क्रमश: 11वीं और 12वीं शताब्दी में महमूद गज़नी और मोहम्मद गौरी जैसे मुस्लिम तुकाँ द्वारा भारत पर किए गए सफल आक्रमण को 8वीं शताब्दी में सिंध की विजय द्वारा तैयार की गई पृष्ठभूमि के चरमोत्कर्ष के रूप में देखा जा सकता है।
मध्य
एशिया में तुकों के उदय और भारत में उनके बाद के आक्रमणों के साथ 11वीं और 12वीं
शताब्दी में वे उत्तर-पश्चिमी सीमा पर पैर जमाने में सफल रहे। महमूद गज़नी और मुइजुद्दीन
मोहम्मद गौरी द्वारा की गई लूट की घटनाओं के कारण इस्लाम भारत में प्रवेश कर सका।
11वीं शताब्दी की शुरुआत में मुस्लिम तु्कों द्वारा आक्रमण महमूद गज़नी की लूट से
शुरू हुआ। 12वीं शताब्दी के अंत में मुइजुद्दीन मोहम्मद गौरी द्वारा भारत में
प्रथम मुस्लिम राज्य की स्थापना में इसका चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है। हम यहां
मुस्लिम आक्रमण विजय के विभिन्न चरणों और मुस्लिम शासन के विस्तार के बारे में चर्चा
करेंगे, साथ ही उन कारकों की भी जाँच करेंगे जिन्होंने इन
घटनाओं को अंजाम दिया।
जैसा कि
पहले बताया गया है, 5वीं शताब्दी सी.ई. से ही अब्बासिद
पश्चिम एशिया का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था।
हालांकि,
9वीं शताब्दी के अंत से यह स्थिति बदलने लगी। इन्होंने अपनी ऊर्जा
और संसाधन का अधिकांश भाग मध्य एशिया के बुतपरस्त तुर्कों से लड़ने में खर्च कर
दिया था। साम्राज्य कई आक्रामक राज्यों में बेंट गया। इन राज्यों पर गैर-तुर्क
शासकों और तुर्की राजाओं अथवा सुल्तानों ने शासन किया। इन सभी राज्यों ने खलीफा'
के आधिपत्य को स्वीकार किया। खलीफा को इसकी औपचारिक वैधता मंशूर
(औपचारिक पत्र) अनुदान प्रत्र से मिली थी।
इनमें से
अधिकांश मुस्लिम शासकों ने स्वयं को सुल्तान कहलाना शुरू किया। दूसरी ओर, 6वीं शताब्दी में तुर्की खानाबदोश मध्य और पूर्व एशिया के बीच के क्षेत्र ट्रांसऑक्सियाना
(इसे अरबी स्रोतों में मवारुन नहर और फारसी में फरारूद के रूप में जाना जाता है)
में घुसपैठ कर रहे थे। उनके पास अच्छी सैन्य कुशलता थी। इसलिए अब्बासिद खलीफा और
ईरानी शासकों ने उन्हें इस्लाम धर्म में परिवर्तित कर किराए के सैनिकों, महल के रक्षकों और दासों के रूप में भर्ती कर लिया। धीरे-धीरे, इन इस्लामी तुर्की कमांडरों को भाषा, शिष्टाचार,
प्रशासनिक नीतियों आदि में “फारसीकृत” किया गया। इसका मतलब है कि इस
तुर्की शासक वर्ग ने फारसी संस्कृति को आत्मसात कर लिया था और इन्हें अपने नस्लीय
मूल पर गर्व थरा। वे दो भाषाएँ बोलते थे। अंततः. उन्होंने पश्चिम एशिया और भारतीय
उपमहाद्वीप दोनों में अपनी शक्ति का विस्तार किया।
अब्बासिद
साम्राज्य के पतन के बाद इस क्षेत्र की स्थिति गुप्तोत्तर कालीन उत्तर भारत जैसी हो
गई भी। यह कई शासकों द्वारा शासित था; प्रत्येक शासक अपने
क्षेत्र और सत्ता के विस्तार के लिए एक-दूसरे से लड़ रहे थे। इसके अलावा, इन राज्यों में कुछ महत्वाकांक्षी अधिकारियों ने सत्ता पाने के लिए राजा
को सिंहासन से हटाने का प्रयास किया। इसमें न जाने कितने राजवंशों का उदय और पतन
हुआ। पश्चिम और मध्य एशिया में इस तरह के राजनीतिक प्रवाह के बीच किसी भी राजवंश
