दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा में अंतर्सबंध
दर्शनशास्त्र तथा शिक्षा में पूरक एवं अभिन्न सं्यंध है। विभिन्न
दार्शनिक सिद्धान्त एवं नियम बार-बार शिक्षा में क्रियान्वित करने हेतु शैक्षिक
विमर्शों में विकसित एवं उपयुक्त हुए हैं। यह कहना उचित है कि दर्शनशास्त्र ज्ञान
के विकास का सैद्धान्तिक पक्ष है तथा शिक्षा उस ज्ञान का विद्यार्थियों में
क्रियान्चयन हेतु व्यावहारिक तथा क्रियान्वयन पक्ष है।
दर्शनशास्त्र मानव जीवन के विकास का साधन है। दर्शनशास्त्र मानव
जीवन के लक्ष्य का निर्धारक होता है तथा शिक्षा इन लक्ष्यों की प्राप्ति के एक
साधन के रूप में भूमिका निर्वाह करती है। दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा दोनों एक-दूसरे
से अभिन्न एवं अंतर्निर्भरता के साथ संबंधित हैं। जे. एस. रॉस के अनुसार
“दर्शनशास्त्र एवं षिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह है। दोनों एक-दूसरे का
अर्थ प्रकट करते हैं एक जीवन का विचार पक्ष है तथा दूसरा क्रिया पक्ष है ”
(सक्सेना,
2009 द्वारा उद्धृत) | दर्शनशास्त्र जीवन की
चिंतन की प्रक्रिया है तथा शिक्षा चिंतन प्रक्रिया को मूल रूप देने हेतु
क्रियात्मक अंग है। शैक्षिक समस्याओं को शैक्षिक विमशों में अन्वेशित किया जाता है
तथा इसे सैद्धान्तिक स्वरूप प्रदान करने हेतु एवं उन समस्याओं के समाधान का मार्ग
प्रशस्त करते हेतु दर्शनशास्त्र के साथ कुछ सीमा तक इसका जुड़ाव है। अतः शैक्षिक
उद्देश्यों, व्यवस्था, संगठन तथा
शिक्षा विधियों को समझने से पूर्व दर्धनषास्त्र को समडना महत्यपूर्ण है। दर्शनशास्त्र
एवं बिक्षा के मध्य संबंध स्थापित करते हुए सक्सेना (2009) ने अपनी पुस्तक “प्रिंसिपल्स
ऑफ एजुकेषन ” (Principles of Education) में निम्नलिखित
बिन्दुओं को अवलोकित किया है:
- · दर्शनशास्त्र शिक्षा के लक्ष्यों की ओर वास्तविक गंतव्य को निर्धारित करता है।
- · दर्शनशास्त्र जीवन के लक्ष्य का निर्धारक होता है तथा शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु इसे समुचित एवं प्रभावी निर्देशन तथा पर्यवेक्षण प्रदान करता है।
- ·
दर्शनशास्त्र अधिगम के सिद्धान्तों
तथा नियमों को प्रदान करता है जबकि शिक्षा शिक्षण एवं अधिगम की प्रक्रिया में उन
नियमों एवं सिद्धान्तों का क्रियान्वयन करती है|
- · सच्ची शिक्षा का अभ्यास एक सच्चे दार्षनिक द्वारा ही होता है (स्पैन्सर)।
- ·
दर्शनशास्त्र शिक्षा के विभिन्न
पक्षों जैसे शिक्षण विधियों, शिक्षण के सिद्धान्त, पाद्यचर्या तथा शिक्षक एवं विद्यार्थियों की भूमिकाओं को निर्धारित करता
है।
- ·
दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा एक ही
सिक्के के दो पहलू की तरह हैं, एक ही चीज के भिन्न दृष्टिकोणों
को प्रस्तुत करते हैं तथा एक-दूसरे के अर्थ अथवा अभिप्राय को प्रकट करते हैं।
- ·
प्रत्येक काल में महान पाठ्यचर्या
महान शिक्षाविद हुए हैं जैसे प्लेटो, डिवी, रूसो, गाँधी, अरविन्द आदि
- · शिक्षा दर्शनशास्त्र का क्रियात्मक पक्ष है (जॉन एड्म्स) क्योंकि शिक्षा दर्शनशास्त्र के विचारों को कार्य एवं अभ्यास में परिवर्तित करती है।
- · दर्शनशास्त्र जीवन के लक्ष्यों को निर्धारित करता है जबकि शिक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति का साधन है।
दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा के लक्ष्य
दर्शनशास्त्र शिक्षा के लक्ष्यों का निर्धारण करता है| हम सब जानते हैं कि शिक्षा एक वस्तुनिष्ठ एवं प्रयोजनपूर्ण गतिविधि है |
शिक्षा के लक्ष्य, जीवन के लक्ष्यों से
संबंधित हैं| पुनः जीवन के लक्ष्य निश्चित समय में
दर्षनषास्त्र की रचना हैं (सक्सेना, 2009)| अतः शिक्षा के
लक्ष्य दर्शनशास्त्र द्वारा निर्धारित होते हैं| हम अपने
जीयन के लक्ष्यों के अनुसार शिक्षा के लक्ष्य निर्मित करते हैं तथा जीवन के लक्ष्य
जीवन दर्शन द्वारा निर्धारित होते हैं। अतः शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति के जीवन
दर्शन से परे कभी नहीं हो सकता है। अतः जब जीवन के लक्ष्य परिवर्तित होते हैं तब
इसी के अनुरूप शिक्षा के लक्ष्य भी परिवर्तित होते हैं| उदाहरणार्थ
जब हमारे जीवन का लक्ष्य आजीविका का प्रबंध करना तथा समाज में बने रहना है अतः
बिक्षा के लक्ष्यों को उन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्धारित किया जाता है तथा
इसी के अनुरूप शिक्षा व्यक्तियों को उनकी आजीविका की प्राप्ति हेतु तथा कार्य संसार
में उनको संलग्न करने के लिए उनके काशलों को तैयार करती है।
अतः विभिन्न कालों में
दार्शनिक एवं शिक्षाविद जीवन के लक्ष्यों के विषय में सरोकार में रखते हैं तथा इसी
के अनुसार पिक्षा फे लक्ष्य क्रियान्वित किए गए हैं| अब आप
इसे प्राचीन समय अर्थात् प्राचीन एवं मध्य काल तथा वर्तमान आधुनिक काल में भी
जीवन के लक्ष्यों तथा शिक्षा के लक्ष्यों से संबंधित कर रहे होंग। आधुनिक काल में
विज्ञान एवं तकनीक का विकास स्वतः नहीं हुआ है। यद्यपि वर्तमात्र समय में जीवन के
लक्ष्य तथा व्यक्ति की शिक्षा पर घिंतन है।
इसके अतिरिक्त विभिन्न
पाठ्यचर्या परंपरा जैसे आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, प्रयोजनवाद, यथार्थवाद आदि में षिक्का के लक्ष्य
पाठ्यचर्या सिद्धान्तों के अनुसार भिन्न-मिन्न हैं| अतः
भिन्न-भिन्न कालों में शिक्षा के
लक्ष्य भिन्न-भिन्न थे क्योंकि उन कालों में सामाजिक जीवन दर्षन भी भिन्न-भिन्न थे | उदाहरण के लिए प्राचीन काल, मध्यकाल तथा आधुनिक काल में शिक्षा के लक्ष्य भिन्न-भिन्न थे क्योंकि लक्ष्य समय द्वारा निर्धारित होते हैं| उपरोक्त विमर्श यह स्पष्ट करता है कि दर्शनशास्त्र एयं शिक्षा के लक्ष्य एक-दूसरे से निकटस्थ संबंधित हैं|
दर्शनशास्त्र एवं पाठ्यचर्या
विद्यालयी पाद्यचर्या का विकास किसी शिक्षा व्यवस्था में एक बहुत
महत्वपूर्ण घटक है| विद्यालयी पाठ्यचर्या विद्यार्थियों
के जीवन को निहित विषयवस्तु एवं पाठयक्रमों से जोड़ता है जो हमारे पाठयचर्चा में
सामुदायिक अपेक्षाओं तथा सामाजिक अभ्यासों से सीधा बटा लगाव होता है | अतः द्शनशास्त्र शिक्षा क॑ लक्ष्यों को निर्धारित करता है इसांलए यह
पाठ्यचयां को निर्धारित करता है| पुनः ठीक जिस तरह शास्त्र
का एक दार्शनिक परिप्रेक्ष्य होता है|
उसी तरह पाठयचर्चा तथा विषयों
या पाठयक्रमों का भी दार्शनिक परिप्रेक्ष्य होता है। किसी देश,/समाज का दर्शन पाठ्यचर्या में प्रतिबिम्बित होता है तथा इसी के अनुरूप
विद्यालयी गतिविधियों एवं अनुभवों का स्वरूप दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी देश का दर्शन लोगों में लोकतांत्रिक अभिवृत्तियोँ का प्रसार करना
