सरहपा : व्यक्तित्व एवं कृतित्व-सरहपा सिद्ध संप्रदाय के प्रवर्तक थे। ये नालंदा विश्वविद्यालय में बोद्ध ग्रंथों का अध्ययन करते थे किंतु जब उन्हें यह जीवन उबाऊ लगने लगा, तो उन्होंने एक नीच जाति की युवती को साथ लेकर सहजयान में प्रवेश किया। इन्होंने बौद्धतंत्रों को सुगठित किया और इस संप्रदाय का प्रवर्तन किया। इस संप्रदाय में तांत्रिक प्रवृत्तियाँ स्थापित कीं। इन्हें सरोरूह, बज्र, सरोबज्र, पद्भजब्रज तथा राहुल भद्र आदि नामों से भी जाना जाता है। विद्वानों का मानना हे कि एक बार की सिद्धि में इन्होंने शर बनाने वाली की महामुद्रा बनाई, तब से इनका शाम “'शरह' या 'सरह' पड॒ गया।
एक तिब्बती जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म उड़ीसा में हुआ था। बचपन से ही वेद-वेदांगों में इनका रुचि थी। उन्होंने मध्य प्रदेश में त्रेपिटकों का अध्ययन किया। बोद्धधर्म में दीक्षा ली और नालंदा चले गए। अंत में उड़ीसा में एक आचार्य द्वारा मंत्रों में कुशलता प्राप्त कर महाराष्ट्र में महामुद्रा योग में सिद्धि प्राप्त्की ओर 'सिद्ध' कहलाए।
सरहपा ने 32 ग्रंथों की रचना की। 'दोहाकोश' इनकी सर्वोत्तम रचना है। इनकी रचनाएं दो प्रकार की हैं-
1. सरहपा का दोहाकोश
(क) सरहपा का खंडित दोहाकोश।
(i) खंडित दोहा कोश-एक
(ii) खंडित दोहाकोश-दो
2. दोहाकोश में 112 दोहे हैं। इनके खंडित दोहाकोश-एक में 20 दोहे तथा खंडित दोहाकोश-दो में 12 दोहे हैं। इसके अतिरिक्त सरहपा द्वारा रचे हुए 4 दोहे, 4 समचतुष्पदियाँ ओर दो मुक्तक प्राप्त होते हं।
सरहपा के काव्य का प्रतिपाद्य संप्रदाय
सरहपा सांसारिक जीवन को एक बंधन, मायाजाल एवं अज्ञान मात्र मानते थे। वे इस लौकिक जीवन को छोड़कर इसी लोकिक जीवन में दिव्य तथा आध्यात्मिक अनुभूति करना चाहते थे। उनके काव्य के प्रतिपाद्य विषय हैं-गुरु का महत्त्व, देह की स्थिति, चित्त का महत्त्व, जगत की स्थिति, निर्वाण प्राप्ति, शून्य की व्यापकता, महासुख की स्थिति तथा सहज की कल्पना। गुरु के महत्त्व को बताते हुए वे कहते हें कि गुरु के बिना परमतत्त्व को देखा नहीं जा सकता। सरहपा कहते हें कि गुरु के उपदेश से शिष्य (साधक) अजर-अमर हो जाता हे। अत: साधक सदा गुरु के चरणों में रहे। सिद्धों के अनुसार यह शरीर ही सर्व सुखों, सभी सिद्धियों की प्राप्ति का कारण है। अत: सरहपा ने शरीर को गंगा, यमुना, गंगासागर, काशी, प्रयाग, सूर्य, चंद्र धर्मक्षेत्र, साधना पीठ कहा है। सरहपा ने चित्त को बहुत महत्त्व दिया हे। वे मानते हैं कि चित्त से ही सृष्टि का विकास हुआ हे। चित्त चिंतामणि हे, यह हमारी सारी इच्छाओं की पूर्ति करता है। अतः चित्त की मुक्ति परमावश्यक है। इनके अनुसार जगत का कोई अस्तित्व नहीं है। जगत केवल एक क्रांति है, क्योंकि निर्मल चित्त से देखने पर हमें पता चलता है कि हमारी आत्म ही जगत हेै। गंगा, यमुना, सरस्वती, प्रयाग, बनारस, सूर्य एवं चंद्र सब हमारे चित्त के अंदर हैं। इनके अनुसार चित्त का स्थिर एवं निर्विकार होना ही निर्गुण है। इनके कुछ सार, जिस प्रकार पानी में नमक अदृश्य हो जाता है उसी प्रकार चित्त को उस स्थिति में पहुंचाकर स्थित करें, जहां पर अपने-पराए का भेद खत्म हो जाए। इन्होंने शून्य को सर्वव्यापक माना हे। इनके अनुसार साधक शून्य परमतत्त्व की आराधना करके शून्य की तरह ही हो जाता है। जिस प्रकार वह शून्य गुण, वर्ण आकार रहित होता है। सर्वव्यापक होता हे उसी प्रकार साधक भी भेदभाव रहित है। सरहपा महासुख को शून्य के समान मानते हैं। यह सहज ही प्राप्त होने वाला आनंद है। इसे देखा-सुना नहीं जा सकता। इसका आदि-अंत नहीं है। यह अवर्णनीय है। इसकी प्राप्ति होने पर मन भर जाता हे। सारी शंकाएं समाप्त हो जाती हैं। सर्वत्र चहुंदेसि सुख होता है। सिद्ध साथकों ने शून्य को सहज कहा है। इनके अनुसार सहज ही शून्य हे और शून्य ही सहज है। शून्य को जान लेने पर चित्त भी सहज हो जाता है, जो इसे नहीं जान पाता, वह संसार में भटकता रहता है।
नाथ संप्रदाय : परिचय
