“राजपूत” शब्द संस्कृत मूल (राजा का पुत्र) से लिया गया है। राजपूत शब्द के प्राकृत रूपों को विभिन्न रूप से रक्त सौदा रॉल रावल के नाम से जाना जाता है। 7वीं शताब्दी सी, ई. के बाद से इस शब्द के अर्थ में परिवर्तन ध्यान देने योग्य है क्योंकि “राजा के बेटे” के बजाय एक जमींदार के अर्थ में साहित्यिक ग्रंथों में यह इस्तेमाल किया जाने लगा। बाणभट्ट (वीं शताब्दी सी.ई.) के हर्षवरिति में इस शब्द का उपयोग एक कुलीन या जमींदार प्रमुख के अर्थ में किया गया है। कादबरी में भी इसका उपयोग कुलीनवंश के व्यक्तियों के लिए किया गया है जिन्हें राजा द्वारा स्थानीय शासकों के रूप में नियुक्त किया जाता था। स्थानीय शासकों की क्षमता में वे स्थानीय रूप से उनके अधीन भूमि के एक बड़े हिररो पर रवाभाविक रूप रो शारान कर राकते थे और इरा प्रकार, उन्होंने राज्य की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निमाई। राजतंराग्रिणी में शजपुत्र शब्द का प्रयोग केवल एक जमींदार के रूप में किया गया है, जो राजपूतों के 36 कुलों से जन्म लेता है। 36 कुलों का संदर्भ स्पष्ट रूप से 12वीं शताब्दी सी.ई. द्वारा उनके अस्तित्व को दर्शाता है।
यह शब्द
12वीं शताब्दी के बाद से अधिक इस्तेमाल होने लगा। भट्ट भुवनदेव की 12वीं शताब्दी
के अपयजितगप्रच्छ जो एक विशिष्ट सामंती व्यवस्था की रचना का वर्णन करता है,
शजपुत्रों को संदर्भित करता है, जो सम्पदा
रखने वाले छोटे ओहदे के प्रमुखों के एक बड़े हिस्से का गठन करते हैं, उनमें से प्रत्येक एक या एक से अधिक गाँवों का गठन करता है। सत्तारूढ़
अभिजात्यों के बीच, राजपूतों ने एक विस्तृत श्रृंखला को
अंतर्निहित किया जिसमें एक राजा के वास्तविक बेटे से लेकर निचले स्तर के जमींदार
तक शामिल थे।
राजपूत वंशों की वृद्धि
मारवाद्ध के माट लेखकों द्वारा रचित यंशायली के
अनुसार अबू के परमार यंश के घारनिवराह ने स्वयं को नवकोट मारवाड़ का स्वामी बना
लिया और बाद में उसने इसको अपने नौ भाइयों में विभाजित कर दिया- एक भाई को मंदोबर,
दूसरे को अजमेर तथा इस तरह से शेष को अन्य भाग प्रदान कर दिये।
मालवा के परमारों के अलावा उनकी चार अन्य शाखाएं (1) अबू,
(2) मीनमल, (3) जलौर, (4) वागदा में मी शासन करती थी। इसी तरह से भडौच के चाहमानों के अतिरिक्त
प्रतापगढ क्षेत्र पर उनकी एक अन्य शाखा शासन करती थीं। इसका प्रमुख प्रतिहार
राजाओं का एक महासामंत था। इस महासामंत का पूर्वज शाकम्भमरी की प्रसिद्ध चाहमान
शाखा का सदस्य था। शाकम्मरी के चाहमानों के पास पुष्कर से हर्सा तक का (मध्य और
पूर्वी राजस्थान) भू-माग था, परन्तु यह भू-भाग उनकी शाखाओं (1)
नाडौल, (2) जालौर, (3) सत्यपुरा,
(4) अबू में विभाजित भा। अपने पांच शताब्दियों के शासन काल में
उन्होंने पश्चिम राजस्थान एवं गुजरात के विशाल क्षेत्रों पर अपना अधिकार बनाये
रखा।
प्रारंभिक
मध्यकाल में चाप नाम का एक और राजपूत वंश था। उन्होंने भीलमल काठियाबाड में
वंधियार और गुजरात में अनाहिलपटक जैसी र्यासतों पर शासन किया। इसी तरह से गुहिलों
ने उदयपुर एवं मेवाड पर शासन किया।
इन बड़े
वशों के उप-विभाजनों के साथ-साथ बहुत से छोटे-छोटे वंशों का उदय, प्रारंभिक मध्यकाल में राजपूतों के फेलाव में एक और महत्वपूर्ण कारण था।
राजनीतिक शक्ति को प्राप्त करने के माध्यम से राजपूत यंशों के निर्माण की एक
अनवर्त प्रक्रिया जारी थी। नवीन वंशों का निर्माण तथा पुरानों का उप-विभाजन जारी
था। नवीन यंशों का निर्माण तथा पुरानों का उप-विभाजन राजपूत राजनीतिक ढांचे के
अंदर्गत कई तरीकों से जारी रहता भा।
वंशीय
शक्ति के निर्माण एवं सुदृढ़ीकरण का विकास एक समान रूप से न हुआ। राजकुल या वंशीय