की ताकत और अस्तित्व के पीछे मुख्य कारक इसकी सैन्य शक्ति और दक्षता थी। इसलिए,
हम कई राजवंशों को एक के बाद एक सत्ता में आते देखते हैं। इस तरह
समानिद वंश ने 874 से 999 सी.ई. तक
शासन किया।\
इसे बल्ख के एक ईरानी सरदार ने स्थापित किया, जो धर्मान्तरित था। उसने मध्य एशिया और अफगानिस्तान में समरकंद, हेरात आदि क्षेत्रों पर नियंत्रण किया। इस राजवंश के बाद गजनवी वंश ने 962 से 1186 सी.ई. तक शासन किया।
यह अल्प-टिगिन,//अल्प-तेगिन नामक समानिद साम्राज्य के एक तुक्की दास द्वारा स्थापित किया गया था। बाद में गजनवियों को सेल्जुकिड और ख्वारिज्मि राजवंशों ने भी हराया था। असल में ख्वारिज्मि राजवंश ने आगे चलकर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया जिसे चंगेज खान / जेंगिज़ खान के निर्मम मंगोल हमलों ने चकनाचूर कर दिया। जैसा कि ऊपर देखा गया है, अपने क्षेत्रों का विस्तार करने क॑ लिए इस्लामी तुर्कों के विभिन्न समूहों क॑ बीच लगातार युद्ध हुए थे। उन सभी ने युद्ध के मैदान में अच्छे सैन्य कौशल का प्रदर्शन किया और सत्ता के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा की। इतिहासकार सतीश चंद्र मध्य एशिया के तुर्की योद्धाओं की सैन्य दक्षता के बढ़ने के कुछ कारकों के बारे में बताते हैं। इन कारकों को जानना जरूरी है. क्योंकि इनके द्वारा भारतीय राजशाही के खिलाफ उनकी सफलता के पीछे के कारणों का पता चलता है।
क) पहला महत्वपूर्ण कारण यह था कि मध्य एशिया में
घोड़ों की बेहतरीन नस््लें पाई जाती थीं। पूरी दुनिया में यहाँ घोड़ों की सबसे
अच्छी किसमें थीं और उन्हें मज़बूत, अनुशासित योद्धाओं
द्वारा पाला जाता था। ये घोड़े अरब और भारत में आयात किए जाते थे क्योंकि यहाँ के
घोड़ों की देशी नस््लें मध्य एशियाई घोड़ों की तरह अच्छी नहीं थीं। घुर के लोग
घोड़े-पालक के रूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध हुए।
ख) दूसरा कारण यह था कि युद्ध उपकरण आसानी से उपलब्ध
थे। घुर का क्षेत्र (इसे घौर या घोर भी कहा जाता है) अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से एक था। इसके पड़ोसी क्षेत्र धातुओं, विशेष रूप से लोहे की धातुओं में समृद्ध थे। इस स्थलाकृतिक क्षेत्र की
पर्वत श्रृंखलाओं में धातुएँ बहुतायत में पाई जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि
लोहा भारी मात्रा में उपलब्ध था। घुर के लोग बड़ी संख्या में हथियारों और युद्ध-उपकरणों
का उत्पादन करते थे। उन्होंने पड़ोसी देशों में इन वस्तुओं का निर्यात किया।
हुद्॒ढ़्ल आलग के अनाम लेखक के शब्दों में, “इस प्रांत से
दास, कवच. (जिरह), कोट (जौशन) और अच्छे अस्त्र-शस्त्र लाए जाते
थेध। उस समय के एक
अन्य लेखक के अनुसार घुर और काबुल से लेकर कुरलुक,/कर्कलुक,/कर्लुक/ कार्लुक तक का पूरा इलाका मध्य
एशिया में अल्ताई पहाड़ों के एक प्रमुख तुर्किक आदिवासी संघ का क्षेत्र था,
पश्चिम में धातु के काम में व्यस्त था। इसलिए, युद्ध के औजार और सामग्री तुर्की योद्धाओं के लिए आसानी से उपलब्ध थे। जब
महमूद गज़नी ने 1020 सी.ई. में घुर पर हमला किया तो उसके
प्रमुख अबुल हसन खलफ ने उसे ढाल और कुइदरास के साथ कई अस्त्र-शस्त्र दिए। महमूद ने