नाथ संप्रदाय सिद्ध परंपरा का ही विकसित रूप है। नाथ शब्द के कई अर्थ हें, जेसे-'रक्षक' और 'शरणदाता' (वेदी के अनुसार) , 'स्वामी' ओर “पति' (महाभारत के अनुसार) , शैवमत में शिव के लिए 'नाथ' शब्द का प्रयोग हुआ है। नाथ संप्रदाय में अज्ञान को दूर करने वाले तथा मोक्ष दिलाने वाला ब्रह्म को नाथ कहते हैं।
नाथपंथी साधु शिव की उपासना करते हैं। तंत्र-मंत्र और योग से साधना करने के कारण उन्हें 'योगी' भी कहते हैं। ऐसा माना जाता हे कि नाथ संप्रदाय का विस्तार शेव और बौद्ध साधनाओं के सम्मिश्रण से हुआ है। नाथों का समय 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक माना जाता है। इनकी संख्या 9 है, जिनमें आदिनाथ, मस्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ आदि प्रमुख हैें। ये साधु मेखला, श्रृंगी गूदड़ी, खघर, कर्णमुद्रा, झोला आदि धारण करते थे। कानों को चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए इन्हें कनफटा योगी भी कहते हैं। नाथ संप्रदाय में हठयोग का बड़ा महत्त्व है। इसमें कुंडलिनी को जगाने के लिए योगी लोग आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लेते हैं। इस संप्रदाय की भाषा में तद्भव शब्दों तथा उर्दू, फारसी शब्दों को सम्मिश्रण प्राप्त होता हैं। इसकी रचनाएं सबदी, पद, दोहा, सोष्ठा ओर चोपाई में रची गई हैं। भक्तिकाल से पहले नाथ (संप्रदाय) मत एक प्रबल और सर्वत्र प्रचलित लोक धर्म था।
गोरखनाथ का व्यक्तित्व और कृतित्व
गोरखनाथ को नाथ संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। गोरखनाथ ने नाथ संप्रदाय को व्यवस्थित कर उसे एक विकसित और व्यापक रूप दिया। गोरखनाथ के समय के बारे में मतभेद हे। कोई इनका समय 9वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और कुछ विद्वान 13वीं शताब्दी मानते हैं। इनके द्वारा चलाया हुआ पंथ नाथपंथ के नाम से जाना जाता है। चर्पटनाथ, भर्तृहरि, गोपीचंद तथा चौरंगीनाथ इनके शिष्य थे। इन्होंने अपनी रचनाएं हिंदी भाषा में लिखीं। आज गोरखनाथ के नाम से लगभग 40 रचनाएं प्राप्त होती हैं। डॉ. पीताम्बर दत्त ने गोरखबानी में गोरखनाथ को सभी रचनाओं को संकलित किया है।
गोरखनाथ के काव्य का प्रतिपादय
गोरखनाथ के काव्य के प्रतिपादू्य विषय हैं-गुरुमहिमा, योगपरक साधना, ब्रह्मानंद की स्थापना, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण, शून्य की कल्पना ओर नाड़ी साधना। गोरखनाथ योगसाधना एवं ज्ञान प्राप्ति में गुरु को आधार मानते हैं। उनके अनुसार वेद के अनुसार वचन बोलने वाला एक अवधूत ही गुरु हो सकता है। उसका हर कदम तीर्थ है और उसकी दृष्टि मोक्ष होते हैं। वह गुरु सारे श्रेयों का मूल है। शिष्य को उसकी शरण में जाना चाहिए। गोरखनाथ योगपरक साथना को सर्वजन के लिए प्रचारित करना चाहते थे, अतः उन्होंने इस योग को समझाने के लिए लोकजीवन के उदाहरण दिए, जैसे-सिद्धों ने आकाश मंडल में गाय का दूध निकालकर उसे दही के समान जमा दिया। पंडितों ने इस दही को छानकर केवल छाछ ग्रहण की, कितु सिद्धों ने छाछ को छोड़कर मक्खन ग्रहण किया। उनके अनुसार ब्रह्मानंद सर्वत्र व्याप्त हें। जैसे-तिल में तेल है उसी प्रकार अंजन में निरंजन हे। मैंने अंजन (माया) में से निरंजन (ब्रह्म) को प्राप्त किया है। उन्होंने योगसाधना और ब्रह्म की प्राप्ति में नारी को बाधक माना है। नारी का परित्याग करने से ही मनुष्य सिद्धियों को प्राप्त करता हे। उन्होंने शून्य को परमतत्त्व को रूप में स्वीकार किया। उनके अनुसार वह शब्द हे, वह नाद तत्त्व हे। वही सारी सृष्टि का मूल है। गोरखनाथ ने हठयोग में नाड़ी साधना पर बल दिया है। उनके अनुसार शरीर की 72 हजार नाडियों में सुषुम्ना नाडी ही शक्ति को धारण करने वाली है। वे कुंडलिनी जागरण के विषय में कहते हैं कि इडा, पिंगला और सुषुम्ना इन तीन नाडियों का संगम ब्रह्मरंध हैं, जो मस्तिष्क के मध्य में द्वार के रूप में बंद रहता है। उसके खुलते ही अमृत वर्षा होती है, जिससे योगी को अमरत्व प्राप्त होता है।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box