है तब इसे विद्यालयी पाठ्यचर्या में लोकतांत्रिक सिद्धान्तों को सम्मिलित कर किया
जा सकता है। इसके अतिरिक्त, यदि किसी देश का दर्षन अपने
नागरिकों को कार्य संसार में संलग्न कर आत्मनिर्भर बनाना है तब शिक्षा का लक्ष्य
विद्यालयी पादयचर्या में हस्तकला एवं कौशल आधारित शिक्षा व्यवस्था को सम्मलित कर
देश /समाज में इसका विकास एवं क्रियान्वयन होगा।
हम और अधिक उदाहरणों द्वारा
दर्शनशास्त्र एवं पाठ्यचर्या के मध्य संबंध की अवधारणा को स्पष्ट कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, यदि देष का प्रमुख लक्ष्य सांस्कृतिक धरोहर को
हस्तांतरित तथा संरक्षण करना है तब विद्यालयी पाठ्यचर्या को इस प्रकार निर्मित
किया जाएगा कि इसे पाठयचर्या में सम्मिलित कर विद्यार्थियाँ में सांस्कृतिक
जागरूकता का बोध विकसित किया जा सके तथा देश की सस्कृति पर सेमिनार, गतिविधियों, कार्यशालाओं का आयोजन कर विद्यार्थियों
में इसके प्रति जागरूकता विकसित किया जा सकता है। यदि देश का दर्शन विज्ञान एवं
तकनीक का विकास करना है तब शिक्षा एवं पाठयचर्या के लक्ष्य पाठ्यचर्या में पृच्छा
एवं परियोजना आधारित ज्ञान को सम्मिलित कर विद्यार्थियों में वैज्ञानिक अभिवृत्ति
के विकास पर आधारित होने चाहिए तथा इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को इन क्षेत्रों
में अध्ययन तथा कौशल अर्जन के अवसर दिए जाने चाहिए।
आप पाठयचर्या निर्माण में दर्शनशास्त्र के महत्व के विषय में उपरोक्त उदाहरणों का अवलोकन किए होंगे। प्रयोजनवादी दर्शन अनुभवजन्य ज्ञान के मूल्य की विधियों पर विमर्श करता है, अत: वे अंतर्निहित विचारों के बजाय इन्द्रियों की सक्रिय संलग्नता वाले शिक्षण विधियों का महत्व देते हैं। दूसरी तरफ औचित्यवादी विचारक आंतरिक ज्ञान पर बल दते हैं तथा ज्ञान केवल औचित्यपूर्ण विचार द्वारा विकसित होता है। डेविड हुमे ने ठीक कहा है कि निश्चितता केवल गणित में ही संभव हो सकती है परन्तु विज्ञान के क्षेत्र में नहीं जबकि समीक्षात्मक दार्शनिक यह समर्थन करते हैं कि ज्ञान न तो पूर्ववर्ती और न ही परवर्ती है। अत: वे सभी प्रायोगिक एवं वैज्ञानिक ज्ञान में विश्वास करते हैं तथा ज्ञान की अपनी समझ के अनुसार पाठ्यचर्या का निर्माण करते हैं।
दर्शनशास्त्र एवं शिक्षण विधियाँ
दर्शनशास्त्र शिक्षण विधियों से समीपस्थ रूप से संबंधित है। आदर्शवादी दर्शन परंपरागत विधि जैसे व्याख्यान
विधि को शिक्षा विधि के रूप में सुझाता है।
प्रकृतिवादी दर्शन स्वाध्याय विधि पर बल देता है तथा शिक्षकों की भूमिका “सुविधा प्रदायक एवं निर्देशक" के रूप में मानता है। प्रयोजनवादी दर्षन शिक्षण हेतु गतिविधि, समस्या समाघान तथा परियोजना विधि को विक्षण विधियों के रूप में बल देता है। आदर्शवादी दर्शन शिक्षक केन्द्रित विधियों को महत्व देता है। प्रकृतिवादी दर्शन विद्यार्थियों हेतु स्वतंत्रता की अबाघ अवधारणा में विश्वास करता है एवं स्व-अध्याय विधि को महत्व देता है। प्रयोजनवादी दर्शन अध्ययन हेतु विद्यार्थियों को लोकतांत्रिक स्वतंत्रता प्रदान करता है एवं बाल-केन्द्रित विधियों जैसे गतिविधि एवं परियोजना विधियों का क्रियान्वयन करता है| उपरोक्त विमर्श यह स्पष्ट करने का प्रयास करता है कि दर्शनशास्त्र का शिक्षण विधियों से गहरा संबंध है।
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