घुरिद हथियारों के मूल्यों को पहचाना और उसकी प्रशंसा की। उसने घुरिद अधिकारियों
को घेराबंदी- युद्ध के विशेषज्ञों के रूप में नियुक्त किया। इस तरह अच्छी गुणवत्ता
वाले घोड़ों और युद्ध सामग्री की आपूर्ति ने हर जगह तुर्कों को उनकी सैन्य
गतिविधियों में मदद की। घुर ने हाल ही में मुस्लिम सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए
अपने दरवाजे खोले थे। मध्ययुगीन युद्ध में दो सबसे महत्वपूर्ण जरूरतें थीं- घोड़े
और लोहा।
ग) तुर्की योदाओं की सफलता के लिए ज़िम्मेदार एक और कारक उनकी गाजी' मावना शथी। यह पहली बार पश्चिम एशिया में देखा गया था कि तुर्की योद्धाओं को तुर्कमेन या तुर्कॉमान नामक गैर-तुर्की खानाबदोश योद्धाओं के खिलाफ लगातार लड़ना पड़ा था। इस समय ट्रांसओक्सियाना का क्षेत्र ईरानी शासन के अधीन था। इसके आसपास के क्षेत्रों में तुर्क और गैर-मुस्लिम खानाबदोश तुर्कमानों का निवास था। तुर्क और गुज या ओगुज जैसे तुर्कोमानों के बीच लगातार झगड़े होते थे। वे कारा-खितई (मध्य एशियाई मैदान) में रहते भे। इस अवधि के दौरान तुर्की सम्लाटों ने गुलार्मों को पकड़ने के लिए तुर्कमिन क्षेत्रों में निरंतर घुसपैठ की। वर्तमान अफगानिस्तान के हेरात, वर्तमान ईरान के सिस्तान, वर्तमान उजबेकिस्तान के समरकंद और बुखारा के गुलाम- बाजारों में इन गुलामों की बहुत मांग थीं। घुर इन बाजारों में दासों की आपूर्ति किया करते थे। इस तरह के अभियानों में शामिल योद्धा लूट से कमाने के लिए स्वतंत्र
2. अरबी में इसका अर्थ है "विश्व की
सीमाएँ"। यह 10वी शताब्दी में अज्ञात लेखक द्वारा फारसी
में लिखी गई भूगोल पर एक रचना है। लेखक जोजियन, जौज्जान,//
जोजियान का वासी था, जो अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से एक था)।
3. एक योद्धा के लिए इस्लामी शब्द। यह एक उपाधी था
जो मुस्लिम योखधाओं या चैपियन को दियागया था और कई ओटोमन सुल्तानों द्वारा
इस्तेमाल किया गया था।
हालाँकि, इस तरह की लूट और लूट के पीछे मुस्लिम तुर्की योद्धाओं का एक अन्य उद्देश्य था। इस्लाम को गैर-मुस्लिम आबादी के बीच फैलाना भा और इसलिए, उन्हें गजियों के रूप में जाना जाता था। इसलिए, हम देखते हैं कि गाजी की भावना को पहले मध्य एशियाई खानाबदोश जनजातियों से लड़ने के लिए सुयोजित किया गया। बाद में इसे भारत में “अविश्वासियों” के खिलाफ अपनाया गया श्रा। महमूद गज़नी अफगानिस्तान का एक लुटेरा था। उसने भारत पर आक्रमण के समय उसी गाजी की भावना को अपनाया और प्रदर्शित किया। कुछ इतिहासकार भारतीय उपमहाद्वीप में उसके आक्रमण और विजय को एक पवित्र युद्ध के रूप में देखते हैं। इसमें सहायता करने वाले स्वयंसेवकों की कोई कभी नहीं थी। उनकी विजय पूरे पूरब में प्रसिद्ध थी। कुछ 20,000 योद्धा ऑक्सस* के आगे से आए थे। वे प्रार्थना करते थे कि उन्हें इस्लाम के लिए युद्ध करने का अधिकार मिले और संभवत: वे इस महान कार्य के लिए शहादत का ताज पहनने के लिए आतुर थे। इस तरह के जोश ने एक विशाल सेना को मजबूत किया और उसने 1018 सी.ई. में भारत में अपना सबसे बड़ा अभियान चलाया और अपने मकसद में बहुत दूर तक पहुँचा।
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