेशरासक, बीसलदेव रासो आदि काब्यों में। इनमें केवल वीर रस का वर्णन है, उनमें अन्य रसों का भी समावेश है। अतः यह मत स्वीकार्य नहीं।

पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'रासक' शब्द से रासो की व्युत्पत्ति मानी है। उनका कथन है कि जैसे संस्क त का ““घोटक”” शब्द ब्रज में 'घोड़ों' हो जाता है, उसी प्रकार 'रासक' का 'रासो' हो गया है। उनके अनुसार रासक का अर्थ काव्य था। शुक्ल जी के मत के समान इनका मत भी विद्वानों द्वारा स्वीकार नहीं किया गया।

'पथ्वीराज रासो' हिन्दी का सच्चा वीर काव्य है, क्योंकि उसमें सामन्ती वीरयुग अपने सम्पूर्ण गुणों और दुर्गणों के साथ अभिव्यक्त हुआ है। सामन्ती वीर-युग की प्रमुख प्रेरणा-शक्ति वीरता की थी तथा श्र गार एवं धर्म की प्रव त्ति, पूरक रूप में ही आयी। 'रासो' का प्रधान रस भी वीर है, श्वगार तथा शांत गौण रस हैं। रासोकार का उद्देश्य, प थ्वीराज का यश-वर्णन करना मात्र नहीं है। वह एक जातीय महाकाव्य है, जिसमें 12वीं और 13वीं शताब्दी में देशी राजाओं और सामन्तों में झूठी शान तथा व्यक्तिगत स्वार्थों (कन्या-हरण, राज्य-विस्तार) के लिए होने वाले युद्धों तथा विदेशियों से होने वाले अनवरत संघर्ष एवं पराजय की कथा अत्यंत ओजस्वी शैली में कही गई है। वीर रस की प्रधानता होते हुए भी उसका उद्देश्य केवल वीर रस का स्वाद कराना नहीं है, बल्कि जातीय जीवन में प्राणों का संचार करना, उसमें स्वातन्त्रय एवं बलिदान की भावना का मंत्र फूकना भी है, साथ ही वह देश, जाति और व्यक्ति के गौरव, प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान के लिये मर-मिटने का अमर संदेश देता है। शरणागतवत्सलता, क्षमाशीलता, गुणग्राहकता आदि सामन्तयुगीन प्रव त्तियों का भी प्रतिबिम्ब, उसमें पाया जाता है। इस प्रकार 'रासो' का उद्देश्य अत्यंत भव्य, उदात्त और महान्‌ है। यह संदेश रासो में समन्वित प्रभाव में तो निहित है ही, उसके अधिकांश छंदों में भी उसकी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति हुई है।

किसी महाकाव्य में उच्च उद्देश्य और महान्‌ प्रेरणा की प्रतिष्ठा तभी होती है, जब उसके कवि की चेतना विराट और प्रतिभा सशक्त हो। 'प थ्वीराज रासो' राजस्थान में व्याप्त युगव्यापी विराट्‌ चेतना एवं स्वातंत्रय-प्रेम की अटूट परम्परा की देन है, न कि केवल किसी एक दरबारी कवि की क ति। वह केवल सामन्ती वीर-युग का महाकाव्य ही नहीं, कछ शताब्दियों की सामाजिक भावभूमि एवं जीवन-व्यवस्था का यथार्थ प्रतिबिम्ब उपस्थित करता है। इस प्रकार महान्‌ उद्देश्य, महत्ती प्रेरणा-शक्ति और कवि की काव्य-प्रतिभा तथा विराट चेतना, सभी दष्टियों से रासो को महाकाव्य कहा जा सकता है।

रासो के आकार की विशालता उसके महाकाव्यत्व का कारण नहीं है। यह ठीक है कि उसमें शास्त्रीय महाकाव्यों 'रघुवंश', 'किरातार्जुनीय' जैसा अर्थ-गौरव और भाव-गाम्भीर्य नहीं है, पर प्राचीन ज्ञान-भंडार संबंधी विषयों की योजना के कारण उसमें पर्याप्त गुरुत्व और गाम्भीर्य आ गया है। साथ ही यह ज्ञानराशि शुष्क कथन के रूप में नहीं, युग-जीवन की प ष्ठभूमि के रूप में उपस्थित की गयी है। न केवल युग-जीवन के विविध द श्य ही इसमें पाये जाते हैं, अपितु राजनीति, नीतिशास्त्र, धर्म-शास्त्र, योग-दर्शन, अध्यात्म-विद्या आदि के वर्णन भी उसमें मिलते हैं | जीवन के गम्भीर पक्षों और आभ्यन्तर तथ्यों का उद्घाटन उसमें जगह-जगह सहज रूप में बिना प्रयास आ गया है। उदाहरणार्थ, आपदाओं के बीच साहस, शौर्य और निर्भयता का प्रदर्शन करने वाला जीवन में अनुरक्‍्त प थ्वीराज उस युग का योग्यतम व्यक्ति चित्रित किया गया है। उसके चरित्र की ऊँचाई और विशालता आधुनिक मापदण्ड पर नहीं, सामन्ती मूल्यों पर 'रासो' को गाम्भीर्य और गुरुत्व प्रदान करती है।