शव्ति के निर्माण की प्रक्रिया का एक संकेत उन नये क्षेत्रों को बसाना था - जिसका
प्रमाण बहुत सी बस्तियों के प्रसार के रूप में प्रिलता है। नये क्षेत्रों का बसाना
संगठित सैन्य शक्ति के साधनों द्वारा विजित किये गये नये क्षेत्रों के
परिणामस्वरूप हो सका। नादौल के चौहान राज्य को सप्ताशंत के नाम से जाना जाता था।
ऐसा कहा जाता है कि सप्तसहसरिकादेश का निर्माण एक चौहान सरदार ने अपने राज्य की
सीमाओं के सरदारों का वध कर उनके गांवों को प्राप्त करके किया था। पश्चिमी मारत की
शक्तियों का क्षेत्रीय प्रसार कुछ क्षेत्रों में कबिलाई ब्रस्तियों को नष्ट करके
पूर्ण हुआ। उदाहरण के लिए. मंदौर प्रतिहार कक्कूका जिस स्थान पर जा बसे वह भयंकर
भा क्योंकि उस स्थान पर आभिरों का निवास भा। पश्चिम तथा मच्य भारत में सबरों,
भीलों एवं पुलिन्दों जैसी कबिलाई आबादी के दमन से इस तरह के उदाहरण
दिये जा सकते हैं।
इसी तरह
की कार्यवाहियों को गुहिलों तथा चाहमानों के दृष्टांत में भी पाया जाता है। सातवीं
सदी की प्रारंभिक गुहिला बस्तियां राजस्थान के अनेक भागों में पायी गई। कुछ बाद के
गुहिलों के नागद-अहार अभिलेखों के अनुसार उनका प्रारंभ गुजरात से हुआ था। भाट
कवियों की परंपरा के अनुसार गुहिलों ने अपने दक्षिण राज्यों की स्थापना भीलों के प्रारंभिक
कबिलाई राज्यों के स्थान पर की थी।
चौहानों
की प्रवाह भी अहिच्छत्रपुर के जंगल देश (शाकम्भरी) की ओर हुआ। जैसा कि इसके नाम से
ही स्पष्ट है कि यह एक उजाड़ क्षेत्र था। उनके इस ओर विस्तार के कारण यहां भी
बस्तियां बस गई। दसवीं सदी सी.ई. के एक लेख के अनुसार शाकम्भरी चाहमान वंश के
वाकपति प्रथम के पुत्र लक्ष्मण ने अपने कुछ समर्थकों के साथ अभियान शुरू किया और
मेदों के विरुद्ध युद्ध किया। ये मेद नाडुला के आस-पास के क्षेत्रों में अपनी
लूट-खसोट से वहां की जनता को आंतकित किए हुए थे। लक्ष्मण ने इस क्षेत्र के
ब्राह्मण स्वामियों को प्रसन्न कर दिया। इसी कारण से उन्होंने उसको नगरों का
रक्षक नियुक्त कर दिया। लक्ष्मण ने शनैः शनैः सेना की एक टुकड़ी का गठन कर लिया और
मेदों का उनके ही क्षेत्र में दमन कर दिया। मेदों ने यह भी वायदा किया कि वे उन
गांवों से दूर रहेंगे और वे लक्ष्मण को निश्चित कर का भुगतान करते थे। वह 20 घोड़ों का स्वामी बन गया और उसने सरलता से अपने प्रभुत्व का विस्तार किया
और नाडौल में एक विशाल भवन का निर्माण किया।
एक
राजवंश को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे राजवंश की सत्ता स्थापित की जा सकती थी और
ऐसा जालौर के चाहमानों के दृष्टांत से स्पष्ट भी होता है। जालौर के चाहमान नाडौल
के चाहमानों की ही एक शाखा थे। नाडौल चाहमान अलहण का पुत्र कितिपाल उस भूमि के भाग
से असंतुष्ट था जो उसको विभाजन के बाद प्राप्त हुआ था। लेकिन यह महत्वाकांक्षी
पुरुष था और उस समय मेवाड़ की स्थिति ऐसी थी जिससे कि वह उस पर आक्रमण कर अपनी
महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकता था। परन्तु उसको मेवाड़ पर किए गए आक्रमण में
सफलता प्राप्त न हुईं तब उसने उस क्षेत्र पर आक्रमण किया जहां पर पारमारों का शासन
था। उसने जालौर पर अधिकार कर उसे अपने नये राज्य की राजधानी बना लिया। इस तरह से
चाहमानों की भड़ौच शाखा उस समय अस्तित्व में आयी जब चाहमान सरदार भारत्रवद्ध
द्वितीय ने भड़ौच के गुर्जरों के क्षेत्र पर अधिकार कर राज्य की स्थापना की। अरबों
के आक्रमण के कारण इस क्षेत्र में अराजकता पैदा हो गईं थी और प्रतिहार
नागभट्ट-प्रथम ने भडौच के गुर्जरों को उखाड़ने के लिए चाहमान सरदार की सहायता की
थी। तब उसने 756 सी-ई. में महासामंताधिपति की उपाधि को धारण
किया।
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