'रासो' के कथानक का काल बहुत लम्बा, चरित्र-वैविध्य और कार्य-क्षेत्र (मध्य एशिया से काशी-गया तथा देवगिरि से हांसी तक) बहुत व्यापक है। अत: बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में उत्तर-भारत के समस्त सामाजिक और राजनीतिक जीवन का प्रतिबिम्ब उसमें दिखाई देता है। 'रासो' में अनेक युद्धों, विवाहों, यात्राओं, म गया, मंत्रणा, दूत-कर्म आदि के चित्र तत्कालीन सम्पूर्ण समाज को प्रस्तुत करते हैं। महाकाव्य में महत्‌ कार्य का अर्थ, कोई ऐसी घटना है, जो किसी युग की या किसी महान्‌ चरित्र के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना हो और जो अपने युग को ही नहीं आने वाली अनेक शताब्दियों को भी प्रभावित कर सके | प थ्वीराज और मौहम्मद गौरी का अन्तिम युद्ध तथा उत्तरी भारत पर मुसलमानों का अधिकार, ऐसी ही महत्त्वपूर्ण घटना है। 'रासो' में सामन्ती युग की विविध सामाजिक हलचलों में भाग लेने वाले सभी प्रकार के पात्र अपना-अपना कार्य करते दिखाई पड़ते हैं। यही नहीं, तत्कालीन लोक-विश्वासों के अनुरूप अतिप्राक त शक्तियाँ-देवता, राक्षस, गन्धर्व, भूत, बेताल, शुक, हंस आदि भी कथा को आगे बढ़ाने में योगदान देते हुए दिखाई देते हैं। 'रासो' में सामन्‍्ती वीर युग की सभ्यता, रहन-सहन, मान-मर्यादा, खान-पान, व्रत-त्यौहार आदि का इतना क्रमिक और सच्चा वर्णन हुआ है कि यह महाकाव्य उक्त वस्तु-व्यापारों का काव्यात्मक कोष प्रतीत होता है और युग का सामाजिक इतिहास ।

विकासनशील महाकाव्य की कथावस्तु में कसावट, अन्चिति और समानुपात या तो कम होता है या बिल्क॒ल नहीं होता। 'प थ्वीराज रासो" का कथानक ऐसा ही है। उसमें नाटकीय अन्विति नहीं है। उसकी अधिकांश अवान्तर कथाएँ अपने आप में स्वतंत्र हैं। वे आधिकारिक कथा को आगे बढ़ाने में बहुत कम योगदान देती हैं। आधिकारिक कथा, घटनाओं की भीड़ में खो गई है। 'रासो' का कथानक बिखरा हुआ प्रतीत होता है, साथ ही किसी एक कवि की क ति न होने के कारण उसमें कथानक की सुनिश्चित योजना भी नहीं है, पर शिथिल तथा क्षीण प्रवाह युक्त कथानक होते हुए भी उसमें सक्रियता और जीवन्तता बहुत अधिक है। उसकी शक्ति कथा-प्रवाह में नहीं, बल्कि घटनाओं, संघर्षों और वर्णनों में है। इसीलिए डा० शम्भूनाथ सिंह ने उसकी तुलना समुद्र से करते हुए लिखा है, “महानद की मन्द गति में जो प्रचण्ड शक्ति होती है और सागर की शत-शत तरंगों में जो महाघोष और अनवरुद्ध-अनाहत धूमधाम होती है, वही शक्ति और धूमधाम रासो में भी दिखाई पड़ती है |” उसका कथानक नाटकीय संधियों से युक्त और सुसंघटित नहीं है। इसीलिए इस दष्टि से उसकी तुलना अंग्रेजी के महाकाव्य Beewolf से की जा सकती है ।

'रासो' में परम्परागत महाकाव्यों के और भी कई लक्षण मिलते हैं, जैसेऋ सर्ग-बद्धता (69 समयों में विभकत है), मंगलाचरण, संवाद-रूप में कथा लिखने की पद्धति (शुक-शुकी संवाद), वस्तु-निर्देश, कथानक-रूढ़ियाँ, सज्जन-प्रशंसा और दुर्जन-निन्दा, काव्य-ग्रंथ का महत्त्व और आश्रयदाता का उल्लेख आदि | इसका कारण भी यही है कि यह क ति वीर युग के पठित समाज के प्रभाव में विकसित हुई।

रस की द ष्टि से भी यह काव्य महाकाव्य कहलाने का अधिकारी है। भले ही इसका अंत करुण रस में हुआ हो, परन्तु समग्र प्रभाव की द ष्टि से यह वीर रस प्रधान काव्य है। श्ै गार, करुण और शांत आदि रस उसमें अंग रूप में दिखाई पड़ते हैं। स्वयं कवि ने भी इस रचना के वीर रसात्मक प्रभाव का उल्लेख किया है-

“प थ्वीराज गुन सुनत करय संग्राम स्यार रन”

अतः रासो को वीर-काव्य (Heroic Epic) कहना ही उचित होगा, क्योंकि उसमें एक महान्‌वीर की जन्म से मरण पर्यन्त वीर गाथा प्रस्तुत की गयी है।

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